लाखों बच्चों को डे केयर सुविधा नहीं दे पा रहा है जर्मनी
८ मई २०२३जर्मनी में स्कूल जाने से पहले की उम्र के बच्चों के डे केयर सेंटर यानी किंडरगार्टन की भारी कमी है. परिवार मामलों के मंत्रालय के मुताबिक 2021 में देश के 378,000 बच्चों को यह सुविधा नहीं मिल सकी. यह आंकड़ा विपक्षी वामपंथी दल डी लिंके के पूछे एक सवाल के जवाब में सरकार की तरफ से आया है.
इन आंकड़ों के मुताबिक एक से तीन साल की उम्र वाले बच्चे देश में बिना डे केयर सुविधा के रह रहे हैं. इससे ऊपर यानी छह साल की उम्र तक के बच्चों के लिए यह संख्या 87 हजार है. डी लिंके की प्रवक्ता का कहना है कि एक साल की उम्र के बाद डे केयर का कानूनी अधिकार होने के बावजूद "बच्चों को बचपन और सामाजिक पाठ की शुरुआती शिक्षा से वंचित रखा जा रहा है."
चार साल की बच्ची की मां अमृता परवेज बताती हैं कि उन्हें कीटा के लिए काफी लंबा इंतजार करना पड़ा. परवेज ने बताया, "एक तो कोरोना की महामारी और दूसरे कीटा की कमी की वजह से मेरी बेटी को करीब 28 महीने की उम्र हो जाने के बाद पहली बार कीटा मिला."
कीटा का अधिकार
जर्मनी में एक साल की उम्र से बच्चों के लिए डे केयर की सुविधा पाने को कानूनी हक बना दिया गया है. डे केयर सेंटर में बच्चों को पेशेवर वार्डेन की देखरेख में बुनियादी कामों के अलावा सामाजिक रहन सहन सिखाया जाता है. यहां की अच्छी देखभाल बच्चों को उनकी मांओं से अलग रहने और विकास में सहायक है. खेल खेल में और दूसरों की देखादेखी से भी बच्चे बहुत जल्दी सीखना शुरू कर देते हैं.
भाषा, संवाद, अपने काम के अलावा दूसरों के साथ व्यवहार की बुनियादी शिक्षा बच्चों के विकास में काफी मददगार होती है. आमतौर पर घर में इसे मुहैया करा पाना हर मां के लिए संभव नहीं है. कामकाजी महिलाओं को इन सेंटरों के कारण अपने करियर में जल्दी वापसी का मौका मिलता है.
बच्चों की महंगी देखभाल से ब्रिटिश महिलाओं के करियर का नुकसान
कीटा में जगह नहीं मिलने या फिर अच्छा कीटा नहीं मिलने पर बच्चा पालना बहुत मुश्किल हो जाता है. परवेज बताती हैं, "पहले कीटा में छह महीने बहुत मुश्किल से कटे, मेरी बेटी रोती रहती थी, वहां के नियम सख्त थे और भाषा की भी काफी दिक्कत हुई. दूसरे बच्चों से उतना संपर्क नहीं रहता था. फिर मुझे अपने बच्ची को वहां से हटाना पड़ा. वह छह महीने फिर घर में ही रही और मैं होम ऑफिस करती रही." मां कामकाजी ना हो तो भी कीटा का विकल्प कम से कम जर्मनी जैसे देशों में तो बिल्कुल नहीं है.
बच्चों को पालने की मुश्किल
बढ़ती उम्र के साथ बच्चों की मांगें और जरूरतें बढ़ती जाती हैं. आज ज्यादातर घरों में मां बाप दोनों कामकाजी हैं ऐसे में बच्चों को पालना और उसके विकास के लिए सबकुछ व्यवस्थित तरीके से मुहैया कराना डे केयर सेंटर में ही संभव है. दादी नानी के भरोसे बच्चों को पालना खासकर शहरों अब बहुत मुश्किल हो गया है.
दूसरा बड़ा मसला है कि सामाजिक दूरी. कोरोना तो एक महामारी का दौर था, लेकिन आम तौर पर भी ज्यादातर देशों में लोगों का संपर्क घट रहा है. परिवार छोटे हो रहे हैं और गली मोहल्लों के लोगों से भी रोजमर्रा की मुलाकातें नहीं होतीं. ऐसे में बच्चों को समाज में रहने के लिए तैयार करने की बड़ी जिम्मेदारी इन्हीं किंडरगार्टनों, कीटा और स्कूलों पर है. घर में भाई बहन या दूसरे लोगों की कमी डे केयर सेंटर में आकर आसानी से पूरी हो जाती है.
इसका अभाव बच्चे और उनकी मांओं दोनों पर असर डालता है. बीते सालों में एक तरफ जहां डे केयर सेंटरों की कमी बढ़ रही है वहीं दूसरी तरफ उन पर होने वाला खर्च भी बढ़ता जा रहा है. मां बनने वाली औरतें ना सिर्फ अपने करियर का नुकसान उठा रही हैं बल्कि बच्चों को अच्छी परवरिश देने में भी मुश्किलों का सामना कर रही हैं.
