कठिन चुनौतियां हैं सांग्ये के सामने: जर्मन मीडिया
१२ अगस्त २०११चीन अब तक इस बात पर अड़ा हुआ है कि तिब्बत चीन का हिस्सा है और वह पड़ोसी भारत में बसी निर्वासन सरकार को भी स्वीकार नहीं करता है. म्यूनिख के दैनिक ज्यूड डॉयचे साइटुंग ने लिखा है
सांग्ये ने आज तक उस इलाके को कभी नहीं देखा है जिसकी आजादी के लिए वह संघर्ष कर रहे हैं. चीन सरकार ने उन्हें कई साल पहले तिब्बत की यात्रा करने की अनुमति नहीं दी थी. न्यायविद् सांग्ये तिब्बती शरणार्थियों के बेटे हैं और वे भारत में पैदा हुए हैं. सांग्ये के बारे में कहा जाता है कि वे बहुत मेहनती और महत्वाकांक्षी हैं. हार्वर्ड में पढाई करने के दौरान ही उन्होंने चीनी विशेषज्ञों के साथ संवाद कायम करने की कोशिश की थी. इसे उनके राजनैतिक करियर के लिए टेस्ट माना जा सकता है, जहां उनकी सौदेबाज़ी करने की क्षमता की जरूरत होगी. वैसे वह तिब्बती प्रधानमंत्री के तौर पर एक ऐसी सरकार के मुखिया हैं जिसे दुनियाभर में बहुत सहानुभूति मिलती है, लेकिन जिसे दुनिया के किसी भी देश ने मान्यता नहीं दी है.
43 साल के सांग्ये के सामने कई कठिन चुनौतियां हैं. यह मानना है ज्यूरिष के प्रकाशित नॉय ज्यूरिषर साइटुंग का.
चीन की सरकार के प्रति उन्हें ऐसा रवैया अपनाना होगा, जो इतना सख्त हो कि चीन का ये सपना टूट जाए कि दलाई लामा की मृत्यु के बाद निर्वासन में रह रहे तिब्बतियों का आंदोलन खत्म हो जाएगा. साथ ही सांग्ये को इस बात का भी खयाल रखना होगा कि 1959 से तिब्बती नेतृत्व को शरण देने वाला मेज़बान भारत नाराज न हो. भारत सरकार सांग्ये को शक की नज़र से देख रही है. हालांकि भारत के चीन के साथ खुद कई अनसुलझे विवाद हैं, लेकिन वह फिर भी निर्वासन में रह रहे तिब्बतियों की खुली आक्रामक नीतियों की वजह से चीन के साथ अपने रिश्तों को दांव पर नहीं लगाएगा.
बर्लिन के दैनिक टागेसश्पीगल ने अपने लेख में इस बात की विवेचना की है कि दलाई लामा लगभग 60 साल तक तिबब्तियों के अध्यात्मिक और राजनीतिक नेता रहे हैं.
चार सौ साल से बौद्ध भिक्षु तिब्बतियों पर राज कर रहे थे. और दलाई लामा को अपनी जनता पर लोकतंत्र लगभग जबर्दस्ती थोपना पड़ा. बहुत सारे तिब्बती तेंजीन ग्यात्शो को, जिनके साथ वे 1959 में चीनी हमले के बाद निर्वासन में चले गए, एक अविवादित ह्स्ती के रूप में देखते हैं. इसलिए भी कि किसी और ने तिब्बत के मुद्दे को विश्व भर में प्रचार और सहानुभूति दिलाई है जितना अपनी दिव्य मुस्कान के लिए प्रसिद्ध भिक्षु ने. लेकिन दलाई लामा भविष्य के लिए आधार बनाना चाहते हैं. अपनी मृत्यु के बाद सत्ता से संबंधित विवाद से तिब्बतियों को बचाने के लिए उन्होंने बौद्धिक और राजनीतिक सत्ता को बांटने पर जोर दिया.
बहुत से लोग ऐतिहासिक बदलाव की बात कर रहे हैं, कहना है बर्लिन से प्रकाशित समाजवादी दैनिक नॉयस डॉयचलैंड का. अखबार लिखता है कि न्यायविद् लोबसे सांग्ये के तिब्बतियों का प्रधानमंत्री बनने के साथ पीढ़ीगत बदलाव हुआ है.
यह सच है कि सांग्ये के पहले प्रधानमंत्री रहे सामदोंग रिंपोचे करीब 30 साल बडे थे और हमेशा दलाई लामा के साए में रहे. लेकिन दलाई लामा अब अपनी राजनीतिक सत्ता सांग्ये को सौंप देना चाहते हैं. हालांकि दलाई लामा का राजनीतिक असर उनके धार्मिक ओहदे के साथ जुड़ा हुआ था. ऐसे किसी धार्मिक पद के बिना सांग्ये के लिए राजनैतिक संवाद में साझेदार के रूप में स्वीकार किए जाने में मुश्किल होगी.
