3000 साल पुराने रिश्तेदार मिले
२७ अगस्त २००८ग्रामवासियों के पूर्वज गुफा-निवासी थे
जर्मनी में ग्यौटिंगन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने जीन तकनीक के आधार पर पहली बार सिद्ध किया है कि यहाँ के हार्त्स पर्वतों में बसे एक गाँव के कुछ निवासी तीन हज़ार वर्ष पूर्व पास की ही गुफाओं में रहने वाले एक गुफावासी की सीधी संताने हैं. 1980 में ओस्टेरोडे नामक शहर के पास हार्त्स पर्वतों की एक गुफा में कोई तीन हज़ार वर्ष पुराने 40 अस्थिपंजर मिले थे. वैज्ञानिकों ने पास ही के ग्रमवासियों के साथ डीएनए-तुलना में पाया कि एक अस्थिपंजर के डीएनए 58 वर्षीय शिक्षक मानफ़्रेड हुख़्तहाउज़न और उसके 48 वर्षीय परिचित ऊवे लांगे के डीएनए के साथ पूरी तरह मेल खाते हैं. यानी, दोनो एक ही आदिपूर्वज देन हैं, एक सौ बीसवीं पीढ़ी में एक-दूसरे के वंशानुगत रिश्तेदार हैं. दोनो ने कहा कि वे बचपन में इन गुफाओं में खेला करते थे. यदि उन्हें पता होता कि वे हज़ारों वर्ष पूर्व के उनके पूर्वजों की गुफाएँ हैं, तो वहाँ पैर तक नहीं रखते. ग्यौटिंगन विश्वविद्यालय के शोधियों ने पाया कि गुफाओं में मिले कुछ अस्थिपंजरों पर वहाँ सदियों से टपक रहे पानी के कारण चूने की परत चढ़ गयी थी. इस चूने ने हड्डियों की आणविक बनावट को इतने आदर्श ढंग से बचाये रखा कि एक पुरुष कंकाल के जबड़े की कोषिकाओं से ऐसे डीएनए प्राप्त किये जा सके, जो इतनी अच्छी हालत में थे, मानो केवल तीन दिन पुराने रक्त से प्राप्त किये गये हैं. इस डीएनए की तुलना 300 ग्रामवासियों से प्राप्त डीएनए नमूनों से की गयी और तब पता चला कि कम-से-कम दो ग्रामवासी तीन हज़ार वर्ष पुराने इस पुरुष-कंकाल के सीधे रिश्तेदार हैं.
ताड़ी रसिक गिलहरी
मलेशिया के वर्षावनों में गिलहरी की एक ऐसी प्रजाति रहती है, जो ताड़ के वृक्षों पर चढ़ कर नियमित रूप से ताड़ी पीती है, पर कभी नशे से धुत नहीं होती. इस गिलहरी में मद्यपान की आदत की खोज करने वाले जर्मन जीववैज्ञानिक फ्रांक वीन्स का कहना है कि वह हर रात औसतन दो घंटे ताड़ी पीती है, पर उसे नशा नहीं होता. क्योंकि मनुष्यों की तरह वह भी एक स्तनपायी प्राणी है, इसलिए उसकी चयापचय क्रिया से पता चल सकता है कि शराब पीने वाले मनुष्यों की आदत छुड़ाये बिना उन्हें नशे से कैसे बचाया जा सकता है. यह गिलहरी पेड़ों पर नहीं, बल्कि ज़मीन पर रहती है और देखने में सामान्य गिलहरी की अपेक्षा किसी चूहे से अधिक मिलती-जुलती लगती है. मलेशिया में उसे तुपैया कहते हैं. वैज्ञानिक शब्दावली में वह अनाथना वर्ग की एक गिलहरी है.
पहली बार लाल रक्तकणों का निर्माण
अमेरिका के शोधकों ने पहली बार प्रयोगशाला में मानव के परिपक्व लाल रक्तकणों का निर्माण किया है. उन्हें मानवीय भ्रूण से लिये गये स्टेम सेलों से प्राप्त किया गया. समझा जाता है कि ऐसे लाल रक्तकण रक्तदान से ख़ून जुटाने की आवश्यकता मिटा तो नहीं, पर घटा अवश्य सकते हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि जिस तरह शरीर के अपने रक्त के लाल कण परिपक्व होने पर अपने केंद्रक को त्याग देते हैं, उसी प्रकार इस प्रयोग में स्टेम सेल से बनी लाल रक्त कोषिकाओं ने भी परिपक्व होते ही अपने केंद्रक त्याग दिये. वैज्ञानिक इससे पहले भी प्रयोगशाला में लाल रक्त कोषिकाएँ बना चुके हैं, लेकिन वे केंद्रक को त्याग कर परिपक्व नहीं हो पायीं. अमेरिकी शोधकों का कहना है कि वे अपने प्रयोग में 100 अरब लाल रक्तकण बनाने में सफल रहे. इस सफलता से यह आशा बलवती हुई है कि एक दिन बहुत दुर्लभ "ग्रुप ओ" वाला वह रक्त बड़ी मात्रा में पैदा करना संभव हो जायेगा, जो हर व्यक्ति को चढ़ाया जा सकता है. जनता के बीच रक्त ग्रुप "ओ" वाले लोगों का अनुपात यूरोप में 8 प्रतिशत और एशियइयों के बीच केवल 0.3 प्रतिशत है.
