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अरब राजदूतों ने भारत से येरुशलम पर पूछा सवाल

१८ दिसम्बर २०१७

येरुशलम को इस्रायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने के मुद्दे पर अरब देशों के राजदूतों ने भारत से अपनी स्थिति साफ करने को कहा है. भारत की चुप्पी क्या फलस्तीन के मुद्दे पर सरकार के "रुख में बदलाव" का संकेत है?

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Westjordanland Ausschreitungen in Beit El
तस्वीर: Reuters/G. Tomasevic

राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने दशकों पुरानी अमेरिकी नीति को बदल कर येरुशलम को इस्रायल की राजधानी के रुप में मान्यता दे दी जिसे लेकर फलस्तीन में गुस्सा है. ट्रंप की अमेरिकी दूतावास को भी तेल अवीव से येरुशलम ले जाने की योजना है.

अमेरिका के सहयोगी ब्रिटेन और फ्रांस समेत दुनिया के तमाम देशों ने ट्रंप के फैसले की आलोचना की है लेकिन भारत ने अब तक किसी का पक्ष नहीं लिया है. इसकी बजाय भारत के विदेश मंत्रालय ने एक संक्षिप्त बयान जारी कर कहा कि भारत अपनी स्थिति पर कायम है और वह किसी भी तीसरे पक्ष से स्वतंत्र है. बयान में येरुशलम का कोई जिक्र नहीं था जिसके बाद घरेलू स्तर पर इसे अपर्याप्त, ढुलमुल और फलस्तीन विरोधी कहा गया.

Jerusalem Blilck auf Klagemauer und Felsendom
तस्वीर: Getty Images/L. Mizrahi

इस्रायल का कहना है कि पूरा येरुशलम उसकी राजधानी है. फलस्तीनी पूर्वी येरुशलम को भविष्य के अपने स्वतंत्र राष्ट्र की राजधानी बनाना चाहते हैं. ट्रंप के फैसले ने उन्हें अलग थलग करने के साथ ही द्विराष्ट्र के सिद्धांत पर उनका देश बनने की उम्मीदों को भी ध्वस्त कर दिया है.

पिछले हफ्ते दिल्ली में सऊदी अरब समेत कई अरब देशों के राजदूतों ने विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर से मुलाकात कर अरब लीग की इस मुद्दे पर हुई बैठक के बारे में जानकारी दी. 9 दिसंबर को हुई बैठक में अमेरिका के फैसले की आलोचना की गई. राजदूतों ने भारत से इस मामले पर अपना रुख साफ करने को कहा. एमजे अकबर ने उन्हें कोई भरोसा नहीं दिया और सूत्रों का कहना है कि भारत सरकार फिलहाल येरुशलम पर कोई बयान नहीं देने जा रही है. नाम जाहिर ना करने की शर्त पर समाचार एजेंसी रॉयटर्स को एक राजनयिक ने बताया, "अकबर ने कोई वादा नहीं किया." अकबर के साथ बैठक में सऊदी अरब, मिस्र, सोमालिया और फलस्तीनी प्रशासन के राजदूत मौजूद थे. इसके अलावा इलाके के कई दूसरे देशों के राजदूत भी बैठक में शामिल थे.

Jerusalem Proteste nach Freitagsgebet
तस्वीर: Reuters/A. Awad

भारत फलस्तीन का शुरुआती और मुखर समर्थक रहा है. गुटनिरपेक्ष आंदोलन के समय से ही उसने इस बात का समर्थन किया है हालांकि इसके साथ ही वह इस्रायल के साथ भी समझौते करता रहा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार में भारत का रुख इस्रायल की तरफ झुकता जा रहा है. सरकार ने सैन्य सहयोग के साथ ही आंतरिक सुरक्षा के मामले में भी सहयोग पर से पर्दा उठा दिया है. इसी साल जुलाई में नरेंद्र मोदी इस्रायल के दौरे पर गए जो किसी भारतीय प्रधानमंत्री की यहां की पहली यात्रा थी. लेकिन मोदी फलीस्तीनी अथॉरिटी के मुख्यालय रामल्लाह नहीं गए. आमतौर पर दोनों पक्षों की तरफ संतुलन दिखान के लिए अंतरराष्ट्रीय नेता दोनों जगहों का दौरा करते हैं.

Westjordanland Ausschreitungen in Nablus
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/M. Mohammed

भारत इस्रायल संबंधों के विशेषज्ञ और जवाहर लाल नेहरु के प्रोफेसर पीआर कुमारस्वामी कहते हैं कि इस साल फलस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास के भारत दौरे के बाद से ही भारत के रूख में "बड़ा परिवर्तन" दिख रहा है. कुमारस्वामी ने कहा, "फलस्तीनी राष्ट्रपति के साथ खड़े प्रधानमंत्री मोदी ने फलस्तीन के साथ भारत का समर्थन जताया लेकिन इसके साथ ही बड़ी सावधानी से पूर्वी येरुशलम के बारे में कोई सीधी बात कहने से साफ बच गए."

कुमारस्वामी का यह भी कहना है कि कई दशकों से भारत फलस्तीन राष्ट्र का समर्थन करते हुए पूर्वी येरुशलम को फलस्तीन की राजधानी बनाने की बात कहता रहा है. लेकिन अब वो ज्यादा संतुलित रुख अपना रहा है और इस बड़े विवाद में किसी भी पक्ष की तरफ नहीं जा रहा है. 

एनआर/एमजे (रॉयटर्स)