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कम ताकतों के साथ कैसे काम करेंगे मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला

आमिर अंसारी
१७ अक्टूबर २०२४

जम्मू-कश्मीर के नए मुख्यमंत्री उमर अबदुल्ला के पास भारत के अधिकांश मुख्यमंत्रियों की तुलना में कम शक्ति है. हालांकि, उनकी भूमिका अहम होगी और उनके सामने चुनौतियां भी काफी हैं.

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जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लातस्वीर: Indian National Congress

नेशनल कांफ्रेंस के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद उनके पिता और पार्टी अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला ने कहा, "यह कांटों का ताज है और अल्लाह लोगों की उम्मीदों को पूरा करने में उनकी मदद करे." उन्होंने कहा, "राज्य चुनौतियों से भरा है और मुझे उम्मीद है कि यह सरकार वही करेगी, जिसका वादा उसने घोषणा पत्र में किया है."

जम्मू-कश्मीर में करीब 10 साल बाद हुए विधानसभा चुनाव में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन को बहुमत हासिल हुआ. उमर अब्दुल्ला पहले भी राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं, लेकिन इस बार उनकी भूमिका अलग होगी. उन्हें गठबंधन सरकार चलानी है और राज्य के लोगों का भरोसा भी जीतना है. अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 निरस्त किए जाने के बाद जम्मू-कश्मीर को नई सरकार मिली है.

उमर को केंद्र सरकार के साथ तालमेल बिठाना होगा

फारूक अब्दुल्ला के "कांटों भरे ताज" बयान से संकेत मिलता है कि अनुच्छेद 370 के बाद के दौर में नया शासन-प्रशासन कितना पेचीदा हो सकता है. इसी साल जुलाई में जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल को कानून-व्यवस्था, नौकरशाही और नियुक्तियों के मामलों में ज्यादा शक्तियां दी गईं.

शासन की इस व्यवस्था में होने वाली दिक्कतों का सबसे चर्चित उदाहरण संभवत: दिल्ली है.

यहां आम आदमी पार्टी की सरकार और लेफ्टिनेंट गवर्नर (एलजी) के बीच अधिकार क्षेत्र और प्रशासनिक कामकाज पर विवाद जगजाहिर है. शक्तियों के बंटवारे का विवाद कोर्ट भी पहुंचा. बीते दिनों दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जम्मू के डोडा में एक रैली को संबोधित करते हुए इस पक्ष को रेखांकित भी किया. उन्होंने कहा कि अगर उमर अब्दुल्ला को "हाफ स्टेट" (पूर्ण राज्य नहीं) चलाने में दिक्कतें आती हैं, तो वह सलाह के लिए संपर्क कर सकते हैं.

केजरीवाल ने कहा, "दिल्ली को अर्ध-राज्य कहा जाता है क्योंकि मुख्यमंत्री के पास सीमित शक्तियां हैं. अब उन्होंने (बीजेपी के नेतृत्व में केंद्र सरकार) जम्मू-कश्मीर को भी हाफ स्टेट में बदल दिया है, जिसका मतलब है कि निर्वाचित सरकार के पास न्यूनतम अधिकार होंगे, जबकि लेफ्टिनेंट गवर्र के पास ज्यादा शक्तियां होंगी." हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि जम्मू-कश्मीर की नई केंद्र शासित प्रदेश सरकार अगर नियमित मामलों में एलजी से भिड़ती है, तो इससे बहुत कम फायदा होगा.

जम्मू-कश्मीर: नई सरकार के पास नहीं होंगी शक्तियां, क्या होगा असर

'इंडियन एक्सप्रेस' ने सूत्रों के हवाले से बताया है कि शपथ लेने के कुछ घंटों बाद उमर ने प्रशासनिक सचिवों के साथ बैठक की. खबर के मुताबिक, बैठक में उमर ने अधिकारियों से सहयोग मांगा. उन्होंने कहा, "हमें पिछले पांच सालों में लोगों और प्रशासन के बीच पैदा हुई खाई को पाटना है." जवाब में मुख्य सचिव अतुल डुल्लो ने उन्हें प्रशासनिक सचिवों के पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया. बैठक में जम्मू-कश्मीर के नए डीजीपी नलिन प्रभात भी मौजूद थे.

