सैलानियों को खींचते बर्मी महिलाओं के टैटू
५ अप्रैल २०११लेमरो नदी के किनारे एक छोटा सा बर्मी गांव, जहां चिन आदिवासी रहते हैं. कभी उनके कबीले में लड़कियों के चेहरों को टैटू से ढकने की परंपरा थी, जो अब लुप्त होती जा रही है. मा हिटवे की उम्र 65 है. उनके चेहरे की झुर्रियों पर मकड़ी के जाल की तरह टैटू देखे जा सकते हैं. उस बात को अब पचास साल से ऊपर हो चुके हैं, जब उन्हें टैटू बनाने के दर्द से गुजरना पड़ा था. और जब पलकों के ऊपर टैटू गोदे जा रहे थे तो एक लम्हे के लिए उन्हें लगा था कि अब तो जान ही निकल जाएगी.
बहरहाल, अब यह परंपरा लगभग मिट गई है. चिन युवतियों के चेहरों पर टैटू नहीं दिखते हैं. सिर्फ इस गांव में कुछ अधेड़ महिलाएं रह गई हैं. चिन समुदाय के पादरी श्वेके होइपांग बताते हैं कि 1960 के दशक में इस रिवाज पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. जैसे-जैसे यहां ईसाई धर्म का प्रभाव बढ़ता गया, यह प्रथा खत्म होती गई. होइपांग कहते हैं कि आज की युवतियां बिल्कुल नहीं चाहती कि उनके चेहरों पर ऐसे दाग बनाए जाएं. ये उन्हें खूबसूरत नहीं लगते.
कहा जाता है कि कबीले की औरतों को "बदसूरत" बनाने के लिए यह रिवाज शुरू हुआ था ताकि बर्मी राजाओं की बदनीयत नजरों से उन्हें बचाया जा सके. लेकिन इस इलाके का अध्ययन कर रहे जर्मन लेखक व फोटोग्राफर येन्स ऊवे पार्कटिनी का कहना है कि यह बात बकवास है. उनका कहना है कि यह तथाकथित सभ्य समाज के दिमाग की उपज है, जो ऐसे टैटू को बदसूरती से जोड़ते हैं.
कबीले की कुछ औरतों के लिए यह टैटू उनके नारीत्व का प्रतीक है. 60 साल की मा सेइन कहती हैं कि उनकी उम्र जब सिर्फ सात साल की थी, तो वह अपने मां बाप से जिद करने लगी थी कि उसका चेहरा टैटू से गोदवाया जाए. वह कहती हैं, "मुझे यह खूबसूरत लगता था."
और आज सारी दुनिया से सैलानी इन महिलाओं को देखने आते हैं. येन्स ऊवे पार्टकिनी कहते हैं कि इन महिलाओं के साथ यह परंपरा खत्म हो जाएगी. इस इलाके के शहर म्राउक ऊ से लेमरो नदी की यात्रा के कार्यक्रम बनाए जाते हैं, ताकि दूरदराज से आए सैलानी नाव से इन महिलाओं को देख सके. इसके अलावा अनेक सैलानी उनके गांव में भी आते हैं. मा सेइन उनका स्वागत करती हैं. वह कहती हैं कि उनका चेहरा एक विरासत है. उन्हें लगता है कि इन सैलानियों के साथ उनके पूर्वज लौट लौटकर आते हैं.
रिपोर्ट: एजेंसियां/उभ
संपादन: ए कुमार