आम भारतीय के लिए 10 करोड़ रुपये के मायने
१७ मार्च २०११भारत में गरीबी बढ़ी है. यह खुद भारत सरकार के आंकड़े कहते हैं. दो साल से महंगाई ने मध्यवर्ग की नाक में दम कर रखा है. दूध, चीनी, सब्जी, फल और सफर महंगा हुआ है. ऐसी स्थिति में आम आदमी आमदनी बढ़ाने की कोशिश करता है. लेकिन तब भी 10 करोड़ रुपये के बारे में सोचने की जुर्रत नहीं कर पाता. उसकी इतनी कल्पना शक्ति ही नहीं है कि यह बता दे कि वो 10 करोड़ रुपये कैसे खर्च करेगा.
पर ऐसी ही आम आदमी के वोट पाकर उसका प्रतिनिधित्व करने वाले कई नेताओं की सोच अलग है. आए दिन भ्रष्टाचार के नए नए मामले बता रहे हैं कि नेताओं के लिए करोड़ों रुपये और एक गिलास पानी में ज्यादा फर्क नहीं.
सोचिए भारत में हर महीने 15,000 रुपये की तनख्वाह पाने वालों को ठीक ठाक माना जाता है. अगर यह 15,000 रुपये महीने कमाने वाला आम आदमी एक भी पैसा खर्च न करे और लगातार 555 साल तक काम करे, तब जाकर 10 करोड़ रुपये जमा कर पाएगा.
एक आम मध्यवर्गीय भारतीय 8 से 14 घंटे तक काम करता है. हर दिन थका हारा घर जाता है, इस तरह रोज जिंदगी के लिए संघर्ष करता है. तब जाकर उसे तनख्वाह मिलती है और उस पर वह टैक्स भी देता है. गैर संगठित क्षेत्र के कामगारों की हालत तो इससे भी बुरी है. कोई सारा सारा दिन रात ट्रक चलाता है, कोई सिर पर ईंटे ढोता है, 48 डिग्री की गर्मी या शून्य डिग्री के तामपान में भी नंगे पांव चलता है. तब जाकर परिवार और अपना पेट पालता है.
लेकिन ऐसे ही आम आदमी के नेताओं के लोकतंत्र की बानगी देखिए कि चुटकी में 40 करोड़ का हिसाब किताब कर दिया. टेलीकॉम घोटाले में 176 अरब रुपये नाप दिए. कॉमनवेल्थ खेलों में भी करोड़ों गटक गए. सवाल उठे तो पहले खंडन किया, फिर इसे साजिश बताया और आखिर में जांच पूरी होने का इंतजार करते हुए निर्विकार भाव अपना लिया.
एक सवाल और है. आखिर इतना पैसा आया कहां से. इसका स्त्रोत क्या है. इस बात के क्या सबूत हैं कि यह काला पैसा नहीं है. क्या इस पैसे पर टैक्स दिया गया. इस पैसे का आधिकारिक रिकॉर्ड कहां है. क्या भारत की जीडीपी में भ्रष्टाचार से जुड़े इस अकूत पैसे का कोई जिक्र है. ये बातें भी जांच करने लायक हैं.
भारत में हर दिन गरीबी से जूझता हुआ एक किसान खुदकुशी करता है. दहेज के खातिर युवतियों की शादियां टूटती हैं, जुल्म होते हैं. हजारों रुपये के लिए लूट खसोट हर शहर में लगी रहती है. रिक्शे वाले को किराया पांच रुपये बढ़ाने के लिए समाज से संघर्ष करना पड़ता है. नाई, जुलाहा, किसान एक दो रुपये के भाव के लिए कई चीजें सहते हैं.
ये सब तरक्की करने वाले भारत में रहते हैं. तरक्की सबसे से ज्यादा कहां और किसकी हो रही है, यह भी अब साफ साफ दिखने लगा है.
रिपोर्ट: ओंकार सिंह जनौटी
संपादन: एन रंजन