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पिछले 50 साल में कितनी "बीमार" हुई कुदरत?

स्वाति मिश्रा
१० अक्टूबर २०२४

"कुदरत गुम होती जा रही है और इसके नतीजे हम सबके लिए गंभीर होंगे," इस चेतावनी के साथ ताजा 'लिविंग प्लेनेट इंडेक्स' जारी किया गया है. इसने वन्यजीवन और जैव विविधता को हुए नुकसान की जो तस्वीर दिखाई है, वो बहुत गंभीर है.

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अपने नवजात के साथ एक मादा रेड फॉक्स.
एलपीआई में चेताया गया है, "यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि अगले पांच सालों में जो होगा, वो पृथ्वी पर जीवन का भविष्य तय करेगा"तस्वीर: Ingolf König-Jablonski/dpa/picture alliance

पिछली आधी सदी में (1970-2020) के बीच वन्यजीव आबादी का औसत आकार 73 फीसदी तक घट गया है. यह आंकड़ा उस वाइल्डलाइफ का है, जिसकी हम निगरानी कर पा रहे हैं. 

इनमें उभयचर (पानी और जमीन, दोनों पर रहने वाले) जीव, पक्षी, मछली, स्तनधारी और सरीसृप (रेंगने वाले) जीवों की 5,495 प्रजातियां हैं. सबसे ज्यादा कमी ताजे पानी में रहने वाले जीवों में हुई है. जमीनी जल स्रोतों में यह गिरावट 69 प्रतिशत है और समुद्री जीवन में 56 प्रतिशत.

मेक्सिको के पास समुद्र में तैरती गर्भवती बुलशार्क
एक लंबी अवधि में जीवों की जनसंख्या के आकार और उसमें आए बदलावों की समीक्षा से प्रकृति में आए हालिया बदलावों को समझने में मदद मिलेगीतस्वीर: Ken Kiefer/Imago Images

दुनिया के किस हिस्से पर सबसे ज्यादा असर?

यह जानकारी ताजा 'लिविंग प्लेनेट इंडेक्स' (एलपीआई) से मिली है. यह इंडेक्स 'वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फाउंडेशन' (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) और जूलॉजिकल सोसायटी ऑफ लंदन (जेडएसएल) ने जारी किया है. यह इंडेक्स एक 'अर्ली वॉर्निंग सिस्टम' जैसा है, जो जीवों के विलुप्त होने के जोखिम पर सचेत करता है. साथ ही, यह हमारे कुदरती परिवेशों और ईकोसिस्टम की सेहत का भी बैरोमीटर है. 

एक चूहे की तलाश में महीनों से हैरान है अलास्का का एक द्वीप

यूं तो समूची दुनिया ही वन्यजीवन की कमी से प्रभावित है, लेकिन कुछ हिस्सों पर बाकियों से ज्यादा गाढ़ा असर देखा गया है. लैटिन अमेरिका और कैरेबियन (कैरेबियन सागर और इसके द्वीप) में सबसे ज्यादा 95 फीसदी तक की गिरावट आई है. अफ्रीका में यह कमी 76 फीसदी, एशिया और प्रशांत क्षेत्र में 60 प्रतिशत है. यूरोप और मध्य एशिया (35 फीसदी) व उत्तरी अमेरिका (39 प्रतिशत) में स्थितियां अपेक्षाकृत बेहतर हैं.

कुदरती परिवेशों में आई गिरावट और उनका लुप्त होना, प्रकृति को हो रहे व्यापक नुकसान में सबसे ज्यादा चिंताजनक पक्ष है. रिपोर्ट में हमारी खाद्य व्यवस्था को इसका प्रमुख कारण माना गया है. इसके बाद प्राकृतिक संसाधनों और क्षेत्रों को बेतहाशा निचोड़ना, घुसपैठिया प्रजातियां और बीमारियां नेचर लॉस के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार पाए गए.