उमर भी जानते हैं कि सरकार चलाने के लिए उन्हें केंद्र सरकार के साथ तालमेल बिठाने की जरूरत है. विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने अनुच्छेद 370 की वापसी की मांग पर कड़ा रुख अपनाया था, लेकिन चुनाव नतीजे आने के बाद उन्होंने अपना रुख नरम कर लिया है.

16 अक्टूबर को उमर अब्दुल्ला ने केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.
इसी साल जुलाई में जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल को कानून-व्यवस्था, नौकरशाही और नियुक्तियों के मामलों में ज्यादा शक्तियां दी गईं.तस्वीर: Hindustan Times/Sipa USA/picture alliance

उमर के लिए राह नहीं आसान

दिल्ली से राज्य सरकार को सत्ता का सीमित हस्तांतरण होगा क्योंकि कश्मीर एक केंद्र शासित प्रदेश बना रहेगा, जो सीधे केंद्र सरकार द्वारा नियंत्रित होगा. कश्मीर से सांसद और नेशनल कांफ्रेंस के नेता सांसद आगा रूहुल्लाह मेहदी ने समाचार एजेंसी एपी से बातचीत में कहा कि प्रदेश में नई व्यवस्था "सरकार और विपक्ष दोनों की तरह काम करेगी."

उन्होंने कहा कि राज्य सरकार, नरेंद्र मोदी की दलगत नीतियों का विरोध करेगी और साथ ही क्षेत्र के अधिकारों को "वापस पाने" का प्रयास भी करेगी. मेहदी ने आगे कहा, "इन नीतियों ने राज्य को नुकसान पहुंचाया है, जैसे कि अनुच्छेद 370 को हटाना, जिसने हमारे अधिकारों को छीन लिया. सरकार राज्य के अधिकारों के लिए लड़ते हुए प्रभावी शासन देगी."

जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक दल के कार्यकर्ता
अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 हटाने के बाद पहली बार जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव हुआतस्वीर: DW

कई टिप्पणीकारों का कहना है कि जरूरी ताकतों के बिना नई सरकार को 2019 के बदलावों और केंद्र सरकार के कड़े नियंत्रण का विरोध करने के लिए ही नहीं, बल्कि अपने चुनावी वादे पूरे करने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ सकता है. थिंक टैंक 'इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप' के वरिष्ठ समीक्षक प्रवीन डोंथी ने कहा कि पिछले कुछ वर्षों से क्षेत्र में जो राजनीतिक शून्यता है, वह केवल चुनावों से ही दूर नहीं होगी. डोंथी ने कहा, "मोदी सरकार को पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करके और राज्य सरकार को सशक्त बनाकर इसपर काम करना चाहिए, नहीं तो इससे असंतोष बढ़ेगा और यह विफलता की ओर ले जाएगा."

विधानसभा चुनाव से जम्मू-कश्मीर के लोगों में जगी नई उम्मीद

जम्मू-कश्मीर के एलजी मनोज सिन्हा से एक इंटरव्यू में जब दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच विवाद के संदर्भ में सवाल किया गया, तो उन्होंने कहा, "इन सब से निपटा जा सकता है. हम सब मिलकर ऐसे मुद्दों को सुलझाएंगे. मैं चार साल से जम्मू-कश्मीर में हूं और बहुत काम हुआ है और अभी बहुत कुछ किया जाना है." एलजी ने कहा, "मुझे इसकी (किसी झगड़े की) उम्मीद नहीं है. और, कम-से-कम, मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा जिससे टकराव की स्थिति पैदा हो. मेरी तरफ से टकराव की कोई वजह नहीं होगी."

उमर अब्दुल्ला की सरकार का कार्यकाल आने वाले समय में कितना प्रभावी और फलदायी साबित होगा, यह अभी नहीं कहा जा सकता. पूर्ण राज्य का दर्जा वापस करने की मांग तो अपनी जगह है ही, लेकिन एक-एक फैसले पर कैबिनेट और उपराज्यपाल के अधिकार क्षेत्र का मसला सामने आ सकता है.