'अग्निपथ' योजना: नेपाल के गोरखा सैनिकों की भर्ती पर संशय
२६ अगस्त २०२२'अग्निपथ' के तहत भारतीय सेना में नेपाल से सैनिकों की भर्ती अनिश्चितताओं से घिर गई है. नेपाल ने आधिकारिक तौर पर तो इस पर अभी कोई बयान नहीं दिया है, लेकिन कई मीडिया रिपोर्टों में दावा किया जा रहा है कि नेपाल योजना से खुश नहीं है.
इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने दावा किया है कि नेपाल के विदेश मंत्री नारायण खड़का ने नेपाल में भारत के राजदूत नवीन श्रीवास्तव से कहा है कि 'अग्निपथ' के तहत गोरखा सैनिकों की भर्ती उस संधि के अनुकूल नहीं है जिस पर 1947 में भारत, नेपाल और ब्रिटेन ने हस्ताक्षर किए थे.
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अखबार के मुताबिक खड़का ने श्रीवास्तव से यह भी कहा कि नेपाल सरकार देश की सभी पार्टियों और अन्य हितग्राहियों से चर्चा के बाद ही इस पर कोई फैसला ले पाएगी. बताया जा रहा है कि नेपाल में भारतीय सेना की इस साल की भर्ती प्रक्रिया इसी हफ्ते शुरू हो जानी थी लेकिन इस विवाद की वजह से अभी तक शुरू नहीं हुई है.
क्या है त्रिपक्षीय संधि
नेपाली मीडिया में छपी रिपोर्टों में तो यहां तक दावा किया जा रहा है कि नेपाल सरकार ने इस प्रक्रिया को स्थगित ही कर दिया है और भारत से कहा है कि वह इस सवाल पर स्पष्टीकरण दे कि नेपाली गुरखा सैनिकों की भी भर्ती 'अग्निपथ' के तहत ही होगी.
भारत की आजादी से पहले गोरखा भारत में अंग्रेजों की सेना में काम करते थे. आजादी के बात इन गोरखाओं को आजाद भारत की सेना और ब्रिटेन की सेना में बांटने के लिए भारत, नेपाल और ब्रिटेन ने 1947 में एक संधि पर हस्ताक्षर किए थे. इस संधि के तहत भारत और ब्रिटेन की सेना में नेपाल के गोरखा सैनिकों की भर्ती का प्रावधान बनाया गया था.
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इसके तहत भारतीय और ब्रिटिश सेना में गोरखा सैनिकों की भर्ती नेपाली नागरिकों के रूप में ही होती है. एक रिपोर्ट के मुताबिक इस समय भारतीय सेना में करीब 35,000 गोरखा सैनिक हैं.
पांचवीं गोरखा राइफल्स इन्फेंट्री रेजिमेंट को अपनी सेवाएं दे चुके भारतीय सेना के सेवानिवृत्त मेजर जनरल अशोक मेहता ने ट्रिब्यून अखबार में एक लेख में लिखा है कि सक्रिय गोरखा सैनिकों के अलावा नेपाल में भारतीय सेना से सेवानिवृत्त 1.35 पूर्व सैनिक भी हैं, जिन्हें भारतीय सेना से पेंशन मिलती है.
मेहता लिखते हैं कि इन सब के वेतन और पेंशन मिला कर भारतीय सेना से हर साल करीब 5,000 करोड़ रुपए जाते हैं, जो नेपाल की जीडीपी का तीन प्रतिशत है. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि नेपाल के लिए यह कितना संवेदनशील विषय है.
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हालांकि नेपाल में कुछ सालों से कुछ राजनीतिक दलों ने यह भी कहना शुरू किया है कि यह प्रथा अब अनावश्यक हो गई है और आज के समय में एक स्वतंत्र देश के नागरिकों का दूसरे स्वतंत्र देश की सेना के लिए काम करना ठीक नहीं है.