फिर हरे हुए भारत की सबसे बड़ी लूट के जख्म
२१ जनवरी २०२५सन 1760 में जब रॉबर्ट क्लाइव भारत से वापस ब्रिटेन गया तो उसके पास कम से कम 300,000 पाउंड की संपत्ति थी, जो आज के हिसाब से 82 हजार लाख रुपये बनते हैं. यह उस ऐतिहासिक लूट की एक छोटी सी मिसाल है, जिसे बहुत से इतिहासकार दुनिया की सबसे बड़ी लूट कहते हैं. 1757 में हुई प्लासी की लड़ाई के विजेता इस अंग्रेज सेना के अधिकारी के कारनामे, दरअसल ब्रिटिश उपनिवेश के रूप में भारत को लूटने का प्रतीक मात्र थे.
2025 में, भारत पर औपनिवेशिक शोषण के घाव एक बार फिर हरे हुए हैं. ऑक्सफैम की एक नई रिपोर्ट के अनुसार, 1765 से 1900 के बीच ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत से लगभग 648.2 खरब डॉलर की संपत्ति लूटी. इनमें से 338 खरब डॉलर ब्रिटेन के सबसे अमीर 10 प्रतिशत लोगों की जेब में गया.
भारत, जिसे कभी 'सोने की चिड़िया' कहा जाता था, अपनी समृद्धि और संसाधनों के लिए विश्व प्रसिद्ध था. ऑक्सफैम की रिपोर्ट कहती है कि ब्रिटिश शासन ने इस समृद्धि को व्यवस्थित तरीके से छीन लिया.
शोषण से आर्थिक तबाही
1750 में, भारत का हिस्सा वैश्विक औद्योगिक उत्पादन में 25 प्रतिशत था. 19वीं सदी के अंत तक, यह हिस्सा घटकर केवल 2 प्रतिशत रह गया. यह गिरावट प्राकृतिक नहीं थी, बल्कि ब्रिटिश नीतियों का परिणाम थी.
ब्रिटिश संरक्षणवादी नीतियों ने भारतीय उद्योगों, विशेष रूप से कपड़ा उद्योग, को बर्बाद कर दिया. भारत, जो दुनिया भर में अपने उत्कृष्ट मलमल और वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध था, धीरे-धीरे इस क्षेत्र में अपनी पहचान खो बैठा. अमेरिकी इतिहासकार माइक डेविस, अपनी पुस्तक "लेट विक्टोरियन होलोकॉस्ट्स" में लिखते हैं, "अंग्रेजों ने भारतीय वस्त्र उद्योग को पूरी तरह नष्ट कर दिया. उन्होंने भारतीय वस्त्रों पर भारी कर लगाए और ब्रिटिश उत्पादों को भारतीय बाजारों में सस्ते दामों पर बेचा.”
इससे लाखों कुशल कारीगर और बुनकर बेरोजगार हो गए. भारतीय इतिहासकार रोमेश चंदर दत्त, अपनी किताब "द इकनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया अंडर अर्ली ब्रिटिश रूल" में लिखते हैं, "भारतीय निर्माता यूरोपीय मशीनों और भाप से चलने वाले उद्योगों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सके. वे अपनी आमदनी, भोजन और कपड़े खो बैठे और घोर गरीबी में फंस गए."
भारत से धन निकालने के तरीके
ब्रिटिश शासन ने भारत की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से लूटने के लिए कई तरीके अपनाए. इनमें सबसे प्रमुख था "होम चार्जेज" का सिस्टम. इसके तहत भारत का राजस्व ब्रिटेन में ब्रिटिश अधिकारियों के खर्च और पेंशन के लिए भेजा जाता था.
रोमेश चंदर दत्त ने लिखा है, "शासन करने वालों का मुख्य उद्देश्य इतना राजस्व जुटाना था कि प्रशासन का खर्च पूरा हो सके और एक बड़ा हिस्सा इंग्लैंड भेजा जा सके."
इस नीति का सबसे क्रूर प्रभाव बंगाल में देखा गया, जहां ज्यादा कर लगाने की वजह से 1770 का भीषण अकाल पड़ा. इस अकाल में करीब एक करोड़ लोग मारे गए.
दत्त के अनुसार, "बंगाल की आधी उपजाऊ भूमि पर खेती बंद हो गई. जनसंख्या का एक-तिहाई हिस्सा समाप्त हो गया." अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक ने अनुमान लगाया है कि 1765 से 1938 के बीच ब्रिटेन ने भारत से लगभग 450 खरब डॉलर की संपत्ति लूटी. यह संपत्ति करों, जबरदस्ती निर्यात, और "होम चार्जेज" जैसे तरीकों से निकाली गई.