और अब कुछ अन्य खबरें. गुजरात की सरकार 2002 में हुए दंगों की जांच के सबसे महत्वपूर्ण गवाह के खिलाफ कारवाई कर रही है. नॉय ज्यूरिषर साइटुंग लिखता है कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट को मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी पर उंगली उठाने के कारण उनके पद से हटा दिया गया है.
नए खुलासे मोदी सरकार के लिए गलत वक्त पर आ रहे हैं. वह इस समय गुजरात को विदेशी निवेशकों के लिए आधुनिक जगह के रूप में पेश करने की कोशिश में लगी है. यह सच है कि गुजरात उफान पर है. गुजरात में भारत की 5 प्रतिशत आबादी 22 प्रतिशत निर्यात का उत्पादन कर रही हैं. प्रदेश में विकास दर 11 प्रतिशत है जो भारतीय औसत से ऊपर है. भारत की कुख्यात धीमी नौकरशाही को गुजरात में कई साल पहले ही चुस्त बना दिया गया था. बहुत से गुजरातियों का मानना है कि यह सब मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी की सफलता है. लेकिन अब उन पर अपने ही काले अतीत का साया मंडरा रहा है.
पिछले दिनों पाकिस्तान और भारत के विदेश मंत्री नई दिल्ली में मिले. प्रसिद्ध जर्मन दैनिक फ्रांकफुर्टर अलगेमाइने साइटुंग ने लिखा है कि जब पाकिस्तान की नई खूबसूरत विदेश मंत्री हिना रब्बानी खर भारत के विदेश मंत्री एस एम कृष्णा को देखकर मुसकराई और उन्होंने भी उसका मुस्कुरा कर जवाब दिया, तब बहुत से लोग कुछ क्षणों के लिए ख्वाब देखने लगे. लेकिन पाकिस्तान और भारत के बीच विवादों पर कोई बदलाव नहीं देखा जा सका है.
दोनों देशों में एक जैसे हितों और मूल रूप से एक ही जैसे किरदारों का बोलबाला है. दिल्ली पड़ोसी देश के विकास पर चिंतित है जिसकी 16 करोड़ की मुस्लिम आबादी दिन ब दिन उग्र होती जा रही है. इसी तरह इस्लामाबाद में सरकार सोचती है कि भारत एक ऐसा पड़ोसी है जो सिर्फ पाकिस्तान को व्यवस्थित रूप से अस्थिर बनाना चाहता है. लेकिन पाकिस्तान, कूटनीति की भाषा में कहें तो समस्या का स्रोत है, उसका हल नहीं. अब वॉशिंग्टन में भी यही माना जा रहा है. इस बीच भारत का मानना है कि उसे जल्द ही इलाके का बोझ उठाना पडेगा, एक ऐसा इलाका जो ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद और शांत नहीं हो गया है. ऐसे में खुले टकराव से कोई लाभ नहीं है. इसलिए भारत कोशिश करेगा कि वह पाकिस्तान के पतन को इस तरह बदले कि वह तुरंत बडा खतरा न बन जाए. ऐसे में कृष्णा की मुस्कुराहट एक छोटी सी शुरूआत है.
भारत में नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे अण्णा हजारे कई महीनों से भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए लोकपाल बनाने की मांग कर रहे हैं. एक ऐसी संस्था जो भ्रष्टाचार पर रोक लगाए, जहां नागरिक शिकायत कर पाएं और जो दोषियों को कटघरे में खडा कर पाए. गांधीजी की राह पर चलते हुए हजारे ने अप्रैल में आमरण अनशन शुरू किया. समाजवादी अखबार नॉयस डॉयचलैंड लिखता है कि फिर भी लोकपाल विधेयक पर सहमति नहीं बन पाई है.
भारत सरकार मौजूदा कम प्रभावी नियमों में संशोधन भर करना चाहती थी, ताकि असंतोष को थोड़ा शांत किया जा सके. लेकिन हजारे एक स्वतंत्र संस्था चाहते हैं जो भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंके. उनकी बहुत सी मांगों को समर्थन मिला. मसलन लोकपाल के दायके में प्रधानमंत्री और सर्वोच्च न्यायाधीशों को भी शामिल किया जाना चाहिए. लेकिन भारत सरकार ने घोषणा की कि वह हजारे के प्रस्ताव की अनदेखी कर सिर्फ अपना प्रस्ताव संसद में पेश करेगी. उसके बाद उन्होंने 16 अगस्त से, यानी भारत के स्वतंत्रता दिवस के ठीक 24 घंटे बाद, अपने समर्थकों के साथ फिर भूख हड़ताल शुरू करने की घोषणा की. भ्रष्टाचार का मुद्दा भारत में अभी और सुर्खियों में बना रहेगा.
संकलनः प्रिया एसेलबॉर्न
संपादनः महेश झा