जलवायु परिवर्तन भी एक बड़ा जोखिम है और लैटिन अमेरिका व कैरेबियन सबसे ज्यादा संवेदनशील इलाकों में हैं. वहीं उत्तरी अमेरिका, एशिया व प्रशांत इलाकों के लिए प्रदूषण बड़ा खतरा है. रिपोर्ट ने एकबार फिर पुष्टि की है कि वन्यजीवन में आ रही कमी का बड़ा कारण इंसान और इंसानी गतिविधियां हैं.

एक पेड़ में बने कोटर के पास ब्लैक वुडपेकर चिड़िया
जैव विविधता में ईकोसिस्टम और उसके काम करने की विविधता, प्रजातियों और अलग-अलग भौगोलिक इलाकों में उनकी जनसंख्या की विविधता, आनुवांशिक विविधता भी शामिल हैतस्वीर: Ronald Wittek/imagebroker/Imago Images

क्या इंसान जैव विविधता का हिस्सा है?

जब हम जैव विविधता की बात करते हैं, तो ये ऐसा नहीं है कि आप भारत के एक शहर में बैठकर तंजानिया के किसी गांव का हाल सुन रहे हों. ना हम प्रकृति से अलग हैं, ना ईको सिस्टम से. मानव और मानव संस्कृति जैव विविधता का हिस्सा है. जिन जीवों को "बचाने" में हमारी अपेक्षाकृत ज्यादा दिलचस्पी है, जैसे कि बाघ, और जिन जीवों का शायद हमने कभी नाम भी नहीं सुना हो, वे सभी यानी "आम से लेकर खास" जैव विविधता का हिस्सा हैं. आंखों को नजर आने वाले जीवों से लेकर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर जीव, पेड़-पौधे, फंगी... अपने तमाम रूपों में फैले विविध जीवन का विस्तार बायो डायवर्सिटी है.

अगर किसी भी जीव की आबादी अपनी स्वाभाविक मौजूदगी की तुलना में काफी गिर जाएगी, तो खाद्य शृंखला में उसकी तय भूमिका पर असर पड़ेगा. वह प्रजाति अपने प्राकृतिक दायित्व पूरे नहीं कर पाएगी, या फिर उसका योगदान घट जाएगा. पारिस्थितिकीय गुणवत्ता को मापने के लिए कई 'इंडिकेटर प्रजातियां' हैं. जैसे कि गौरैया, मेढक, तितली, मधुमक्खी, उल्लू, कोरल रीफ (मूंगे की चट्टानें). इनकी मौजूदगी और सेहत के हाल से विशेषज्ञ यह पता करते हैं कि ईकोसिस्टम की सेहत कैसी है. प्रजातियों का गायब होना, या संख्या में घट जाना बताता है कि चीजें ठीक नहीं हैं.

दुनिया भर में जंगलों को बचाने की जगह उनका सफाया हो रहा है

रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो के वन्य क्षेत्र में एक अफ्रीकी हाथी
इंडेक्स की केस स्टडी में गैबॉन के मिंकेबे नेशनल पार्क में रहने वाले अफ्रीकी वन्य हाथी भी हैं. इनकी संख्या 2004-2014 के बीच 81 फीसदी तक घटी हैतस्वीर: Roger de la Harpe/DanitaDelimo/imago images

क्या हैं टिपिंग पॉइंट?

रिपोर्ट में चेताया गया है कि एलपीआई समेत कई अन्य इंडिकेटर बताते हैं कि प्रकृति बहुत चिंताजनक तेजी से गायब हो रही है. कुछ बदलाव छोटे या धीमे हो सकते हैं, लेकिन साथ मिलकर ये सभी एक तेज रफ्तार और विस्तृत असर पैदा करेंगे. रिपोर्ट में कहा गया है, "अगर मौजूदा रुझानों को यूं ही जारी रहने दिया गया, तो प्राकृतिक संसार में कई टिपिंग पॉइंट आने की आशंका बहुत ज्यादा है. संभावित तौर पर इसके नतीजे विनाशकारी होंगे."

