11 सितंबर से दूर रहा हॉलीवुड
३ सितम्बर २०११पूरी दुनिया में अमेरिकी पूंजी के प्रभाव का प्रतीक वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की आकाश छूती दो इमारतों से एक एक कर टकराते यात्रियों से भरे दो विशाल विमान, आग की लपटें, धुएं का गुबार और फिर बारी बारी से भरभरा कर गिरती, मलबे में तब्दील होती इमारत, चीखते चिल्लाते लोगों की बदहवासी...11 सितंबर को न्यूयॉर्क पर अल कायदा के हमलों से पहले ऐसी तस्वीरें लोगों ने हॉलीवुड की फिल्मों में ही देखी थी. आश्चर्य है कि दूसरे विश्व युद्ध और वियतनाम की जंग जैसी ऐतिहासिक घटनाओं ने हॉलीवुड के फिल्मकारों को जितना प्रेरित किया उतना इस घटना ने नहीं.
पूरा एक दशक बीतने को है और अब तक सिर्फ दो फिल्में ही इन हमलों पर बनी हैं. हॉलीवुड में काम करने वाले लोग मानते हैं कि 11 सितंबर पर आधारित फिल्में बॉक्स ऑफिस पर ज्यादा कामयाब नहीं हुईं. अमेरिका पर अब तक के सबसे भयावह हमले ने शुरुआत में तो ऐसी तस्वीर बनाई की लगा लोगों में इसे लेकर काफी ज्यादा दिलचस्पी है. दिलचस्पी थी भी पर फिल्में सिर्फ दो ही बनीं. इनमें एक है यूनीवर्सल की यूनाइटेड93 और दूसरी पारामाउंट की ओलिवर स्टोन्स के साथ मिल कर बनाई फिल्म वर्ल्ड ट्रेड सेंटर.
स्टीवन स्पीलबर्ग के साथ सेविंग प्राइवेट रेयान के लिए काम करने वाली प्रोड्यूसर बोनी कर्टिस कहती हैं, "निश्चित रूप से 11 सितंबर के हमलों और उसके बाद हुई जंग में लोगों की काफी ज्यादा दिलचस्पी थी. मेरे ख्याल से बहुत सारे लोगों ने इस पर काम करना शुरू किया क्योंकि यह एक ऐसी घटना है जो धरती पर कभी नहीं हुई."
बॉक्स ऑफिस पर नाकामी
हालांकि लोग यह भी मानते हैं कि ऐसी दुखद घटनाओं को लोग फिल्म के रूप में नहीं देखना चाहते. कर्टिस कहती हैं. "हम लोंगों के बीच इस पर बहुत चर्चा हुई है कि क्या इतनी जल्दी फिल्म बनाना ठीक होगा या फिर ये कि क्या लोग इस घटना पर बनी फिल्म देखने के लिए आएंगे." इन सवालों के जवाब इतने सीधे नहीं हैं. 2006 में पर्दे पर उतरी यूनाइटेड 93 और वर्ल्ड ट्रेड सेंटर बॉक्स ऑफिस पर उतनी कामयाब नहीं हुईं. पहली फिल्म ने करीब 7.4 करोड़ और दूसरी ने करीब 16.1 करोड़ डॉलर की कमाई की जो हॉलीवुड़ के लिहाज से अगर बहुत कम नहीं तो बहुत ज्यादा भी नहीं है. यूनिवर्सिटी ऑफ साउथ कैलिफोर्निया के स्कूल ऑफ सिनेमैटिक आर्ट्स में पढ़ाने वाले प्रोफेसर जेसन स्क्वायर कहते हैं, "यह इस बात का भी संकेत है कि लोग इस विषय के बारे में दिन के उजाले में सोचें. किसी भी विषय पर फिल्म बनाना बेहद मुश्किल होता है और ये मुश्किल और बढ़ जाती है जब मामला संवेदनशील हो." इस बारे मे कर्टिस कहती हैं, "लोग थिएटर में जा कर ये सब नहीं देखना चाहते और हॉलीवुड एक कारोबार है इसलिए शुरुआत में कुछ फिल्मों के बनने के बाद अब और कोई इस तरह के प्रोजेक्ट को मंजूरी नहीं दे रहा."
पलायनवादी मनोरंजन
डिज्नी के प्रोड़्यूसर डॉन हैन का मानना है कि लोग 'आघात पहुंचाने वाली' फिल्में नहीं देखना चाहते, "मुझे बहुत गहरा धक्का लगा था और मेरे ख्याल से हम सबकी हालत यही है. इसलिए हम इसे दोबारा नहीं देखना चाहते. इसकी बजाए उन फिल्मों को हम देखना चाहेंगे जो हमें इससे दूर ले जाएं और हम इस सबसे बच सकें." इसके बाद वो मुस्कुराते हुए बोले, "शायद यही वजह है कि हम सुपर हीरो वाली ज्यादा फिल्में देख रहे हैं जैसे कि कैप्टन अमेरिका या आयरन मैन. इन फिल्मों के हीरो बुरे लोगों को परास्त करते हैं और हमारे लिए यह महान कहानी बन जाती है."
स्क्वायर की माने तो इसमें कोई शक नहीं कि 11 सितंबर की घटना ने समाज के लिए मनोरंजन का महत्व एक पलायनवादी के रूप में साबित किया. वैसे कुछ लोग हैं जो इस राय से सहमत नहीं हैं. प्रोफेसर और पटकथा लेखक रिचर्ड वाल्टर कहते हैं, "हॉलीवुड की फिल्मों को पलायनवादी कहना ऐसा ही है जैसे बराक ओबामा को डेमोक्रैट कहना. इसमें कुछ नया नहीं है मुझे नहीं लगता कि कुछ बदला है. हॉलीवुड वही कर रहा है जो वो बहुत पहले से करता आया है." हालांकि कर्टिस जोर दे कर कहती हैं कि 11 सितंबर के बाद हल्के फुल्के सिनेमा की तरफ लोगों ज्यादा आकर्षित हुए हैं. कर्टिस के मुताबिक, "लोग पूरी तरह से कल्पनाओं, स्पेशल इफेक्ट्स, सुपरहीरो और पलायनवादी मनोरंजन की तरफ जाना चाहते हैं. मेरे ख्याल से हॉलीवड में भी इस तरह के फिल्मकारों की भी बाढ़ आ गई है जो सिनेमा को इसी दिशा की ओर ले जा रहे हैं."
इसके साथ ही कर्टिस ये भी कहती हैं, "इसके बिल्कुल उलट कुछ ऐसे फिल्मकार भी हैं जो इस दुखद घटना की गहराई में उतर कर ये दिखाना चाहते हैं कि इसका असर हमारे देश या हमारी धरती पर क्या हुआ है." 2010 में ऑस्कर जीतने वाली कैथरीन बिगेलो की फिल्म द हर्ट लॉकर इसका प्रमाण है. कर्टिस बिना किसी हिचकिचाहट के स्वीकार करती हैं, "मेरे लिए पिछले 10 सालों में अफगानिस्तान और इराक की जंग के आसपास बनने वाली फिल्मों का निश्चित रूप से इस बात से सरोकार है कि ग्यारह सितंबर के हमले का क्या असर हुआ. ग्यारह सितंबर के हमलों ने हमारे पेट में घूंसा मारा और निश्चितरूप से हमारा ध्यान उसके बाद हुई घटनाओं की ओर जाता है जिनसे हम आज तक जूझ रहे हैं."
रिपोर्टः एजेंसियां/एन रंजन
संपादनः ओ सिंह