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'अनुराग कश्यप रेत में पानी की तरह हैं'

३ जुलाई २०१२

100 साल का हो गया है भारत का सिनेमा उद्योग. बॉलीवुड में जश्न मनाया जा रहा है. लेकिन इस जश्न में 70 फीसदी आबादी शामिल नहीं है. करोड़ों की कमाई करने वाला सुनहरा पर्दा किसानों के लेकर असंवेदनशील बना हुआ है.

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तस्वीर: AP

आखिर क्यों? क्या सिनेमा समाज से अलग है? किसानों के मुद्दे पर दुनिया का ध्यान खींचने के लिए देश विदेश के कुछ लोगों ने एक मुहिम की शुरुआत की है. सोच यह है कि 'इंटरनेशनल फार्मर फिल्म फेस्टिवल' के जरिए किसानों की समस्या को केन्द्र में लाया जाएगा. भारत के पत्रकार-संस्कृतिकर्मी अजीत राय भी इस समूह के सदस्य हैं. डॉयचे वेले ने उनसे बातचीत की.

डॉयचे वेलेः किसानों पर अंतरराष्ट्रीय फिल्म आयोजित करने का विचार कहां से आया?

अजीत रायः यह भारत का ही नहीं पूरी दुनिया में अपनी तरह का पहला फिल्म महोत्सव है जो किसानों पर आधारित होगा. मुझे इसकी प्रेरणा केवी सुबन्ना के हेगोड्डु गांव से मिली. उन्हें मैग्सेसे अवॉर्ड भी मिल चुका है. सिनेमा के माध्यम से समाज में जागरुकता लाने के लिए उन्होंने काफी काम किया है. वो कुरोसावा की प्रसिद्ध फिल्म 'राशोमोन' को लेकर किसानों के बीच में गए. अब आप सोचिए कर्नाटक का एक गांव जहां लोग न तो जापानी समझते हैं और न हीं अंग्रेजी. लेकिन वे फिल्म लेकर गए और उस पर चर्चा आयोजित की. किसानों से पूछा कि इस फिल्म को देखकर आप लोगों को क्या लगा. लोगों ने 20-25 तरह से उसकी व्याख्या की. अब हम नीदरलैंड्स में और भारत में खजुराहो और कुशीनगर में किसानों के मसले पर काम कर रहे हैं.

आप हिंदुस्तान की कौन-कौन सी फिल्मों को आपने महोत्सव के लिए चयनित किया है?हिंदुस्तान के बाहर से कौन-कौन सी फिल्में ले रहे हैं?

देखिए,हमारा एक सलेक्शन बोर्ड है. इस पर हम रिसर्च कर रहे हैं. दुनिया भर से हम फिल्में चाहते हैं. ताइवान और चीन में कृषि क्षेत्र में जो संकट हो रहा है उसको भी हम इसमें शामिल करना चाहते हैं. वैसे हम डॉक्यूमेंट्रीज को कम तरजीह दे रहे हैं. हम फीचर फिल्म ज्यादा लेंगे. हिंदुस्तान से 'पाथेर पांचाली' और 'समर-2007' ले रहे हैं जो सुहेल ततारी की फिल्म है. हम हिंदुस्तानी सिनेमा के 100 साल मना रहे हैं. मदर इंडिया जो कि महाजनी सभ्यता के शोषण की फिल्म थी वहां से लेकर हम आज तक की फिल्में शामिल कर रहे हैं.अलग अलग भाषाओं की फिल्में भी हैं. बीवी कारंत ने कन्नड़ में एक फिल्म बनाई थी 'चोमना डूडी.' यह किसानों के विस्थापन की फिल्म है. इसके अलावा अडूर की फिल्में 'फोर विमेन' और 'क्लाइमेट ऑफ क्राइम' हैं.

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मदर इंडियातस्वीर: picture-alliance/Mary Evans Picture Library

भारत में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, चाहे विदर्भ हो या फिर बुंदेलखंड या फिर पंजाब. आपकी फिल्मों के चयन का आधार क्या होगा?

