स्काईप स्कूल से बिहार के गांव में कक्षा
८ अप्रैल २०११सप्ताह में एक दिन संतोष कुमार स्काईप वीडियो टॉक के जरिए बिहार के चमनपुरा गांव में 20 बच्चों को गणित सिखाते हैं. चमनपुरा बिहार का गरीब गांव हैं जहां लोगों को बहुत कम सुविधाएं उपलब्ध हैं. संतोष दिल्ली में रहते हैं चमनपुरा से 970 किलोमीटर दूर.
स्काईप से संतोष एक प्रोजेक्टर के जरिए गणित पढ़ाते हैं. और इसमें एक एनिमेटेड कहानी भी शामिल हैं. इस कहानी के जरिए वह बच्चों को अंक और अनंत की अवधारणा समझाते हैं. संतोष बताते हैं, जब मैंने पहली बार ऐसा किया था तो वह इस तकनीक से अचंभित थे. लेकिन अब उनको कोई फर्क नहीं पड़ता. यह उनके लिए सामान्य बात हो गई है.
सफल इंजीनियर का सपना
कुमार 34 साल के इंजीनियर हैं. वह भी चमनपुरा में ही पले बढ़े हैं. यहीं से पढ़ाई कर उन्होंने भारत के जाने माने संस्थान आईआईटी में दाखिला पाया और अब अच्छी नौकरी पर हैं. अपनी पढ़ाई के दिनों को याद करते हैं जब उन्हें 12 किलोमीटर साइकिल चला कर पड़ोस के शहर में कॉलेज जाना पड़ता था. संतोष कहते हैं, "गांवों में शिक्षा पहुंचाना एक मुश्किल चुनौती है."
कुमार के भाई चंद्रकांत सिंह भी इंजीनियर हैं. उन्होंने फैसला किया है कि वह गांव में में छह से 12 साल के बच्चों के लिए एक स्कूल बनाएंगे. "मैं यहां दूर दराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों को सबसे अच्छी शिक्षा देना चाहता हूं."
इस बात से बिना डरे कि गांव में बिजली की लाइन नहीं और कोई बड़ा, अनुभवी शिक्षक गांव नहीं जाएगा, सिंह ने अपने दोस्तों से संपर्क किया. और चैतन्य गुरुकुल बोर्डिंग स्कूल के लिए डोनेशन इकट्ठा करने की शुरुआत की. उन्होंने गांव में दो पॉवर जनरेटर लगवाए और 16 स्थानीय शिक्षकों की ट्रेनिंग की व्यवस्था की. और फिर उन्हें विचार आया कि स्काईप के जरिए वह इन बच्चों को देश के प्रोफेशनल्स से जोड़ सकते हैं.
चंद्रकांत कहते हैं, दुनिया के सबसे अच्छे शिक्षक गांवों में नहीं जाना चाहते. तो मैंने सोचा कि क्यों न बच्चों को पढ़ाने के लिए तकनीक का इस्तेमाल किया जाए.
स्कूल भी खुला
अप्रैल 2010 में स्कूल शुरू हुआ. इसमें 500 बच्चों को एडमिशन दिया गया. 50 से कोई शुल्क नहीं लिया गया जबकि बाकी बच्चों से उनके पालकों की क्षमता के हिसाब से फीस देने को कहा गया.
स्काईप की कक्षा रोज की सामान्य कक्षाओं के बाद लगती हैं और फिर सप्ताहांत पर. कुमार इस अभियान में पहले से ही लगे हुए थे. वह चाहते थे कि वह बच्चों को स्पष्ट करें कि उन्होंने कक्षा में क्या पढ़ा. "कुछ बच्चों को बहुच जिज्ञासा थी. कुछ घबरा गए. क्योंकि उन्होंने कभी कंप्यूटर देखा ही नहीं था. मुझे उनका डर भगाने के लिए बहुत काम करना पड़ा. अब यह टीवी के जैसा हो गया है. यह उनका मनोरंजन करता है और उम्मीद है कि वह इससे कुछ सीख भी लेंगे. तकनीकी मुश्किलें बहुत ज्यादा आती हैं. इससे बहुत खीज होती है लेकिन हम आगे बढ़ते रहते हैं."
छोटी छोटी उम्मीदें
एक छात्र अनमोल कुमार जायसवाल ने स्काईप पर बताया, "यह सीखने का बहुत अलग तरीका है. यह मुझे वह सब याद रखने में मदद करता है जो मैंने क्लास में सीखा है." वहीं 12 साल की प्रज्ञा कहती हैं, "मैं इन लेसन्स को पसंद करती हूं. इससे मुझे बहुत कुछ और अच्छे से समझ में आता है. मैं भी मेरे टीचर की तरह इंजीनियर बनना चाहती हूं."
बिहार के छोटे छोटे गांवों से आईआईटी जाने वाले और नाम कमाने वाले छात्रों की संख्या बढ़ी है और उनके गांवों की ओर लौटने, गांव के लिए कुछ करने की इच्छा भी बढ़ी है. जो देश के दूर दराज के लिए इलाकों के लिए निश्चित ही अच्छी खबर है.
रिपोर्टः एएफपी/आभा एम
संपादनः ओ सिंह