पेरिस की विश्वप्रसिद्ध सॉरबॉन यूनिवर्सिटी में एलिजे संधि की 60वीं वर्षगांठ मनाई गई. वह संधि, जिसने फ्रांस और जर्मनी की सदियों पुरानी दुश्मनी पर मरहम लगाना शुरू किया. नतीजा ये है कि आज 60 साल बाद दोनों देशों की दोस्ती को शांति और यूरोप के विकास की धुरी माना जाता है. लेकिन दोस्ती की ये प्रक्रिया आसान नहीं रही है. दुश्मनी के घाव काफी गहरे थे.
आज जैसे भारत और पाकिस्तान की धुर दुश्मनी की बात होती है, वैसे ही कभी जर्मनी और फ्रांस की भी होती थी. दुश्मनी तब धुर दुश्मनी में बदल जाती है जब कई पीढ़ियां उस दुश्मनी को जारी रखती हैं. 19वीं सदी में यूरोप में राष्ट्रवाद उफान पर था, जिसमें सत्ता संघर्ष और राज्यों के बीच प्रतिस्पर्धा को आम जनता के बीच दुश्मनी का नाम दिया जाता था. सरकारें एक दूसरे का विरोध करने में लगी हों तो आम लोगों के लिए दोस्त बने रखना मुश्किल हो जाता है. यह हम आज भारत और पाकिस्तान के मामले में भी देख रहे हैं.
दुश्मन कैसे बने दोस्त
जर्मनी और फ्रांस का झगड़ा 17वीं सदी में लुडविष 16वें के रियूनियन युद्ध और जर्मनी के पलैटिनेट में उत्तराधिकार के झगड़े में हस्तक्षेप से लेकर 1870-71 में जर्मन एकीकरण से पहले के युद्ध और उसके बाद पहले और दूसरे विश्व युद्ध तक चला. पहले जर्मन एकीकरण से पहले जर्मनी के रजवाड़े रोमन साम्राज्य का हिस्सा हुआ करते थे जो एकल रजवाड़ों की संप्रभुता को मान्यता देता था. इसलिए जर्मनी की कोई साझा विदेश नीति नहीं हुआ करती थी. लेकिन रजवाड़ों के मामलों में हस्तक्षेप के कारण लड़ाइयां होती रहीं. नेपोलियन ने जर्मनी को जीता तो जर्मन राष्ट्रवादियों ने नेपोलियन के खिलाफ आजादी का संघर्ष किया.
दोनों देश सदियों तक एक दूसरे को रौंदते और अपमानित करते रहे. उन्होंने एक दूसरे को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं गंवाया. पहले विश्व युद्ध में जर्मनी की हार के बाद अपमानजनक वर्साय संधि और दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान फ्रांस पर नाजी जर्मनी के कब्जा और विरोधियों के बेदर्दी से दमन ने इस अविश्वास को और हवा दी. दोनों ही ओर अविश्वास का घना बादल था, जिसका छंटना इतना आसान नहीं दिखता था.
ऐसे रखी दोस्ती की नींव
वर्षगांठ समारोह के मौके पर फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों ने जर्मनी और फ्रांस को एक छाती में दो आत्माओं की संज्ञा दी तो जर्मनी के चांसलर ओलाफ शॉल्त्स ने दोस्ती के लिए फ्रांसीसी लोगों का आभार व्यक्त किया. 1950 के दशक में यूरोपीय समुदाय के गठन के साथ चिर परिचित दुश्मनी का अंत शुरू हुआ और 1963 में एलिजे संधि के साथ दोनों देशों के बीच दोस्ती की शुरुआत हुई. इसके पीछे फ्रांस और जर्मनी के तत्कालीन नेताओं की अपनी अपनी सोच थी. फ्रांस के राष्ट्रपति चार्ल द गॉल जर्मनी को फ्रांस के साथ इसलिए जोड़ना चाहते थे कि वह ब्रिटेन और अमेरिका के साथ उनके देश के खिलाफ मोर्चा न बनाए. दूसरी ओर जर्मनी के चांसलर कोनराड आडेनावर फ्रांस के करीब जाकर यूरोप में जर्मनी के खिलाफ व्याप्त संदेह को दूर करना चाहते थे.