प्रकृति से आती है दुनिया की आधी जीडीपी

जलवायु के संदर्भ में टिपिंग पॉइंट्स से तात्पर्य स्थितियों का उस बिंदु तक पहुंच जाना है, जिसके परे प्राकृतिक व्यवस्था में कोई बदलाव अप्रत्याशित, स्थायी और खतरनाक नतीजे पैदा कर सकता है. एलपीआई में ऐसे कुछ टिपिंग पॉइंट रेखांकित किए गए हैं. जैसे कि, बड़ी तादाद में कोरल खत्म होना. इससे मछलियां नष्ट होंगी. भोजन और रोजगार के लिए मछलियों पर निर्भर करोड़ों लोग प्रभावित हैं. खाद्य सुरक्षा और पोषण पर गंभीर असर पड़ेगा.

दक्षिण अफ्रीका के भूभाग प्रिंस एडवर्ड्स आइलैंड्स के एक द्वीप पर दो अल्बाट्रोस. ये जीव यहां घुसपैठिया प्रजाति हैं.
घुसपैठिया प्रजातियां भी बड़ा खतरा हैं. स्थानीय जीवों को रहने की जगह, भोजन और अन्य संसाधनों के लिए उनसे मुकाबला करना पड़ता हैतस्वीर: Anton Wolfaardt/AP/picture alliance

मूंगे की चट्टानें एक कुदरती दीवार या अवरोधक हैं, जो समुद्री लहरों की तीव्रता (वेव एनर्जी) को 97 फीसदी तक घटाते हैं. इस तरह वे तटों और तटीय इलाकों को मारक लहरों, तूफानों और बाढ़ जैसे खतरों से बचाती हैं. साल 2018 में नेचर पत्रिका में छपे एक शोध के मुताबिक, कोरल रीफ्स का यह योगदान सालाना चार बिलियन डॉलर से ज्यादा की बचत करता है.

ग्रेट बैरियर रीफ के कोरल के लिए 400 सालों का सबसे बुरा दशक

एक और बड़ा टिपिंग पॉइंट है, पृथ्वी के जमे हुए हिस्सों का पिघलना. ग्रीनलैंड और पश्चिमी अंटार्कटिक की बर्फीली परतों के पिघलने से समुद्र का स्तर कई मीटर बढ़ जाएगा. बड़े स्तर पर पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से वातावारण में कार्बन और मीथेन का विशालकाय उत्सर्जन होगा. एलपीआई ने चेताया है कि सस्टेनेबल भविष्य की दिशा में तय किए गए संवेदनशील लक्ष्य हासिल करने से बहुत दूर हैं.

कुछ जीव हैं केस स्टडी

रिपोर्ट में कुछ जीवों का खास जिक्र है. ये उदाहरण वन्यजीव जनसंख्या में हो रहे बदलावों को और स्पष्टता से समझने में मदद करते हैं. मसलन, चिनस्ट्रैप पेंगुइन. 1980 से 2019 के बीच अंटार्कटिक की करीब 94 कॉलोनियों में इस जीव की आबादी 61 फीसदी तक कम हुई है.

इसका संबंध समुद्र की बर्फ में हो रहे बदलाव और जलवायु परिवर्तन के कारण पेंगुइनों के लिए खाने की कमी से है. उनका ज्यादा समय खाने की तलाश में बीत रहा है, जिससे प्रजनन घटने की आशंका है. इसी तरह अमेरिका की सैकरेमैंटो नदी में चिनूक सालमन की आबादी में 1970 से अब तक 88 फीसदी की कमी दर्ज की गई है. 

ऑस्ट्रेलिया के उत्तरपूर्वी क्वीन्सलैंड में मिलमन आइलैंड पर रहने वाले संरक्षित हॉक्सबिल टर्टलों की जनसंख्या पिछले 28 साल में करीब 57 फीसदी घट गई है. जबकि, ग्रेट बैरियर रीफ के इस क्षेत्र में बड़े स्तर पर संरक्षण के उपाय लागू हैं. 

एक जल स्रोत के पास नजर आ रहे कुछ यूरोपियन कॉमन फ्रॉग
फ्रेशवॉटर इंडेक्स में आई बड़ी गिरावट ताजा पानी के प्राकृतिक परिवेशों और उनमें रहने वाले जीवों पर बढ़ते दबाव को रेखांकित करती हैतस्वीर: Uryadnikov/Pond5/IMAGO

रिपोर्ट में भारत की क्या स्थिति?

