अच्छी शिक्षा के लिये हड़ताल
१८ जून २००९जर्मनी में जून के शुरुआती हफ़्ते में शिक्षा के लिये स्कूली और यूनिवर्सिटी के छात्रों ने हड़ताल की.
जर्मनी में आम तौर पर इतनी बड़ी हड़ताल नहीं होती. लेकिन बेतहाशा बढ़ी फ़ीस और शिक्षा के बदले नियमों ने छात्रों को नाराज़ कर दिया है. जर्मनी की सबसे ज़्यादा आबादी वाले राज्य नॉर्थ राइन वेस्टफ़ालियन में यूनिवर्सिटी की छह महीने की फ़ीस 500 यूरो यानी लगभग 38 हज़ार रुपये हैं.
शिक्षा के नियमों पर भी नाराज़गी है. छात्रों को चौथी क्लास में ही तय करना पड़ रहा है कि आगे जाकर उन्हें कौन सी पढ़ाई करनी है. लंबे वक्त से जर्मनी में सेकंडरी स्कूल की शिक्षा नौ साल में पूरी होती रही है लेकिन अब इसे आठ साल का कोर्स बना दिया गया है. हड़ताल से जुड़ी लीज़ा बताती हैं कि किस तरह स्कूलों की यह हड़ताल पूरे जर्मनी में फैल गयी. "हमने सोचा कि यह केवल एक स्कूली स्ट्राइक नहीं रह सकती क्योंकि यहां बात शिक्षा की हो रही है. और इसलिए स्कूली छात्रों के साथ युनिवर्सिटी, ट्रेनीज़ और अध्यापकों का भी इसमें जुड़ना ज़रूरी है. अब यह शिक्षा संस्थानों की स्ट्राइक है. हमारी बहुत सी मांगें पूरी नहीं की गई थीं, इसलिए हमने सोचा कि ऐसी हड़ताल हो, जिसमें सभी मांगों पर ज़ोर दिया जाए."
छात्रों ने हड़ताल को कारगर बनाने के लिए पूरी तैयारी की. इंटरनेट और मोबाइल से प्रचार हुआ. फ़ेसबुस और ट्वीटर जैसी वेबसाइट्स पर जानकारी दी गई और यू ट्यूब पर हड़ताल से जुड़े कई वीडियो पोस्ट किए गए.
टाइमिंग का भी पूरा ध्यान रखा गया. स्ट्राइक ऐसे वक्त की गई, जब कोई छुट्टी नहीं है और इम्तिहान सिर पर हैं. यानी हर कोई गंभीरता से सोचने पर मजबूर हो सके. सितंबर में जर्मनी में आम चुनाव हैं और ज़ाहिर है छात्रों की बात चुनावी मुद्दा भी बनेगी. हड़ताल आयोजित करने वालों में से एक ऑस्कर श्टौल्स बताते हैं. "जर्मनी में जून का तीसरा हफ्ता एक ऐसा समय होता है जब कोई छुट्टी नहीं होती. यह परीक्षा से पहले का समय है और हमने सोचा कि यह स्ट्राइक के लिए अच्छा समय है. एक वजह यह भी है के चुनाव आने वाले हैं. यह ऐसा समय है जब हम सरकार का ध्यान आकर्षित कर सकते हैं और पॉलीटिकल पार्टियों पर दबाव बना सकते हैं."
इस स्ट्राइक में डेढ़ लाख से भी ज़्यादा छात्र हिस्सा ले रहे हैं लेकिन उनका भी मानना है कि बदलाव में वक्त लगेगा. बहरहाल, छात्रों की हड़ताल से प्रशासन और सरकार पर दबाव तो ज़रूर पड़ा है.
रिपोर्ट- डॉयचे वेले/ईशा भाटिया
संपादन- आभा मोंढे