2010: सेहत की चुनौतियां और खुशखबरियां
२३ दिसम्बर २०१०सुपरबगः इस साल चिकित्सा की दुनिया में सुपरबग की खूब चर्चा रही. यानी जीनों का एक ऐसा लूप है जो जीवाणु (बैक्टीरिया) को इतनी ताकत दे देता है कि फिर उस पर सभी ज्ञात एंटीबायोटिक दवाओं का असर होना बंद हो जाता है. जानकार मानते हैं कि यह आने वाले सालों में डॉक्टरों के लिए सिर दर्द साबित हो सकता है. इस तरह के एक सुपरबग जीन को नई दिल्ली मेटालोबेटा-लेक्टामेस-1 या एनडीएम-1 का नाम दिया गया है. 2008 में यह पहली बार सामने आया. एनडीएम-1 विविध तरह के उन जीवाणुओं में से एक है जिसमें एंटेरोबैक्टीरियासी फैमली, क्लैबसीएला और एशरशिया कोली शामिल हैं. इन सभी से कई तरह के संक्रमण हो सकते हैं.
ब्रिटिश शोधकर्ताओं ने अगस्त में बताया कि एनडीएम-1 बांग्लादेश, भारत, पाकिस्तान और इंग्लैंड के मरीजों में पाया गया. अमेरिका, इस्राएल, तुर्की, चीन, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, जापान, केन्या, सिंगापुर, ताइवान, उत्तरी यूरोप के देशों में भी इसके लक्षण दिखे.
वैसे एंटीबायोटिक को बेअसर करने वाले जीवाणु नई बात नहीं है. जब 1940 के दशक में पेन्सीलिन की शुरुआत हुई, तभी से जीवाणु ने इसके असर को खत्म करने की क्षमता भी विकसित करनी शुरू कर दी. इसीलिए डॉक्टरों को नई नई एंटीबायोटिक दवाएं तैयार करनी पड़ी है.
गर्भ में बीमारी का पता लगेगाः अब गर्भ में यह पता लगाया जा सकेगा कि कहीं जन्म के बाद बच्चे को कोई अनुवांशिक बीमारी होने का खतरा तो नहीं है. हाल ही में एक खास तकनीक तैयार की गई जिसके माध्यम से मानव भ्रूण का पूरा जीन मैप तैयार किया जा सकता है. मां के खून के नमूने के विश्लेषण से हांगकांग और ब्रिटेन के वैज्ञानिक उन सभी डीएनए तंतुओं की पहचान करने में कामयाब रहे जो बच्चे से संबंधित थे.
हांगकांग की चाइनीज यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और इस नई तकनीक से जुड़े डेनिस लो कहते हैं कि इस कामयाबी से पहले लोग एक समय में सिर्फ एक ही बीमारी को तलाश सकते थे लेकिन अब आप किसी खास आबादी में मौजूद पाई जाने वाली बीमारियों को एक साथ देख सकते हैं.
इस रिसर्च टीम की बड़ी कामयाबी यह पता लगाना है कि मां के प्लाज्मा में पूरे भ्रूण का जीनोम होता है. इससे पहले माना जाता था कि मां के खून में बच्चे के डीएनए के सिर्फ कुछ हिस्से ही होते हैं. यानी अब बच्चे के डीएनए में मौजूद किसी संभावित बीमारी का पूरी तरह पता लगाया जा सकता है. ब्रिटिश सोसायटी फॉर ह्यूमन जेनेटिक्स की अध्यक्ष क्रिस्टीन पैच का कहना है कि अभी इस तकनीक का व्यापक इस्तेमाल नहीं किया जा सकता क्योंकि इस तकनीक से जुड़े बहुत से नतीजों को अभी समझना बाकी है.
मलेरिया का टीकाः इस साल वॉशिंगटन में हुए एक सम्मेलन में दावा किया गया कि वैज्ञानिक दुनिया भर में लाखों लोगों की मौत की वजह बनने वाली बीमारी मलेरिया के लिए टीका तैयार करने के बेहद करीब हैं. यह टीका अपने परीक्षण के तीसरे चरण में पहुंच गया है जो व्यापक पैमाने पर मलेरिया से लड़ने की इसकी क्षमता और सुरक्षा को साबित करेगा. इस टीके के ट्रायल सात अफ्रीकी देशों बुरकानी फासो, गैबॉन, घाना, केन्या, मलावी, मोजाम्बिक और तन्जानिया में हो रहे हैं. 16 हजार बच्चों और शिशुओं पर इस टीके को आजमाया जा रहा है.
