थकान से पस्त कोविड वैज्ञानिक
११ जून २०२१एक साल से ज्यादा हो गया, वैज्ञानिक और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को जल्दी से जल्दी नतीजे भी देने हैं और इस चक्कर में उनके लिए काम और आराम के बीच की रेखाएं धुंधली पड़ चुकी हैं. साउथ कैरोलिना मेडिकल यूनिवर्सिटी में संक्रामक रोग विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर क्रुतिका कुप्पाली कहती हैं, "मैं खुद को बहुत थका हुआ महसूस करती हूं. लगता है अपनी जिंदगी की सबसे लंबी मैराथन दौड़ रही हूं, और किसी भी हाल में रुकना नहीं है. जब भी ऐसा लगता है कि अब थोड़ा राहत मिलेगी तभी कोई चीज़ हमें वापस पीछे धकेल देती है.”
पेशे से जुड़ी परिघटना है बर्नआउट
महामारी जब फैलने भी नहीं लगी थी तभी 2019 में, विश्व स्वास्थ्य संगठन, डब्लूएचओ ने हेल्थकेयर की बढ़ती जरूरतों और मांग को देखते हुए स्वास्थ्य सेवाओं में कार्यरत लोगों में बर्नआउट को लेकर चिंता जता दी थी. उसके मुताबिक बर्नआउट यानी थकान से पस्त हो जाना कोई बीमारी नहीं बल्कि "पेशागत परिघटना” है.
2019 में डब्लूएचओ ने उस समस्या पर अपना नजरिया बताया था जिसकी बदौलत जर्मनी से लेकर भारत तक स्वास्थ्य कर्मियों, और दूसरे कामगारों पर बहुत भारी गुजर रही है. उसने बर्नआउट को एक सिंड्रोम की तरह फिर से परिभाषित करते हुए बताया कि वह "सफलतापूर्वक न निपटाए जाने वाले, दीर्घकालीन कार्यस्थल दबाव से पैदा होता है.” इसमें थकावट के साथ साथ अपने काम से मानसिक दूरी का अहसास होता है, काम के प्रति नकारात्मक या उटपटांग भावनाएं आती हैं और पेशेवर कार्यक्षमता में गिरावट आ जाती है.
ब्रिटिश एनालिटिकल साइंटिस्ट और मेंटल हेल्थ की पैरोकार जोइ आइरस का कहना है कि डराने-धमकाने और ओवरटाइम ड्यूटी करने से लेकर दबाव और प्रतिस्पर्धा तक, अकादमिक जगत में शोधकर्ताओं पर असर डालने वाले ऐसे बहुत से व्यवस्थागत मुद्दे हैं जो बर्नआउट का कारण बनते हैं. वो कहती हैं कि लोग इन मुद्दों पर बात भी नहीं करते हैं, ये भी एक कारण है.
दबाव, चिंता और बेचैनी से घिरे अकादमिक
महामारी के दौरान, वैज्ञानिक पहले से कहीं ज्यादा दबाव महसूस कर रहे हैं. विश्वविद्यालयों की 1100 से अधिक फैकल्टी पर हुए एक अमेरिकी सर्वे के मुताबिक 2020 में 69 प्रतिशत शिक्षकों ने काम का दबाव महसूस किया जबकि 2019 में सिर्फ 32 प्रतिशत शिक्षक दबाव महसूस कर रहे थे. 2020 में 35 प्रतिशत शिक्षक ऐसे थे जिन्हें गुस्सा आता था जबकि 2019 में सिर्फ 12 प्रतिशत थे. इसी तरह 2020 में 68 प्रतिशत अध्यापकों ने सुस्ती और थकान महसूस की. 2019 में ऐसा महसूस करने वाले सिर्फ 32 प्रतिशत अध्यापक थे.
आधा से ज्यादा फैकल्टी ने करियर बदलने, उच्च शिक्षा की नौकरी छोड़ देने या जल्द रिटायर हो जाने पर गंभीरता से विचार किया था. वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया यूनिवर्सिटी में एपिडेमियोलोजिस्ट जोइ हाइड के मुताबिक, "ऐसे पल भी आते हैं जब महामारी से इतर वाकई, वाकई ऐसा महसूस होता है कि रिसर्च का काम छोड़कर निकल जाऊं, लेकिन हर कोई ऐसा सोचे, तब ना?"
कनाडा में गुएल्फ यूनिवर्सिटी में एपिडेमियोलॉजी की एसोसिएट प्रोफेसर ऐमी ग्रीयर ने तो घर और दफ्तर का संतुलन साधा हुआ है- अपनी रिसर्च टीम का काम ऑनलाइन देखने के अलावा वो अपने युवा परिवार को भी संभालती हैं. ग्रीयर कहती हैं, "आप दिन भर कई किस्म के मिलेजुले काम करते रहते हैं और फिर रात में बच्चों को सुलाते हैं और फिर और ज्यादा काम करने लगते हैं क्योंकि जिस रफ्तार से साइंस बढ़ रही हैं उसमें आपको भी भरसक आगे बने रहने की जरूरत होती है."
