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समाज

इंडो पैसिफिक में भारत की त्रिकोणीय गठबंधनों की पहल

राहुल मिश्र
२२ जनवरी २०२१

इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में शांति, व्यवस्था और नियमबद्ध आचरण के लिए यह बहुत जरूरी है कि इसके प्रमुख देश लगातार साथ मिलकर काम करें. भारत भी इस बीच बहुपक्षीय और सामरिक सहयोग की कई पहलकदमियों को मूर्त रूप देने में जुटा हुआ है.

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Japan Quad Indo-Pazifik Außenministertreffen in Tokio
तस्वीर: Nicolas Datiche/Reuters

पिछले कुछ वर्षों में इंडो-पैसिफिक सहयोग के अलावा अमेरिका, भारत, जापान, और आस्ट्रेलिया के बीच के चतुष्कोणीय सहयोग पर काफी प्रगति हुई है. इसके अलावा जापान, अमेरिका और भारत के बीच त्रिकोणीय सहयोग भी बढ़ा है जिसे भारतीय प्रधानमंत्री मोदी ने ‘जय' का नाम दिया है. साथ ही भारत, ऑस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया के बीच भी वार्ता और सहयोग के आयामों में बढ़ोत्तरी हुई है. अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच सहयोग तो वर्षों से कायम है, भारत ने भी पिछले समय में अलग अलग देशों के साथ त्रिपक्षीय सहयोग की पहल की है. इसी सिलसिले में नई पहल है, भारत, जापान और फ्रांस के बीच त्रिकोणीय सहयोग की कोशिश. हालांकि अभी तक आधिकारिक स्तर पर कोई बड़ी घोषणा नहीं हुई है लेकिन माना जा रहा है कि जल्द ही इस मिनीलेटरल सहयोग को भी अमली जामा पहना दिया जाएगा.

यह पहल कई मामलों में महत्वपूर्ण है. पहली तो यही कि इन तीनों देशों के लिए इंडो-पैसिफिक महत्वपूर्ण है. दुनिया भर की लगभग दो तिहाई आबादी इसी इलाके में बसी है और दुनिया का आधे से ज्यादा व्यापार भी इसी क्षेत्र से होकर गुजरता है. जाहिर है इन तीनों बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के लिए भी यह इलाका खासी अहमियत रखता है. भारत, जापान, और फ्रांस तीनों के लिए इंडो-पैसिफिक क्षेत्र किसी सुदूर क्षेत्र की सामरिक रणनीति का मसला नहीं बल्कि बेहद नजदीक का मामला है.

भारत और जापान पर तो इसका सीधा प्रभाव है ही, दोनों इन सागरों पर बसे हैं. फ्रांस के लिए भी यह कम महत्वपूर्ण नहीं, क्योंकि फ्रांस अधिकृत कई द्वीप इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में आते हैं. फ्रांस से इन द्वीपों की दूरी से फ्रांसीसियों की चिंता बढ़ना स्वाभाविक है. इसके अलावा, अतीत में फ्रांस के अधीन रहे कुछ देश भी इस इलाके में हैं, जिनके साथ आज फ्रांस के बहुत अच्छे संबंध हैं. इस वजह से भी फ्रांस अपने को इंडो-पैसिफिक से अलग नहीं कर सकता है.

एशिया पैसिफिक में पश्चिमी देशों के हित

आम तौर पर माना जाता है कि फ्रांस यूरोपीय देश है, उसे कहां होगी इंडो-पैसिफिक की फिक्र? लेकिन फ्रांस इंडियन ओशन रिम एसोसिएशन का पिछले कई वर्षों से डायलॉग पार्टनर रहा है. और इंडियन ओशन नौवहन सिम्पोजियम में तो उसकी सदस्यता एक पूर्वी अफ्रीकी देश के तौर पर है. यही नहीं, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ उसने तमाम संयुक्त सैन्य अभ्यासों में भी नियमित रूप से भाग लिया है. भारत के साथ ‘वरुण' संयुक्त नौसेना अभ्यास इसका सबसे बड़ा उदाहरण है.  यही नहीं, दोनों देशों की थल सेनाओं के बीच ‘शक्ति' नामक संयुक्त युद्धाभ्यास नियमित रूप होता रहा है तो वहीं दोनों देशों की वायुसेनाएं ‘गरुड़' नामक युद्धाभ्यास नियमित रूप से करते रहे हैं. भारत और फ्रांस के बीच 2017 में पास किया गया व्हाइट शिपिंग एग्रीमेंट भी इनके रिश्ते की मजबूतियों का गवाह है. यह समझौता करने वाले देशों की नौसेना को एक दूसरे की सीमा में जहाजों के बारे में सूचना के आदान प्रदान की सुविधा देता है.