हमारा विषय है किसानों का जीवन और उनका संघर्ष. आप देखें तो भारत की जो सबसे मशहूर फिल्म है जिसे दुनिया भर में मान्यता मिली वह है पाथेर पांचाली. वो किसानों के विस्थापन की फिल्म है. एक छोटा किसान हरिहर जो बेरोजगारी में पलायन करता है वहां से हम शुरु कर रहे हैं. मेरा मानना है कि अगले दस सालों में दुनिया भर में कृषि क्षेत्र सबसे ज्यादा संकट में होगा.

आप फिल्मों में सामाजिक यथार्थ की बात कर रहे हैं. हाल ही में रिलीज अनुराग कश्यप की फिल्म 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' की बात करें तो उसमें खूब मार-धाड़, गाली-गलौच और हिंसा है. क्या यही है हमारा सामाजिक यथार्थ या ये यथार्थ का अतिरंजित चित्रण है?

यह एक ट्रेंड है. बहुत लोग इसे कर रहे हैं. भरत मुनि के नाट्य शास्त्र में कहा गया है कि हम विभत्स का अस्वाद नहीं कर सकते. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी और इटली के सिनेमा और थियेटर की दुनिया में एक नया दौर चला जिसमें डेथ, ड्रीम और सेक्स की तिकड़ी थी जिसे फिल्म न्वॉर कहा गया है. यह ऐसा दौर था जो हताशा को सौन्दर्य में तब्दील करता था और उसका मजा लेता था. लेकिन भारत के मन में सत्यम शिवम सुंदरम की जो अवधारणा है उसमें वह चल नहीं सकता. इसीलिए आप ने देखा होगा कि भारत में जो विभत्स है उसे लोग पसंद नहीं करते. एक खास वर्ग जो पढ़ा लिखा है वहां ऐसी फिल्में कारोबार कर लेती हैं लेकिन वे लोगों के दिलों में जगह नहीं बना पातीं. इसलिए अनुराग कश्यप की जो पूरा थिसिस है...उनके गुरु हैं फतीह आकीन जो तुर्की मूल के बड़े जर्मन फिल्म मेकर हैं, हैंम्बुर्ग में रहते हैं, उनकी जड़े वहां तक जाती हैं.आकीन जिस तरह से 'हेड ऑन' में उनको लेकर आते हैं और 'सोल किचेन' में उसी तरह से अनुराग भी हैं. जब हम लोगों ने दोनों फिल्में नहीं देखी थी तब हमें लगता था कि क्या ब्रिलियंट शॉट है. लेकिन जब आप इन दोनों फिल्मों को देखें तो आपको अनुराग कश्यप समझ में आएंगे. 'ब्लैक फ्राइडे' भी उसी श्रेणी की फिल्म है. लेकिन वह अलग तरीके से बनाई गई थी इसीलिए वो अद्वितीय है. उनकी अब तक की सबसे बढ़िया फिल्म है. 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' या गालियों की बात करें तो...आजकल थियेटर में भी यही हो रहा है. दीपन शिवरामन, जुलेखा चौधरी, अनुराधा कपूर ऐसे नए डायरेक्टर हैं जो गालियों को लिबरेशन की तरह ले रहे हैं. लेकिन इसे भारत मे पसंद नहीं किया जाएगा. इसमें कोई शाश्वतता जैसी बात नहीं है. भाव बोध की गहनता नहीं है.

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अनुराग के गुरू-फतीह आकीनतस्वीर: picture-alliance/dpa

अनुराग कश्यप के प्रशंसक मानते हैं कि वो विश्व स्तर पर अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं. कान में उनकी फिल्में दिखाई गईं. दुनिया भर के फिल्मकारों के बीच उनके काम को आप कैसे मूल्यांकित करते हैं?