'हम एक दूसरे पर बहुत ज्यादा निर्भर हैं'
संस्थागत सहायता भले न मिल पा रही हो लेकिन कुछ वैज्ञानिक आपस में एकदूसरे की मदद करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं.
बॉस्टन बाल अस्पताल और हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में कम्प्यूटेश्नल हेल्थ इन्फॉर्मेटिक्स प्रोग्राम में जूनियर फैकल्टी माइमुन मजूमदार कहती हैं, "मुझे नहीं लगता कि महामारी से जुड़े शोधकार्य में एक भी ऐसे व्यक्ति को मैं जानती हूंगी जो काम के बोझ से दबा न हो. और इस बारे में एकजुटता दिखाने की खातिर कुछ तो कहना ही होगा. हम एक दूसरे पर बहुत ज्यादा निर्भर हैं और इससे मदद मिलती है, खासकर जब लगातार ये महसूस होता रहता है कि जितना हम लोग स्वस्थ रहते हुए कर सकते हैं, हमेशा उससे भी कहीं ज्यादा करने को रहता है."
कोविड पर काम कर रहे वैज्ञानिकों की ऑनलाइन जमात के जरिए हाइड ने अपने लिए मदद हासिल की है. ये वो स्पेस है जहां वैज्ञानिक एक दूसरे से बात कर सकते हैं और अपनी भावनाएं जाहिर कर सकते हैं या भड़ास निकाल सकते हैं. हाइड कहती हैं, "मुझे लगता है कि हम सबके लिए ये वाकई काफी मददगार है."
अपनों का गम और काम का बोझ
वैज्ञानिक एक ओर जिंदगियां बचाने के लिए ओवरटाइम कर रहे हैं तो दूसरी ओर उनमें से कुछ ऐसे हैं जो अपने प्रियजनों की मौत के गम से उबरने की कोशिश कर रहे हैं.
मजूमदार कहती हैं, "बहुत सारे लोग महामारी की वजह से निरंतर शोक में डूबे हुए हैं, जिस बिरादरी के बीच मैं रहती हूं- हेल्थ केयर वर्कर हों या काले, मूलनिवासी और भूरे लोग (बाइपोक), पहली पीढ़ी के अमेरिकी आदि आदि”- वे सब खासतौर पर बीमारी और मौत के इस अंतहीन बहाव की चपेट में आ रहे हैं.”
अमेरिका जब महामारी पर काबू पाता दिख रहा है वहीं भारत कोरोना वायरस के नये वेरियंट की जानलेवा दूसरी लहर से जूझ रहा है.
साउथ केरोलिना मेडिकल यूनिवर्सिटी की क्रुतिका कुप्पाली का परिवार भारत में है और घर के लोग कोरोना से संक्रमित हैं. अमेरिका में अपनी नौकरी और दूसरी प्रतिबद्धताओं को बनाए रखकर वो भारत में अपने परिवार और दोस्तों की मदद की कोशिश भी कर रही हैं. अमेरिका और भारत के समय में अंतर से मुश्किलें भी आती हैं. कुप्पाली कहती हैं, "ये भावनात्मक रूप से बुरी तरह थका देने और निचोड़ देने वाले हालात हैं.”
कुछ अंदरूनी चुनौतियां भी हैं
स्पेन में कार्यरत मनोविज्ञानी और मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ डेसीरी डिकरसन कहते हैं, "शैक्षणिक जगत में यही माना जाता है कि अध्ययन और शोध ही उनकी दुनिया है. उनकी पहचान उनके अपने काम में ही गुंथी हुई है.
मारिया सुंदरम की स्थिति कुछ ऐसी ही है. वह कनाडा के ओंतारियो में आईसीईएस में पोस्टडॉक्टोरल फेलो और संक्रामक रोग विशेषज्ञ हैं. वह कहती हैं, "मैं निजी रूप से वाकई एपिडेमियोलॉजिस्ट के काम से खुद की पहचान करती हूं.”
अपने करियर की शुरुआत कर रही मारिया सुंदरम कहती हैं कि वह 20 साल के अपने काम को पीछे मुड़कर देखना चाहती हैं. और ये महसूस करना चाहती हैं कि उनसे जितना बन पड़ा उन्होंने किया. "कभी कभी लगता है कि बहुत कर लिया कभी लगता है कि बहुत कुछ बाकी है.”
डिकरसन कहते हैं कि "सूक्ष्म बदलाव” किसी का दिन बदल सकते हैं. ये इतनी ही सहज और सामान्य सी बात है जैसे बेडरूम में स्मार्टफोन लेकर न आना.