प्राइवेट और सरकारी का फर्क
जिन्हें बढ़िया डे केयर सेंटर मिला है वो वहां की ऊंची फीस देने में परेशान हैं. आमतौर पर जर्मनी में सरकारी डे केयर सेंटर की फीस मां बाप की आय पर निर्भर करती है. कई राज्यों में चार साल की उम्र से पहले के डे केयर के लिए उन्हें फीस देनी होती है. हालांकि बर्लिन जैसे कुछ राज्यों में यह पूरी तरह से मुफ्त है.
आमदनी का एक तय हिस्सा इसके लिए डे केयर सेंटर को देना होता है. मां बाप दोनों कमाने वाले हों तो कई बार यह बहुत ज्यादा भी होती है जिसे दे देने के बाद दूसरे खर्चों के लिए कम पैसे बचते हैं. सरकारी और प्राइवेट कीटा के खर्चे भी अलग हैं.
दूसरी दिक्कत है पैसे देने के बाद भी पर्याप्त समय के लिए डे केयर सेंटर की सुविधा नहीं मिलती. हफ्ते में 25, 35 और 45 घंटे के लिए डे केयर सेंटर की सुविधा ली जा सकती है. अक्सर सेंटरों के पास इतना स्टाफ नहीं होता कि वह सबकी मांग पूरी कर सकें. परिवार मंत्रालय के मुताबिक 2020 से 2022 के बीच 3 साल तक के 10,000 बच्चों और 3 से 6 साल तक के 87,000 बच्चों के लिए जर्मनी में अतिरिक्त डे केयर सेंटर बनाये गये. हालांकि सरकार खुद ही मान रही है कि बड़ी संख्या में बच्चे अब भी डे केयर सेंटर की कमी का सामना कर रहे हैं.
डी लिंके पार्टी की परिवार मामलों की प्रवक्ता हाइडी राइषिनेक का कहना है, "संघीय सरकार इन आंकड़ों को नगरपालिकाओं और राज्यों को डे केयर सेंटर के उचित विस्तार में मदद का कारण मानने की बजाय अपनी जिम्मेदारी से और दूर जा रही है."
राइषिनेक ने ध्यान दिलाया कि सरकार ने सिर्फ 2,8 अरब यूरो की रकम इस काम के लिए मुहैया कराई है जबकि इसके लिए सालाना 50 अरब यूरो की जरूरत है. लंबे समय से डे केयर सेंटरों के लिए ज्यादा धन की मांग हो रही है. राइषिनेक का कहना है कि पैसे की कमी के कारण यह सिस्टम अब ढहने के करीब पहुंच गया है.
डेकेयर सेंटर में दुर्व्यवहार
डे केयर सेंटर की सिर्फ कमी का ही मसला नहीं है. बीते साल कुछ राज्यों में डे केयर सेंटरों में हिंसा और कर्मचारियों के संदिग्ध दुर्व्यवहार की भी कई खबरें आई हैं. एक सर्वे से पता चला है कि बर्लिन के डे केयर सेंटरों में 2022 में बच्चों के साथ कर्मचारियों के दुर्व्यवहार के 82 संदिग्ध मामले शिक्षा मंत्रालय की जानकारी में आये. 2021 में ऐसे मामलों की संख्या 56 थी. इनमें बच्चों को मारना, चिकोटी काटना, यौन या जुबानी दुर्व्यवहार और जबरन खाना खिलाने जैसे मामले थे.
2022 में राइनलैंड पलैटिनेट और नॉर्थ राइन वेस्टफेलिया में अधिकारियों ने बच्चों के साथ बदसलूकी के 271 मामले दर्ज किये जो एक साल पहले से 46 ज्यादा थे. हालांकि चाइल्ड प्रोटेक्शन एसोसिएशन की शिकायत है कि इस पर बहुत कम रिसर्च किया गया है. बाल संरक्षण विशेषज्ञ यॉर्ग मायवाल्ड का कहना है, "वास्तव में आंकड़ों की स्थिति अलग है."
बीते सालों में डे केयर सेंटरों में सुरक्षा को लेकर संवेदनशीलता बढ़ाई गई है. बच्चों के साथ बदसलूकी को रोकने के लिए चाइल्ड केयर प्रोवाइडरों को हिंसा से बचाव की नीतियां पूरे देश में लागू करना कानूनी तौर पर जरूरी किया गया है. हालांकि देश भर में इन नीतियों पर पूरी तरह से अमल अभी नहीं हुआ है.
अमृता परवेज की बेटी को 2023 से एक नये कीटा में दाखिला मिला और वहां पर वह काफी खुश है. नया कीटा उनके दफ्तर के करीब है और वो आसानी से उसके ज्यादा दूर गये बगैर अपना काम भी कर सकती हैं. हालांकि यहां तक पहुंचने में उनकी बेटी की उम्र चार साल के करीब पहुंच गई.
रिपोर्टः निखिल रंजन (डीपीए)