उच्चरक्तचाप-रोधक टीका
जर्मनी में पहली बार उच्चरक्तचाप रोकने के एक टीके का क्नीकल परीक्षण हो रहा है. हनोवर मेडिकल कॉलेज में कुछ चुने हुए रोगियों को ऐसे पाँच इंजेक्शन दिये गये, जिनसे आशा की जाती है कि वे उन्हें जीवन पर्यंत उच्चरक्तचाप से मुक्त रखेंगे. इससे पहले के परीक्षणों में रोगियों को दिये गये इंजेक्शन वाले सीरम की मात्रा कम थी, इसलिए उसका असर चार महीने बाद घटने लगा. परीक्षणाधीन टीका एक ऐसे वायरस का बना है, जिसके भीतर रक्तवाहिकाओं को संकुचित करने वाला शरीर का अपना ही होर्मोन भरा होता है. शरीर की रोगप्रतिरक्षक कोषिकाएँ इस सीरम का सामना होते ही ऐसे एंटीबॉडी पैदा करती हैं, जो रक्तचाप बढ़ाने वाले हॉर्मोन को रक्त से छांट कर अलग कर देते हैं. इसके बाद रक्तवाहिकाएँ फैलने लगती हैं और रक्तचाप नीचे आ जाता है. यदि इस टीके के साथ परीक्षण सफल रहा, तो चक्तचाप घटाने की गोलियों और उनके अवांछित अनुषंगी प्रभावों से मुक्ति मिल सकती है.
सौर-उद्गारों की अकूत ऊर्जा
सौरमंडल के अध्ययन के लिए जर्मनी में काटलेनबेर्ग-लिंडाऊ के माक्स प्लांक संस्थान के वैज्ञानिकों का कहना है कि सौर आँधी पैदा करने वाला एक अकेला सौर-उद्गार ही केवल आधे घंटे में जो प्रचंड ऊर्जा अंतरिक्ष में उगलता है, वह पृथ्वी पर पूरे साल में खपने वाली सारी ऊर्जा से भी लाख गुना अधिक होती है. उनका कहना है कि एक नयी विधि की सहायता से सौर-उद्गारों के कारणों को समझने में पहली बार सफलता मिली है. वे कोरोना कहलाने वाले सूर्य के सबसे बाहरी प्रभामंडल की परतों के चुंबकीय क्षेत्र में अलग-अलग समयों और अलग-अलग स्थानों पर होने वाले अंतरों के कारण पैदा होते हैं. इन उद्गारों से पैदा होने वाली सौर आँधी परमाणु-कणों वाले अपने विकिरण के साथ अंतरिक्ष में दूर-दूर तक जाती है. वह पृथ्वी पर बिजली की आपूर्ति में बाधा डाल सकती है या उसकी परिक्रमा कर रहे उपग्रहों में गड़बड़ी पैदा कर सकती है. जर्मन वैज्ञानिकों ने पाया कि सौर-कोरोना वाले चुंबकीय क्षेत्र में यह ऊर्जा प्रचंड विद्युत धाराओं के रूप में कई दिनों में संचित होती है और उद्गार के साथ गतिज ऊर्जा के रूप में अंतरिक्ष में फूट पड़ती है. उनकी नयी गणना विधि द्वारा इन उद्गारों की भविष्यवाणी करना संभव है.
भूगर्भ में बैक्टीरिया
जर्मनी में कोलोन विश्वविद्यालय के शोधकों ने ज़मीन के नीचे दो हज़ार मीटर की गहराई पर भी बैक्टीरिया होने के प्रमाण पाये हैं. उनका कहना है कि भूगर्भ में इतनी बड़ी गहराई पर इससे पहले बैक्टीरिया होने का पता नहीं लगाया गया था. ऑस्ट्रेलिया में पर्थ के भूगर्भ शास्त्रियों के सहयोग से उन्होंने दो हज़ार मीटर गहरे खनिज तेल के भंडारों में फ़ास्फ़ोलिपिड-फैटीऐसिड नामका एक ऐसा पदार्थ पाया, जो तेल पर जीने वाले बैक्टीरियों से बनता है. इन वैज्ञानिकों का समझना है कि इस तरह के बैक्टीरिया पृथ्वी की जलवायु को भी काफ़ी हद तक प्रभावित करते हैं.