भारत और फ्रांस हिंद महासागर में किसी भी तीसरे देश में साथ साथ संयुक्त निवेश की संभावनाओं पर भी काम कर रहे हैं. लेकिन राफेल विमानों और फ्रांस के हाल ही में सिर्फ भारत के लिए हथियार बनाने के सौदे के जिक्र के बिना बात अधूरी सी लगती है. आने वाले समय में इस सहयोग के व्यापक परिणाम सामने आएंगे. जापान और भारत के बीच तो हर स्तर पर सहयोग है ही. इस मिनीलेटरल सहयोग के पीछे एक बड़ी वजह है अमेरिका. कोविड-19 और गिरती अर्थव्यवस्था की मार झेल रहे अमेरिका के लिये इंडो-पैसिफिक पर पूरा ध्यान देना मुश्किल होगा. और इस क्षेत्र की चुनौतियां आए दिन बढ़ती जा रही हैं. हालांकि बीते बहुत सालों में अमेरिका ने यह जिम्मेदारी  बखूबी निभाई लेकिन बराक ओबामा के कार्यकाल से ही यह लगने लगा था कि अमेरिका के पास खुद की और एशिया प्रशांत या मौजूदा इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के बाहर चलने वाली समस्याएं बहुत ज्यादा बढ़ चली हैं.

चीन बड़ा प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरा

अंतरराष्ट्रीय राजनीति के जानकार मानते हैं कि शीत युद्ध के बाद जब अमेरिका के पास विचारधारा और सैन्यशक्ति के स्तर पर कोई मुकाबले का विरोधी नहीं रह गया तब उसने दुनिया को अपने ढंग से बदलने की तरफ काम करना शुरू कर दिया. लेकिन दुनिया को बदल देना इतना आसान नहीं. बीसवीं सदी का अंत आते आते अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद और इस्लामिक चरमपंथ ने पूरी दुनिया पर अपना जाल बिछा लिया और 2001 में अमेरिका खुद इसका निशाना बन गया. दुनिया के देशों में पहले हुई आतंकवाद की घटनाओं को समुदायों के 'आत्मनिर्णय' की संज्ञा देने वाले अमेरिका को पता चला कि आतंकवाद कितना खतरनाक है. 2001 में अफगानिस्तान से शुरू हुए सिलसिले ने अमेरिका को अब तक पूरी तरह नहीं छोड़ा है. नतीजतन, हालात ऐसे बन गए हैं कि अमेरिका चाहकर भी उस क्षेत्र से बाहर नहीं निकल सकता.

चीन पर सख्त रुख अपनाएंगे बाइडेन

और जब अमेरिका अफगानिस्तान और पश्चिम एशिया में उलझा हुआ था तो चीन प्रशांत और हिंद महासागर के इलाके में अपनी ताकत बेतहाशा बढ़ाने में लगा था. चीन ने दक्षिण चीन सागर में अपना कब्जा भी बढाया और इलाके में कृत्रिम द्वीप भी बनाए. फिलीपींस और चीन के बीच झगड़ा हो या वियतनाम चीन के बीच, या फिर इंडोनेशिया के साथ चीन की तकरार, हर बार अमेरिका की कमी महसूस की गयी. दक्षिणपूर्व एशिया और पूर्व एशिया के देशों को लगा कि अगर अमेरिका उन पर और चीन की कारगुजारियों पर ज्यादा ध्यान देता तो अच्छा होता. बराक ओबामा ने भले ही अपने कार्यकाल में एशिया प्रशांत को अपनी विदेश नीति का मुद्दा बनाया, डॉनल्ड ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका ने चीन पर पैनी नजर रखने की शुरुआत की.

अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों तक उनकी सरकार ने चीन पर दबाव बनाए रखा. लेकिन ओबामा और ट्रंप  दोनों के ही कार्यकाल में जोर इस बात पर था कि एशियाई देश अपनी सैन्य और सामरिक जरूरतों को खुद पूरा करें. अमेरिका ने इसकी वजह से भारत की एक्ट ईस्ट नीति और इंडो-पैसिफिक में उसके लिए बड़ी भूमिका का बढ़ चढ़कर समर्थन ही  नहीं किया बल्कि खासा योगदान भी दिया. ट्रंप प्रशासन के हाल ही में लीक हुए  इंडो-पैसिफिक से जुड़े खुफिया दस्तावेजों से भी यही बात पुष्ट होती है.

भारत, जापान और फ्रांस के बीच अगर एक मिनीलेटरल सहयोग का दौर स्थापित होता है तो सामरिक दृष्टि से यह बेशक एक अच्छा और शायद कारगर कदम होगा. फ्रांस और जापान के साथ आर्थिक मोर्चे पर भी शायद भारत को कुछ और फायदा हो. कुल मिला कर देखें तो यह साफ है कि भारत और फ्रांस त्रिकोणीय   सहयोग को संबंधों में मजबूती लाने का बड़ा जरिया मानते हैं. भारत, ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस के बीच सितंबर 2020 में पहली विदेश सचिव स्तरीय वार्ता हुई थी जिसे हर साल आयोजित करने का निर्णय लिया जा चुका है. भारत, जापान और फ्रांस के बीच त्रिकोणीय सहयोग भी उसी रास्ते जाएगा. पारस्परिक सहयोग की ऐसे पहलकदमियां चीन को इलाके में थोड़ा अलग थलग कर सकती हैं और उसे नियमबद्ध आचरण करने को मजबूर कर सकती हैं.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)

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