इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर नियंत्रण की तैयारी
३० अक्टूबर २०११जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने मांग की है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की निगरानी में लाया जाए. प्रेस काउंसिल को ज्यादा अधिकार दिए जाएं. टेलीविजन चैनल सीएनएन-आईबीएन के एक कार्यक्रम में काटजू ने कहा, "मैंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा है और कहा है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को प्रेस काउंसिल के अंतर्गत लाया जाए और इसे मीडिया काउंसिल कहा जाए. हमें और अधिकार दिए जाएं. इन अधिकारों को इस्तेमाल अत्यंत कठिन परिस्थितियों में किया जाएगा."
प्रधानमंत्री ने चिट्ठी का जवाब दिया है और कहा है कि "इस संबंध में विचार किया जा रहा है." सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस इस मुद्दे पर विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज से भी मिल चुके हैं. सुषमा भी जस्टिस काटजू से सहमत हैं.
मीडिया पर बरसे
बीते कुछ सालों में भारत के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की छवि बेहद खराब हुई है. जस्टिस काटजू कहते हैं, "उन्हें (मीडिया) लोगों के हितों के लिए काम करना चाहिए. लेकिन वे लोगों के हितों के लिए काम नहीं कर रहे हैं. कई बार वे लोगों के हितों के खिलाफ काम करते हैं. 80 फीसदी जनता गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई जैसी तकलीफों से जूझ रही है. लेकिन मीडिया लोगों का ध्यान इन चीजों से हटाता है. आप (मीडिया) फिल्म स्टार और फैशन परेडों को ऐसे दिखाते हैं जैसे यही लोगों की दिक्कत है."
नियंत्रण के सवाल पर उन्होंने तुलसीदास की एक सूक्ति "भय बिन प्रीत न होत गुसाईँ" कही. कहा कि डर के बिना प्रेम नहीं होता है. प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष के मुताबिक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के भीतर जवाबदेही का डर बैठाना जरूरी हो गया है. वह कहते हैं, "क्रिकेट समाज के लिए अफीम की तरह है. रोमन शासक यह कहा करते थे कि अगर आप लोगों को रोटी नहीं दे सकते तो उन्हें सर्कस दिखाएं. भारत में भी यही है कि अगर आप लोगों को रोटी नहीं दे सकते तो उन्हें क्रिकेट दिखा दें."
कैसे हो नियंत्रण
मशहूर पत्रकार करण थापर ने जब पूछा कि प्रेस काउंसिल किस तरह के अधिकार चाहती है, तो काटजू ने कहा, "मैं यह ताकत चाहता हूं कि सरकारी विज्ञापन बंद हो जाएं. मैं चाहता हूं कि अगर कोई मीडिया बेहद निंदनीय व्यवहार करता है तो कुछ समय के लिए उसका लाइसेंस निलंबित कर दिया जाए, उस पर जुर्माना लगाया जाए. लोकतंत्र में हर कोई जवाबदेह है. आजादी के साथ कुछ तर्कसंगत पाबंदियां भी होती हैं. मैं भी जवाबदेह हूं और आप भी जवाबदेह हैं. लोगों के प्रति हमारी जवाबदेही है." हालांकि उन्होंने कहा कि चरम परिस्थितियों में ही ऐसे कड़े कदम उठाए जाने चाहिए.
समाचार या तमाशा
न्यूज चैनलों में छिड़ने वाली बहस पर भी काटजू ने असंतोष जताया. उन्होंने कहा कि मेहमानों में कोई अनुशासन नहीं दिखाई पड़ता है, "यह कोई चीखने की प्रतियोगिता नहीं है."
उन्होंने मीडिया पर कभी कभी राष्ट्रहित के खिलाफ काम करने के आरोप भी लगाए. बम धमाकों का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, "आप ईमेल या एसएमएस देखते हैं, यह कोई भी शरारती व्यक्ति भेज सकता है. लेकिन उसे टीवी पर दिखा कर आप इस तरह का संदेश देते हैं जैसे सभी मुसलमान आतंकवादी और बम फेंकने वाले हैं. मुझे लगता है कि जानबूझकर की जाने वाली ऐसी हरकतों से मीडिया लोगों को धर्म के आधार पर बांटता है, यह पूरी तरह राष्ट्रहित के खिलाफ है."
भारत में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की शुरुआत 1990 के दशक में हुई. पहले आधे घंटे का न्यूज बुलेटिन आया करता था. बाद में 24 घंटे के कुछ न्यूज चैनल आए. उस दौर को एक संचार क्रांति की तरह देखा गया. लोगों के मीडिया की सराहना की. लेकिन 2004-2005 तक तस्वीर बदल गई. सात-आठ की जगह दर्जनों न्यूज चैनल बाजार में आ गए. विज्ञापन पाने की होड़ ऐसी छिड़ी की खबरों के नाम पर चूहा, बिल्ली, भूत, प्रेत, क्रिकेट, अपराध, सिनेमा और अटपटी चीजें सुबह से देर रात तक चलने लगीं. गंभीर खबरों में भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर जल्दबाजी और गैर पेशेवर ढंग से काम करने के आरोप लगते गए.
रिपोर्ट: पीटीआई/ओ सिंह
संपादन: वी कुमार