एलपीआई ने जून 2019 में चेन्नई में पैदा हुए गंभीर जल संकट का उदाहरण दिया है कि किस तरह "डे जीरो" को चेन्नई के एक करोड़ से ज्यादा लोगों के पास पीने का पानी नहीं बचा था. रिपोर्ट के मुताबिक, तेजी से हुए शहरी विस्तार के कारण इलाके के वेटलैंड्स में 85 प्रतिशत गिरावट आई. इसके कारण भूमिगत जल का रिचार्ज होना काफी कम हो गया जो कि बाढ़ जैसी स्थितियों की कुदरती रोकथाम का एक तरीका था. नतीजतन, लोग सूखा और औचक बाढ़ दोनों का जोखिम झेल रहे हैं.

चेन्नई के प्यासे लोग अब जान गए हैं पानी की कीमत

जलवायु परिवर्तन के कारण हालात और बदतर हुए हैं. रिपोर्ट में लिखा है, "विडंबना यह है कि इस क्षेत्र के वेटलैंड ईकोसिस्टमों को हुए नुकसान के कारण 2015 और 2023 में यहां के निवासियों को अत्यधिक बारिश के कारण आई बाढ़ का सामना करना पड़ा. हालांकि, 2015 में बारिश काफी ज्यादा हुई थी, लेकिन यह अभूतपूर्व नहीं थी. प्रजातियों से संपन्न आर्दभूमि और प्राकृतिक जल निकासी व्यवस्थाओं की बर्बादी ने शहर को हुए नुकसान को और गंभीर बना दिया. ये व्यवस्थाएं पहले सूखा और बाढ़, दोनों के ही सबसे बदतर असर से लोगों की ढाल बनते थे."

असम के गुवाहाटी में गिद्धों का एक समूह. इन्हें बंगाल वल्चर कहा जाता है.
गिद्ध मृत जीवों के शव खाते हैं, पोषक तत्वों को रीसाइकिल करने में भूमिका निभाते हैं. अफ्रीका में भी उनकी संख्या में बड़ी गिरावट आई हैतस्वीर: epa/dpa/picture alliance´

आंध्र प्रदेश के एक अभियान की प्रशंसा

रिपोर्ट में दक्षिण भारत के एक सामुदायिक अभियान 'आंध्र प्रदेश कम्यूनिटी-मैनेज्ड नैचुरल फार्मिंग' (एपीसीएनएफ) की तारीफ की गई है और इसे प्रकृति के लिए सकारात्मक खाद्य उत्पादन के अच्छे सामाजिक-आर्थिक असर की बढ़िया मिसाल बताया गया है. एपीसीएनएफ, खेती के बेहतर तरीके अपनाने में किसानों की मदद करता है.

इसके माध्यम से ग्रामीण रोजगार, पौष्टिक खाने की उपलब्धता, जैव विविधता को नुकसान से बचाना, जल संकट से निपटना और प्रदूषण कम करने जैसी कई चुनौतियों से निपटने में भी मदद मिल रही है. 6,30,000 किसानों की भागीदारी वाले इस अभियान को एलपीआई रिपोर्ट में "एग्रोईकोलॉजी की ओर बढ़ने" का दुनिया का सबसे बड़ा प्रयास बताया गया है. इसके कारण फसलों की विविधता बढ़ी है. मुख्य फसलों की उपज में औसतन 11 फीसदी का इजाफा हुआ है. साथ ही, किसानों की आय और परिवार के आहार में विविधता भी बढ़ी है.

ये अनूठे बैक्टीरिया समंदर में बत्ती जलाते हैं

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ का यह इंडेक्स काफी अहम माना जाता है, लेकिन इसकी आलोचना भी होती है. समाचार एजेंसी एएफपी के मुताबिक, जर्नल साइंस में छपे कई वैज्ञानिक शोधों में संस्थान पर इंडेक्स तैयार करने के क्रम में पूर्वाग्रही प्रणाली अपनाने के आरोप लगाए गए हैं जिसके कारण जानवरों की संख्या में आई कमी को कथित तौर पर बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए जाने की स्थिति बनती है.