पटनायक का कहना है, "इस लूट का दीर्घकालिक असर भारत की अर्थव्यवस्था और उद्योगों पर पड़ा. भारतीय उद्योगों को कमजोर करके ब्रिटेन ने अपने उद्योगों को बढ़ावा दिया.”
भुखमरी और मानव पीड़ा
ब्रिटिश शासन की नीतियों ने ना केवल भारत की संपत्ति को लूटा बल्कि करोड़ों लोगों की जान भी ले ली. 1891 से 1920 के बीच, ब्रिटिश नीतियों के कारण भारत में 5.9 करोड़ अतिरिक्त मौतें हुईं.
सबसे दर्दनाक उदाहरण 1943 का बंगाल अकाल था, जिसमें 30 लाख से अधिक लोग मारे गए. ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल की नीतियों की खासतौर पर आलोचना होती है, जिन्होंने इस संकट को और गहरा किया.
मधुश्री मुखर्जी, अपनी पुस्तक "चर्चिल्स सीक्रेट वॉर" में लिखती हैं, "चर्चिल ने बंगाल के भूखे लोगों के लिए अनाज भेजने के बजाय उसे ब्रिटिश सैनिकों और ग्रीस जैसे देशों के लिए जमा किया." चर्चिल ने अकाल की खबर सुनकर कहा था, "गांधी अब तक मरे क्यों नहीं?”
माइक डेविस के अनुसार, "ये अकाल प्राकृतिक आपदाएं नहीं थे. ये ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियों का परिणाम थे."
सांस्कृतिक और प्राकृतिक संपत्ति की लूट
भारत से सिर्फ धन ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और प्राकृतिक संपत्ति भी लूटी गई. कोहिनूर हीरा, जो भारत की समृद्धि का प्रतीक था, 1849 में लाहौर की संधि के तहत ब्रिटेन ले जाया गया. यह अब ब्रिटिश क्राउन ज्वेल्स का हिस्सा है. ब्रिटेन आज भी इस हीरे को लौटने से इनकार करता है.
विल ड्यूरांट, अपनी किताब "द केस फॉर इंडिया" में लिखते हैं, "भारत पर ब्रिटिश विजय एक उच्च सभ्यता पर एक व्यापारी कंपनी का आक्रमण था, जो किसी भी नैतिकता और सिद्धांत से रहित थी.”
1857 के विद्रोह के दौरान, दिल्ली के मुगल खजाने से बेशकीमती रत्न और अन्य वस्तुएं ब्रिटेन भेज दी गईं. जॉन न्यूसिंगर, अपनी किताब "द ब्लड नेवर ड्राइड" में लिखते हैं, "ब्रिटिश सैनिकों ने भारतीय महलों और मंदिरों को व्यवस्थित तरीके से लूटा. वहां से सोना, रत्न, और कलाकृतियां छीन ली गईं."
औपनिवेशिक शोषण की विरासत
ब्रिटिश शासन के दौरान हुआ शोषण आज भी भारत पर असर डाल रहा है. उत्सा पटनायक लिखती हैं, "शोषण का लंबा असर यह हुआ कि भारत का औद्योगिक आधार नष्ट हो गया और उसकी अर्थव्यवस्था पिछड़ गई."
वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन जैसी संस्थाओं पर भी औपनिवेशिक शोषण के ढांचे को खत्म करने में नाकाम रहने का आरोप लगाया गया है. ऑक्सफैम की रिपोर्ट इन ऐतिहासिक अन्यायों को स्वीकारने की वैश्विक आवश्यकता को रेखांकित करती है. खासकर ब्रिटिश उपनेविशवाद और उस दौरान हुए शोषण का जिक्र अक्सर होता है. हाल ही में जब इंग्लैंड के राजा चार्ल्स ऑस्ट्रेलिया और एशिया पैसिफिक के दौरे पर गए, तब उन्हें भी वहां विरोध का सामना करना पड़ा.
यह रिपोर्ट याद दिलाती है कि औपनिवेशिक नीतियों का आर्थिक और मानव लागत सिर्फ इतिहास का हिस्सा नहीं है. यह आज की दुनिया को भी आकार देती है. इससे मुआवजे, नियमित सुधारों, और शोषण के इस लंबे इतिहास से निपटने की मांग फिर से उठ खड़ी हुई है.