मजूमदार के लिए ये एक तस्वीर को पेंट करने या कागज पर संगीत की रचना करने की तरह है. वह कहती हैं, "मैं मानती हूं कि ऐसी कोई भी चीज कर पाना मेरे लिए बहुत कठिन है क्योंकि मुझे फिर अपराधबोध होता रहेगा.”
अकदामिक जगत की व्यवस्थागत खामियां
छोटे कॉन्ट्रेक्ट, शोध-पत्र लिखने का दबाव और फंडिंग के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा- ये सब चीजें अकादमिक जगत में काम के दबाव को बढ़ाती है.
2019 में वैज्ञानिक जर्नल नेचर में प्रकाशित 6300 पीएचडी छात्रों पर हुए एक सर्वे में पाया गया कि 36 प्रतिशत छात्रों ने अपनी पढ़ाई की वजह से होने वाली चिंता या अवसाद से छुटकारा पाने के लिए मदद मांगी थी.
मेंटल हेल्थ की पैरोकार जोइ आइरस का कहना है कि सबसे बड़ा सुधार ये होगा कि संस्थान अपने लोगों की मानसिक सेहत की हिफाजत करने के लिए ज्यादा बड़ी भूमिका निभाने के लिए आगे आएं.
आइरस के मुताबिक, "उन्हें संस्थागत स्तर पर ये स्वीकार करना चाहिए कि मानसिक सेहत की देखभाल का जिम्मा किसी अकेले शख्स पर नहीं है बल्कि ये संस्थान की जिम्मेदारी भी है कि वो काम का एक स्वागतपूर्ण, खुशगवार, सुरक्षित पर्यावरण सुनिश्चित करे जहां हर कोई सक्रिय रह सके.”
डिकरसन का कहना है कि शैक्षणिक जगत दूसरे करियर रास्तों के बारे में हो सकता है न जानता हो या ये सोचता हो कि करियर बदलने का मतलब नाकामी है. इसका गलत असर उन लोगों पर पड़ेगा जो प्रतियोगी बने रहने के लिए अपने जीवन के दूसरे पहलुओं को नजरअंदाज कर या उनका बलिदान कर अकादमिक दुनिया में ही बने रहने को चिंतित हैं. डिकरसन कहते हैं, "इसका मतलब ये भी है कि उनका शोषण करना बहुत आसान है. अगर आप किसी भी कीमत पर अपने काम से हाथ नहीं धोना चाहते हैं तो आप ज्यादा घंटे काम करेंगे, आप ज्यादा त्याग करने लगेंगे. या कभी उनकी जगह कोई और आ जाएगा जिसे और ज्यादा चाहिए.”
मानसिक स्वास्थ्य की सुध कौन लेगा?
अकादमिक जगत में मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने की वकालत करने वाले गैर लाभकारी संगठन, ड्रैगनफ्लाई मेंटल हेल्थ ने पाया है कि शैक्षणिक समुदाय में मेंटल हेल्थ वर्कशॉप कराने की मांग में तेजी आई है.
2020 में इस एनजीओ ने 25 वर्कशॉप की थीं. और ये साल अभी आधा भी खत्म नहीं हुआ लेकिन 134 हो चुकी हैं. संगठन ने अभी तक सात देशों में अपनी वर्कशॉप की हैं, 6000 शिक्षकों ने उनमें भाग लिया है. अपने एम्बेसडर प्रोग्राम के जरिए वे लोगों को वर्कशॉप कराने की ट्रेनिंग भी दे रहे हैं ताकि वे लोग और देशों तक मदद पहुंचा सकें.
ड्रेगनफ्लाई मेंटल हेल्थ में मुख्य संगठन अधिकारी और बर्लिन में चैरिटी यूनिवर्सिटी अस्पताल में न्यूरोसाइंस की पीएचडी फेलो येलेना ब्रासानाक कहती हैं, "हम वैज्ञानिक अपने काम को लेकर बहुत भावुक होते हैं और अपने अनुभव से मैं जानती हूं कि अक्सर, बहुत बार, थकान से पस्त हो जाने को सम्मान की तरह देखा जाने लगता है और ये एक ऐसी चीज है जिसे न करना ही हमें फिर से सीखना होगा.”
संगठन का लक्ष्य है- व्यवस्थागत बदलाव लाना और शैक्षणिक बिरादरी में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी भ्रांतियों को कम करना. ब्रासानाक कहती हैं, "हमें वाकई बदलाव लाने के लिए काम करना चाहिए, सामुदायिक जागरूकता लाना और शिक्षित करना और जड़ता से लड़ना. क्योंकि जिन लोगों को मदद चाहिए उनके लिए सबसे जरूरी चीज है कि वे अपनी पेशेवर जिंदगी में नुकसान के डर या दूसरे और नतीजों से घबराए बगैर मदद हासिल कर सकें.”