आखिर ढह ही गया बंगाल का लालकिला
१३ मई २०११मां, माटी और मानुष का ममता बनर्जी का नारा वामपंथियों पर बहुत भारी पड़ा. तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने अकेले अपने बूते बंगाल में साढ़े तीन दशक लंबे वामपंथी राज का अंत कर दिया. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस गठजोड़ की यह जीत कई मायनों में ऐतिहासिक है. लेकिन महज ऐतिहासिक कहने से इसका महत्व पूरी तरह बयान करना मुश्किल है. बंगाल को अपनी जागीर समझ कर आखिर तक अपनी जीत के दावे करने वाले वामपंथी नेताओं के चेहरों पर अब हवाइयां उड़ने लगी हैं.
नहीं लिया सबक
वैसे, वामपंथी शासन के अंत की यह शुरूआत तो दो साल पहले हुए लोकसभा चुनाव से ही हो गई थी. लेकिन आत्मविश्वास से लबालब वामपंथी अपनी गलतियों को मान कर उनको सुधारने की बात तो करते रहे, उस पर कभी अमल नहीं किया. इसलिए लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद विपक्ष नहीं बल्कि खुद वामपंथी ही यह सवाल उठाने लगे थे. आखिर सीपीएम के नेता बदलाव के उन संकेतों को क्यों नहीं समझ सके, जिनको आम आदमी भी समझ रहा था. इस सवाल का जवाब तो वामपंथी ही दे सकते हैं. हो सकता है कि वे अपनी हार की संभावना को पचा नहीं पा रहे हों. इसलिए इसे कबूल करने में हिचक रहे हों. या फिर सब कुछ समझते हुए भी वे शुतुरमुर्ग की तरह बालू में सिर छिपा कर समझ रहे हों कि तूफान ऊपर से गुजर जाएगा.
वैसे, चुनाव अभियान शुरू होने के पहले से ही मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य समेत तमाम नेता कहते रहे थे कि सिंगुर की घटना से सरकार ने सबक सीखा है और अब वैसी गलती नहीं दोहराई जाएगी. लेकिन प्रदेश के लोग शायद सरकार को और सबक सिखाने के मूड में थे. इसलिए लोकसभा चुनाव के पार्टी और सरकार की ओर से छवि सुधारने की तमाम कवायद के बावजूद हालात में कोई सुधार नहीं आया.
क्यों हुआ सफाया
सिंगुर की घटना से वामपंथियों के पैरों तले से जमीन खिसकने की जो प्रक्रिया शुरू हुई, उसे नंदीग्राम, लालगढ़ और मंगलकोट की घटनाओं ने और तेज किया. राज्य में इस दौरान राजनीतिक हिंसा की बढ़ती घटनाओँ ने सरकार की छवि पर भी सवाल खड़े किए. माओवादी इलाकों में सीपीएम की ओर से गुंडों की फौज यानी हार्मद वाहिनी के गठन ने भी उसके पतन में अहम भूमिका निभाई. इस मुद्दे पर तो केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम और मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के बीच लंबा पत्र युद्ध भी चला था. अभी इसका सिलसिला थमा भी नहीं था कि कोढ़ में खाज की तरह नेताई गोलीकांड ने सीपीएम के चेहरे से नकाब उतार दिया. वहां सीपीएम के हथियारबंद काडरों ने अंधाधुंध गोलियां चला कर नौ निहत्थे ग्रामीणों की हत्या कर दी. अदालत के आदेश पर इस मामले की जांच करने वाली सीबीआई ने अपनी चार्जशीट में सीपीएम के तमाम दिग्गज नेताओं के नाम शामिल किए. चुनाव से ठीक पहले जनवरी में हुई इस घटना ने जंगलमहल के लोगों को सीपीएम के खिलाफ खड़ा कर दिया.
इस दौरान सीपीएम के गढ़ समझे जाने वाले बर्दवान जिले के मंगलकोट की घटना ने भी सीपीएम और सरकार की छवि पर बट्टा लगाया. इसका असर नतीजों पर पड़ना स्वाभाविक था. सरकार माओवादी इलाकों के विकास की योजनाएं तो बनाती रहीं लेकिन वैसी तमाम योजनाएं कागज पर ही सिमटी रहीं. इससे लोगों में नाराजगी लगातार बढ़ती रही और उन्होंने सीपीएम को सबक सिखाने का फैसला कर लिया.
ममता की आंधी
वाम मोर्चा के मनमाने रवैए और तानाशाही से ऊबे लोगों ने अबकी ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को बेहतर विकल्प मानते हुए उसके पक्ष में खुल कर वोट डाला. हर चरण में भारी मतदान से लोगों की यह जानकारी साफ झलक रही थी. लेकिन मोर्चा के नेता संकेत समझने को तैयार नहीं थे. नतीजतन शहरी इलाकों के अलावा ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में भी सीपीएम का सूपड़ा लगभग साफ हो गया. अल्पसंख्यकों को लुभाने की तमाम कोशिशों और इसके लिए सरकारी खजाने का मुंह खोलने के बावजूद वे सीपीएम से दूर होते गए.
रही-सही कसर चुनाव अभियान के दौरान वाम मोर्चा के अध्यक्ष विमान बसु और सीपीएम के बड़बोले नेता गौतम देव ने ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ काला धन के इस्तेमाल के हवाई आरोप लगा कर पूरी कर दी. बिना किसी सबूत के लगभग रोज दोहराए जाने वाले इन आरोपों ने सीपीएम नेताओं की कलई तो खोल दी. लेकिन इससे ममता की साख और मजबूत हुई. लोगों को लगा कि अपनी हार तय मान कर सीपीएम अब ममता की छवि धूमिल करने की कोशिश कर रही है. सीपीएम के नेता लगभग रोजाना अपनी जीत के दावे करते रहे. लेकिन ममता ने पूरे चुनाव अभियान के दौरान पत्रकारों से बातचीत में एक शब्द तक नहीं कहा. उन्होंने जो कुछ कहा वह चुनावी रैलियों में ही. उनमें भी वह कहती रहीं कि यह जनता का फैसला होगा. लोग जिसे चाहेंगे, वोट देंगे.
सवालों की गुंजाइश नहीं
वैसे, भी बंगाल के इतिहास में सबसे लंबे और सबसे शांतिपूर्ण विधानसभा चुनाव इससे पहले कभी नहीं हुए थे. चुनाव की प्रक्रिया पर वामपंथी भी संतोष जता चुके हैं. ऐसे में उनको चुनाव आयोग पर सवाल उठाने की भी कोई गुंजाइश नहीं बची है. यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि चुनावी नतीजों ने वामपंथियों को ऐसा करारा झटका दिया है जिससे उबरने में उनको काफी समय लगेगा. अब दो साल के भीतर दूसरी बार वे लालकिले के ध्वस्त होने की वजह जानने की कवायद शुरू करेंगे. पहली बार लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद ऐसा किया गया था. लेकिन कारण तलाश कर उनको दूर करने की तमाम कोशिशों के बावजूद पैरों तले की जमीन लगातार खिसकती ही रही और नतीजा सामने है.
रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता
संपादनः ए कुमार