इस टीके के दूसरे दौरे के परीक्षण 2008 में जारी किए गए जिनके मुताबिक यह बच्चों में मलेरिया से निपटने में 53 फीसदी तक कारगर है. शिशुओं में इससे 65 प्रतिशत तक कामयाबी मिली. लेकिन इस दिशा में काम कर रहे लोगों का कहना है कि मंदी की मार की वजह से उनकी कोशिशों के रास्ते में बाधा खड़ी हो सकती हैं. लेकिन 23 साल से इस टीके को तैयार करने में जुटे जो कोहन और अन्य लोगों को विश्वास है कि तीन से पांच साल के भीतर यह टीका बाजार में आ सकता है.
एड्स की गोलीः वैज्ञानिकों ने लाइलाज बीमारी एड्स के खिलाफ जंग में बड़ी कामयाबी का दावा किया है. एक अध्ययन में पता चला है कि एचआईवी संक्रमण के इलाज के लिए जो गोली ली जाती है, वह स्वस्थ पुरुष समलैंगिक लोगों को इस वायरस से दूर रखने में मददगार साबित हो सकती है. ट्रुवाडु नाम की यह गोली अगर कंडोम और रोकथाम के अन्य उपायों के साथ इस्तेमाल की जाए, तो इससे संक्रमण का खतरा 44 प्रतिशत तक कम हो जाता है. जो पुरुष नियमति तौर पर यह गोली लेते हैं, वे ज्यादा सुरक्षित पाए गए हैं.
इस अध्य्यन में ढाई हजार समलैंगिकों और स्त्री व पुरुष, दोनों की तरफ से आकर्षित होने वाले लोगों को शामिल किया गया. बीमारियों की रोकथाम के लिए अमेरिकी संस्था (सीडीसी) ने लोगों से कहा कि इस गोली को इस्तेमाल करने के बारे में वे दिशानिर्देशों का इंतजार करें. सीडीसी का कहना है कि कंडोम और सुरक्षित शारीरिक संबंध तो एड्स से बचाव सबसे अच्छे तरीके हैं ही.
टेस्ट ट्यूब बेबीः इस बार चिकित्सा क्षेत्र का नोबेल पुरस्कार टेस्ट ट्यूब बेबी तकनीक के जनक रॉबर्ट एडवर्ड्स को दिया गया. तीन दशक से भी ज्यादा हो गए जब पहली टेस्ट ट्यूब बच्ची का जन्म हुआ. तब से अब तक इस तकनीक के सहारे बांझपन के शिकार हजारों लोगों की सूनी गोद भर चुकी है.
एडवर्ड्स ने पैट्रिक स्टेप्टो को साथ मिल कर इस तकनीक का आविष्कार किया. स्टेप्टो का 1988 में 74 साल की उम्र में निधन हो गया. इन दोनों वैज्ञानिकों ने चर्च और मीडिया के तीखे विरोध के बावजूद अपनी खोज को आगे बढ़ाया. यही नहीं, वैज्ञानिकों के बीच भी इसे लेकर मतभेद थे.
1968 में महिला रोग विशेषज्ञ एडवर्ड्स और स्टेप्टो ने शरीर से बाहर अंडों को फर्टिलाइज करने का तरीका विकसित किया. कैब्रिज यूनिवर्सिटी में काम करते हुए उन्होंने बांझ माओं में भ्रूण को बदलना शुरू कर दिया. लेकिन कुछ गर्भ तभी गिर भी गए. बाद में पता चला कि उनमें हार्मोंस को सही तरीके से नहीं संभाला गया. 1977 में उन्होंने एक नए तरीके से कोशिश की जिसमें हार्मोंस की बजाय सही वक्त पर भरोसा किया गया. 25 जुलाई 1978 को लूईज़े ब्राउन इस तकनीक से पैदा होने वाली पहली बच्ची थी.
हैजे का कहरः कैरेबियाई देश हैती में इस साल हैजे ने अब तक ढाई हजार से ज्यादा लोगों की जान ले ली है. हैती के लिए नवंबर का महीना सबसे घातक रहा जब हर दिन 60 से 80 लोग इस बीमारी से मारे गए. साल की शुरुआत में भूकंप की मार झेलने वाला हैती साल खत्म होते होते हैजे की चपेट में है. लगभग पचास साल बाद हैती में हैजे का कहर बरपा है.
लोगों को शक है कि हैती में संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना में मौजूद नेपाल के सैनिकों की वजह से हैजा फैला है. इस मुद्दे पर वहां दंगे भी हुए. लेकिन नेपाल की सेना इन आरोपों से इनकार करती है. अब संयुक्त राष्ट्र ने एक जांच दल का गठन किया है जो तय करेगा कि हैती में हैजा कहां से फैला.
रिपोर्टः ए कुमार
संपादनः ए जमाल