क्या ओलंपिक का बहिष्कार सही कदम होगा
३ जनवरी २०१२भारत के लिए लंदन खेलों का दोहरा महत्व है. लंदन ही वो शहर है जहां 1948 में पहली बार भारत ने एक स्वतंत्र देश के रूप में ओलंपिक में हिस्सा लिया और हॉकी में गोल्ड मेडल जीता. भले ही इस बार कोई गोल्ड मेडल आता न भी दिखे लेकिन एक विवादास्पद कारण से तो लंदन खेल भारत में चर्चा का विषय है ही. विवाद है उस प्लास्टिक जैसी दिखने वाली पारदर्शी चादर का जिसे लंदन के मुख्य स्टेडियम की दीवारों पर लपेटा गया है. इस पारदर्शी चादर को बनाने और उसे स्टेडियम पर लगाने का ज़िम्मा दिया गया डाऊ केमिकल नाम को जो अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ की एक बड़ी स्पांसर है. लेकिन डाऊ ही वह कंपनी है जिसने भोपाल गैस कांड की ज़िम्मेदार यूनियन कार्बाइड कंपनी की ख़रीदा था. इसी वजह से भोपाल गैस पीड़ितों और कई दूसरे खेमों से मांग हो रही है कि भारत लंदन ओलंपिक में हिस्सा न ले.
हालांकि भारतीय ओलंपिक संघ ने बॉयकाट की बात तो नहीं की है लेकिन अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ को चिट्टी लिख कर यह जरूर कह दिया कि डाऊ केमिकल की स्पांसरशिप वापस ली जाए. इस बीच डाऊ ने घोषणा की कि स्टेडियम के दीवारों पर झिल्लीनुमा पर्दा तो रहेगा लेकिन उस पर डाऊ केमिकल के बोर्ड नहीं लगेंगे. कुछ पूर्व खिलाडियों ने भी भारतीय ओलंपिक संघ से लंदन खेलों के बहिष्कार की बात की है जिसमे पूर्व हॉकी ओलंपियन असलम शेर खान प्रमुख हैं.
कोई फायदा नहीं
लेकिन मज़े की बात यह है की दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलो के हीरो और लंदन में पदक के मज़बूत दावेदार निशानेबाज़ गगन नारंग ने कहा है की बॉयकाट से फायदा नहीं है और भारतीय खिलाडियों को लंदन में हिस्सा लेना चाहिए.
सवाल है कि क्या खेलों का बहिष्कार जायज है. क्या उन खिलाड़ियों के लिए नहीं सोचना होगा जो सालों मेहनत करते हैं सिर्फ 10 सेकंड में 100 मीटर भागने के लिए या फिर उस मेडल और प्रसिद्धि के लिए, जो उन्हें शायद सिर्फ एक गोल दागने से ही मिले? वैसे भी अगर भारत बायकॉट करे भी तो भोपाल गैस पीडतों को मुआवज़ा नहीं मिलेगा. इसमें कोई शक नहीं कि जो भोपाल में हुआ वह बहुत ही दर्दनाक था और सबको पीड़ितों से सहानुभूति है.
वैसे भी डाऊ केमिकल अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ को स्पांसरशिप के रूप में मोटी रकम देता है जिसका बड़ा हिस्सा दुनिया के सब देशों के राष्ट्रीय ओलंपिक संघों में जाता है. शायद अच्छा यह होगा की भारतीय ओलंपिक संघ अपने हिस्से की राशि भोपाल गैस पीड़ितों को देना शुरू कर दे.
पहले भी हुआ बहिष्कार
ऐसा नहीं कि पहले कभी ओलंपिक खेलों का बहिष्कार नहीं हुआ. 1956 में मेलबर्न ओलंपिक में कुछ देशों ने आने से मना किया और फिर 1980 और 1984 में बहिष्कार ने ओलंपिक भावना को गहरा धक्का पहुंचाया. लेकिन इसमें नुकसान खिलाडियों का ही हुआ. खेलों का बायकॉट सांकेतिक होता है, ताकि विश्व का ध्यान आकर्षित किया जा सके. तो फिर कुछ ऐसा क्यों न किया जाए जिससे दुनिया की निगाहें तो आकर्षित हों लेकिन खिलाड़ी भी खेलों से वंचित न रहें.
1968 के मेक्सिको ओलंपिक में अमेरिका के कुछ अश्वेत एथलीटों ने ऐसा ही किया था. अमेरिका में उस समय के रंग भेद नीति के खिलाफ दुनिया का ध्यान खींचने के लिए एथलीट टॉमी स्मिथ और जॉन कार्लोस ने विक्टरी स्टैंड पर पदक लेते समय अमेरिकी झंडे को सलाम करते हुए अपनी मुट्ठी में काले मोज़े पहन लिए. उनका संदेश पूरी दुनिया में पहुंचा. क्या भारत भी ऐसा कुछ कर सकता है. कुछ लोगों का मानना है कि अगर भारत कुछ दिन पहले हुई इंग्लैंड क्रिकेट सीरीज का बहिष्कार करता तो शायद लंदन ओलंपिक के आयोजकों को इस मामले में सोचना पड़ सकता था.
रिपोर्टः नॉरिस प्रीतम, दिल्ली
संपादनः ए जमाल