फ्रांस और जर्मनी की दोस्ती को पुख्ता बनाने वाली एलिजे संधि में ये तय किया गया कि दोनों देशों के नेता आपसी मेलमिलाप बढ़ाएंगे, सरकार प्रमुख साल में कम से कम दो बार, विदेश और रक्षा मंत्री हर तीन महीने पर और सेना प्रमुख हर दो महीने पर मिलेंगे. विदेश नीति का लक्ष्य जितना संभव हो, साझा रुख की ओर पहुंचना था. इसके अलावा सांस्कृतिक आदान-प्रदान बढ़ाने के लिए एक दूसरे की भाषा सीखने को प्रोत्साहन देने, शोध में सहयोग बढ़ाने और युवा लोगों के आदान-प्रदान का फैसला लिया गया. ये संधि का सबसे सफल नतीजा माना जाता है. अब तक दोनों देशों के करीब एक करोड़ युवा इस आदान-प्रदान में हिस्सा ले चुके हैं और अपनी स्कूल या कॉलेज का कुछ समय एक दूसरे के देश में गुजार चुके हैं.
दोस्ती की अड़चनें
उस जमाने में सब इस संधि से खुश भी नहीं थे. अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी को दोनों देशों के करीब आने से चिंता हो रही थी क्योंकि फ्रांस नाटो को पूरी तरह अस्वीकार कर रहा था. उन्होंने इस संमधि को रोकने की भी कोशिश की थी. लेकिन जर्मनी ने अमेरिका के साथ निकटता का इजहार कर इस संधि को बचा लिया.
बीस साल पहले संधि की 40वीं वर्षगांठ पर दोनों देशों ने मंत्रिमंडलों की साझा बैठक करने का फैसला लिया, जो आज भी जारी है. ये फॉरमेट इतना लोकप्रिय हो चुका है कि इस बीच जर्मनी भारत के साथ भी मंत्रिमंडल स्तरीय शिखर भेंट करता है. जर्मनी और फ्रांस की संधि की पराकाष्ठा 50वीं वर्षगांठ पर दोनों देशों की संसदों की संयुक्त बैठक थी.
हिम्मत दिखानी होगी
इस सबके बावजूद ऐसा नहीं है कि दोनों देशों के बीच मतभेद नहीं हैं. मतभेद उभरते रहते हैं और पिछले सालों में बनी संस्थाओं के जरिए उन्हें सुलझाने का प्रयास भी जारी रहता है. अभी भी चाहे यूक्रेन को हथियार देने की बात हो या अर्थव्यवस्था में ग्रीन बदलाव की, दोनों देश पूरी तरह सहमत नहीं दिखते. साझा नीति तय करने में समय जरूर लगता है, लेकिन आखिरकार वे साझा नतीजों पर पहुंचते हैं.
भारत और पाकिस्तान भी जर्मनी और फ्रांस की मिसाल लेकर शांति की ओर बढ़ सकते हैं. लेकिन इसके लिए उन्हें साझा मूल्यों पर बात करनी होगी. शांति और विकास के लक्ष्य के साथ समानता और लोकतंत्र, वे मूल्य हैं जो दोनों देशों को करीब ला सकते हैं. और उन मूल्यों के आधार पर कुछ संस्थाएं बनानी होंगी, पारस्परिक सहयोग को प्रोत्साहन देने वाली संस्थाएं, युवाओं को करीब लाने वाली संस्थाएं, जो भविष्य में दोस्ती को पुख्ता करेंगी और बनाए रख सकेंगी. और ऐसा तभी हो पाएगा जब दोनों ही देशों के नेता हिम्मत दिखाएंगे और साहसिक फैसले लें.