जब हमे बहुत भूख लगी हो और पांच दिनों से कुछ भी खाने को मिले तो जब हम कुछ भी खाएंगे तो अच्छा लगेगा. बॉलीवुड की जो मुंबईया सिनेमा संस्कृति है जिसमें कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा. उसमें यह रेत में किसी पानी की तरह दिखाई देते हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि अनुराग अच्छे फिल्मकार हैं लेकिन वह भारत का प्रतिनिधित्व नहीं करते. हमारा जो फिल्म उद्योग है वह इसलिए अच्छा नहीं कर रहा क्योंकि यहां दो नंबर का पैसा लगा है. स्मगलिंग, अंडरवर्ल्ड, राजनेताओं का पैसा है. दुनिया भर के जो दूसरे फिल्म उद्योग हैं उनका हर पैसा ऑडिटेड है जबकि भारत में ऐसा नहीं है. अगर स्टीवन स्पीलबर्ग कोई फिल्म बनाते हैं या रिचर्ड एडिनबरा कोई फिल्म बनाते हैं तो उनका एक एक पैसा ऑडिटेड है. वे टैक्स देते हैं. हमारे यहां एक अलग तरह का दुष्चक्र है. इसके अलावा एक और बात है कि हमारे यहां जो श्रेष्ठ प्रतिभाए हैं वे सिनेमा में नहीं लगी हैं.

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विपदा के मारेतस्वीर: AP

किसानों के मुद्दे हिंदी और भाषाई मीडिया में सिरे से गायब है. पी साईनाथ जैसे कुछ लोग है लेकिन वे अंग्रेजी में है. सांस्कृतिक रिपोर्टिंग भी फिल्म समीक्षा तक सिमट गई है. आपका क्या कहना है?

दुर्भाग्य की बात है कि हमारे पास अच्छे फिल्म समीक्षक भी नहीं है. हिंदी में बहुत खराब स्तर है फिल्म समीक्षा का. मैं मानता हूं कि मुंबईया बॉलीवुड भारतीय सिनेमा का प्रतिनिधि नहीं है. इटली, फ्रांस जर्मनी जहां पर सिनेमा में गंभीर विमर्श हो रहा है वहां पर एक भी हिंदी का नहीं है. श्याम बेनेगल और मृणाल सेन अतीत की बात हैं. अभी बंगाल के गौतम घोष है जिनके पीछे यूरोप का दर्शक वर्ग पागल है. अडूर गोपालकृष्णन हैं लेकिन वो बहुत बजुर्ग हो चुके हैं. गिरीश कासरवल्ली की फिल्में भी हैं. बंगाल के ही ऋतुपर्णो घोष की फिल्मों ने भी लोगों का ध्यान खींचा है.

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गायब होती सिनेमा संस्कृतितस्वीर: Reuters

हमारा जो हिंदी का फिल्म समीक्षक और पत्रकार है वो मुंबइया फिल्मों के अलावा कुछ भी नहीं देख रहा है. हिंदी क्षेत्र में अच्छे सिनेमा का जो मूवमेंट था वो खत्म हो चुका है. एक ले देकर गोवा फिल्म फेस्टिवल बचा हुआ है जो खिड़की है विश्व सिनेमा की जहां आप भारत का और दुनिया दोनों का अच्छा सिनेमा देखते हैं. पटना, लखनऊ,बनारस और इलाहाबाद, जो पत्रकारिता के केन्द्र थे वहां पर कुछ बचा ही नहीं. अब हम थोड़ा कोशिश कर रहे हैं. जब हिंदी के केन्द्रों में कोई फेस्टिवल या मूवमेंट ही नहीं है तो अच्छी फिल्में कहां से देखेंगे. हिंदी समाज और हिंदी का जो अकादमिक संसार है उसने सिनेमा को एक गंभीर माध्यम मानने से इंकार कर दिया है. सिनेमा आज भी बुराई का जरिया माना जाता है. इसीलिए हम एक पीपुल्स सिनेमा ट्रस्ट बनाने जा रहे हैं भारत में जिसमें हम 365 दिन का एक कार्यक्रम लेंगे. एक कॉलेज एक दिन. दो भारतीय सिनेमा, एक विश्व सिनेमा और एक लेक्चर. और बड़े स्तर पर हम ये करेंगे. हम सिनेमा की रथयात्रा निकालने जा रहे हैं. एक ट्रक उस पर प्रोजेक्टर उस पर फिल्में होंगी.

इंटरव्यूः विश्वदीपक

संपादनः मानसी गोपालकृष्णन