किताबी दुनिया में फिल्मी देश
१० अक्टूबर २०१२फिल्म जगत के सबसे अहम फेस्टिवल में गोल्डन पाल्म से नवाजी जाने वाली वह इकलौती महिला निर्देशक हैं: जेन कैम्पियन. 1993 में उन्हें कान में फिल्म 'द पियानो' के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार दिया गया. फिल्म एक गूंगी महिला की कहानी है जो स्कॉटलैंड से अपने घर न्यूजीलैंड लौटी है. एडम मैक ग्रा नाम की इस महिला की शादी ब्रिटेन के एक व्यक्ति से होती है जिस से वह नफरत करती है. अपनी उदासी और गुस्सा वह पियानो बजा कर जाहिर करती है. फिल्म ने फेस्टिवल में दर्शकों का दिल जीत लिया. ऐसा लगा जैसे एक नए तरह के निर्देशक का जन्म हुआ हो और उसके साथ ही फिल्मों से जुड़े एक नए राष्ट्र का भी. अचानक ही सबका ध्यान न्यूजीलैंड की ओर चला गया.
लेकिन इस से पहले भी जेन कैम्पियन कई प्रभावशाली फिल्में बना चुकी थीं. सात साल पहले ही उन्हें कान में गोल्डन पाल्म से नवाजा जा चुका था. कैम्पियन को बेस्ट डेब्यू यानी नई प्रतिभा के लिए पुरस्कार दिया गया. फिल्मों के जानकारों ने 1990 के दशक की शुरुआत से ही कहना शुरू कर दिया था कि न्यूजीलैंड भले ही फिल्मों के मैदान में नया खिलाड़ी हो, लेकिन बेहद कम समय में ही वहां बेहतरीन फिल्में बननी शुरू हो गयीं. कैम्पियन की पियानो ने कई ऐसे विषयों को उजागर किया जो पहले भी न्यूजीलैंड के सिनेमा में एक बड़ी भूमिका निभाते रहे हैं: पूर्व साम्राज्यवादी देश ब्रिटेन के साथ न्यूजीलैंड का संघर्ष, प्रकृति और मानव का रिश्ता और माओरी समुदाय की भूमिका. माओरी समुदाय न्यूजीलैंड द्वीप पर सबसे पहले आने वाला एक समुदाय है.
ऐसे हुई शुरुआत
1977 की फिल्म 'स्लीपिंग डॉग्स' भी ब्रिटेन और न्यूजीलैंड के आपसी संघर्ष पर आधारित थी. यह निर्देशक रॉजर डोनाल्डसन की पहली फिल्म थी. 15 साल बाद देश में कोई बड़ी फिल्म बनी. साथ ही यह न्यूजीलैंड की पहली ऐसी फिल्म थी जिसे अमेरिकी बाजार में भी जगह मिली. इसके बाद से ही देश में फिल्म इंडस्ट्री का विस्तार हुआ और न्यूजीलैंड को सिनेमा से जोड़ कर देखा जाने लगा.
उस समय लोग यह भूल गए कि 1950 के दशक में ही जॉन ओ शीड अपनी फिल्मों से इतिहास रच चुके थे. अजीब बात यह है कि उनकी फिल्मों के बाद भी देश में कमर्शल फिल्म बनाने का चलन नहीं आया. बल्कि अगला पूरा दशक देश की हरियाले को दिखाने वाली डॉक्यूमेंट्री फिल्में ही बनती रही. इन फिल्मों में एक ऐसा न्यूजीलैंड देखने को मिलता था जो बेहद शांत है और बहुत खूबसूरत. लेकिन 1977 में डोनाल्डसन भावनाओं की झड़ी लगा दी. ऐसा लगा जैसे इस शांत खूबसूरती की ऊपरी परत के नीचे भावनाओं का एक बवंडर दबा हुआ है.
मशहूर नाम
इसके बाद 1944 में पीटर जैक्सन की फिल्म 'हेवनली क्रीचर्स' ने दुनिया के सामने एक ऐसी कहानी प्रस्तुत की जो वास्तविक भी थी और चौका देने वाली भी. फिल्म दो जवान लड़कियों की कहानी है जो कातिल बन जाती हैं. इस फिल्म ने जैक्सन का करियर बदल कर रख दिया. फिर उनके साथी जैफ मर्फी माओरी समुदाय पर फिल्में बनाने लगे. इतना ही नहीं उन्होंने साइन्स फिक्शन में भी अपना हाथ आजमाया. मर्फी 1980 के दशक में बनाई गयी फिल्म 'गुडबाय पोर्क पाय' के लिए जाने जाते हैं. विन्सेंट वार्ड और ली तामाहोरी जैसे नाम भी इस सूची में जुड़ गए.
फिर क्या था, अमेरिका को समझ आया कि दुनिया के उस कोने में प्रतिभा की भरमार है. एक एक कर के निर्देशकों को अमेरिका आने के आमंत्रण मिलने लगे और हॉलीवुड के बड़े कलाकार इनके साथ काम करने के मौके तलाशने लगे. डोनाल्डसन ने मेल गिब्सन के साथ 'द बाउन्टी' बनाई तो टॉम क्रूज के साथ 'कॉकटेल'. विन्सेंट वार्ड ने फिल्म 'एलियन' का तीसरा भाग बनाया और तामाहोरी ने एक जेम्स बांड फिल्म के साथ अपना नाम जोड़ लिया.
सबसे बड़ी सफलता रही पीटर जैक्सन की, जिन्होंने 'लॉर्ड ऑफ द रिंग्स' के तीनों भागों बनाए. इसके अलावा उन्होंने 'किंगकांग' भी दोबारा फिल्माई. फिलहाल वह फिल्म श्रृंखला 'हॉबिट' पर काम कर रहे हैं. जैक्सन ही बड़े बजट वाली हॉलीवुड फिल्मों को न्यूजीलैंड ले कर आए. आज की तारीख में न्यूजीलैंड फिल्मों से काफी मुनाफा कमा रहा है और स्टीवन स्पीलबर्ग और जेम्स कैमरन जैसे बड़े नामों को अपनी ओर खींच रहा है.
फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेले में इस साल न्यूजीलैंड अतिथि देश है. मेले में न्यूजीलैंड की किताबों के अलावा फिल्में भी देखी जा सकती हैं. साथ ही अगले साल अगस्त में बर्लिन में न्यूजीलैंड की फिल्मों की एक श्रृंखला शुरू हो रही है. 'सिनेमा स्टोरी टेलिंग फ्रॉम न्यूजीलैंड' के नाम से कई दिलचस्प फिल्में दिखाई जाएंगी.
रिपोर्ट: जॉखन क्यूर्टन/ईशा भाटिया
संपादन: आभा मोंढे