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क्या स्वतंत्रता दिवस पर भारत उदास है?

१५ अगस्त २०११

एक अनाम ट्विटर अकाउंट है फेकिंगन्यूज. यहां खबरों और घटनाओं पर चुटीली टिप्पणियां आती रहती हैं. कल एक टिप्पणी थी, "कपिल सिब्बल ने अन्ना हजारे को एक एसएमएस जोक भेजा. जोक था – हैपी इंडीपेंडेंस डे."

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तस्वीर: AP

यह सिर्फ मजाक की बात नहीं है. भारत आज अपना 65वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है. यह उसके लोगों के लिए खुशी और उत्साह का मौका होना चाहिए. लेकिन ऐसा है क्या? काला धन. सरकारी घोटाले. भ्रष्टाचार. बाबा रामदेव के साथ जबर्दस्ती. अन्ना हजारे का आंदोलन. 16 अगस्त से दोबारा अनशन. और उस अनशन को लेकर सरकार का रवैया. ऐसा लगता है कि भारत की आजाद हवा में इस वक्त सिर्फ यही मुद्दे तैर रहे हैं. और इन मुद्दों से निकल रही है निराशा.

निराशा के सुर

यूं तो हर स्वतंत्रता दिवस पर यह बात कही जाती है कि अभी सच्ची आजादी नहीं मिली, लेकिन इस बार कई जगहों से बहुत ऊंचे सुर में नकारात्मक ध्वनियां सुनाई पड़ रही हैं. और ये ध्वनियां सीधे सीधे आम आदमी को प्रभावित कर रही हैं. उस आदमी को जिसका राजनीति से या राजनीतिक माहौल से कोई सीधा सीधा सरोकार आमतौर पर होता नहीं है. लेकिन इस बार उसकी ओर से आने वाली ध्वनि में राष्ट्रीय निराशा का स्वर है.

जया ब्लॉग्स पर जयती गोयल लिखती हैं, "देश की स्वतंत्रता की याद दिलाने वाला एक राष्ट्रीय पर्व. यह दिन है जश्न मनाने का, परस्पर बधाई देने का. परंतु ऐसा करते समय दिल के कोने में शंका जगती है. सवाल है कि परिस्थितियों की वास्तविकता किस संभावना की ओर संकेत करती है. जो देश ‘स्वतंत्रता' के माने भूल चुका हो, जहां स्वतंत्रता के अर्थ स्वच्छंदता, निरंकुशता, अनुशासनहीनता, उच्छृंखता, मनमर्जी और न जाने क्या-क्या लिया जाने लगा हो, वहां क्या और कितनी उम्मीद की जा सकती है?"

Indien Unabhängigkeitstag
तस्वीर: AP

एक अन्य ब्लॉगर रीतेश श्रीवास्तव अपने ब्लॉग क्रांतियां इंजन का काम करती हैं पर शीर्षक विश्वासघात के चौंसठ बरस के नीचे लिखते हैं, "इस वर्ष 15 अगस्त 2011 को कथित आजादी प्राप्त हुए चौंसठ बरस हो जाएंगे. एक जो सबसे बड़ा प्रश्न जेहन में उठता है वह यह है कि इन बरसों में भारत के लोगों को भारतीय शोषक शासक द्वारा क्या मिला, जो अंग्रेज नहीं दे सकते थे? मेरा मकसद यहां अंग्रेजों के शासन की वकालत करना कतई नहीं है. लेकिन यह जानने का हक जरूर है कि इन अंग्रेजों से सत्ता का हस्तांतरण करा लेने के पश्चात यहां के शोषक शासक वर्ग ने ऐसा क्या किया, जिससे हमें यह अहसास हो सके कि हम आजाद हैं."

अन्ना हजारे के साथ

अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ और जनलोकपाल बिल के समर्थन में अपने आंदोलन की शुरुआत के लिए 16 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस के ठीक बाद का दिन यूं ही नहीं चुना है. यह सच है कि लोग भ्रष्टाचार और महंगाई की बेड़ियों में खुद को आजाद महसूस ही नहीं कर पा रहे हैं. इसी बात की ओर संकेत करते हुए लेखक और फिल्म निर्माता प्रीतिश नंदी ने अपने ट्विटर पर लिखा है, "15 अगस्तः स्वतंत्रता दिवस. 16 अगस्तः भ्रष्टाचार से स्वतंत्रता दिवस."

BdT Indien Unabhängigkeitstag 15.08.2009
तस्वीर: AP

अन्ना हजारे के आंदोलन को अब सोशल नेटवर्किंग पर चलने वाला चंद शहरियों का आंदोलन कहकर खारिज नहीं किया जा सकता. छोटे छोटे शहरों और गांवों में निचले तबके के लोग भी इस बारे में बात करते हैं. वे जानते हैं कि भारत का अरबों रुपये का काला धन विदेशी बैंकों में पड़ा है और वे उसे वापस लाना चाहते हैं. अन्ना हजारे का आंदोलन उनके लिए सैकड़ों किलोमीटर दूर दिल्ली में चलने वाला कोई जलसा नहीं बल्कि उम्मीद की एक किरण है. हरियाणा के कैथल जिले में एक स्कूल में पढ़ाने वाले विजेंद्र अत्री कहते हैं, "इन नेताओं पर कोई भरोसा नहीं. इस देश को सच्ची आजादी अब अन्ना हजारे ही दिला सकते हैं."

असल में 15 अगस्त को भी लोगों को आटा, दाल और चीनी तो खरीदनी ही होती है. उनकी कीमतें उनकी जेबों को और मनों को परेशान करने लगी हैं. उस परेशानी में वे स्वतंत्रता दिवस का उत्साह महसूस ही नहीं कर पा रहे हैं. जनोक्ति पर डॉक्टर पुरुषोत्तम मीणा लिखते हैं, "15 अगस्त, 2011 को हम आजादी की 65वीं सालगिरह मनाने जा रहे हैं. लेकिन भारत में कौन कितना-कितना और किस-किस बात के लिए आजाद है? यह बात अब आम व्यक्ति भी समझने लगा है. इसके बावजूद हम बड़े फख्र से देशभर में आजादी का जश्न मनाते हैं. हर साल आजादी के जश्न पर करोड़ों रुपये फूंकते आए हैं. कांग्रेस द्वारा भारत के राष्ट्रपिता घोषित किए गए मोहन दास कर्मचन्द गांधी के नेतृत्व में हम हजारों लाखों अनाम शहीदों को नमन करते हैं और अंग्रेजों की दासता से मिली मुक्ति को याद करके खुश होते हैं. लेकिन देश की जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी बयां करती है."

करेला नीम चढ़ा इसलिए हो गया है क्योंकि लोगों को सरकार की तरफ से कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही है. प्रधानमंत्री के 15 अगस्त को लाल किले से होने वाले भाषण को लेकर भी लोग ज्यादा उत्साहित नहीं हैं. अपने ब्लॉग जनरल डब्बा में राजीव जैन लिखते हैं, "कल हम देश का 65वां स्वतंत्रता दिवस मनाएंगे. तब हम देश के प्रधानमंत्री से कैसे उम्मीद करें कि हमारे मूल अधिकारों कि रक्षा की जाएगी जो कि उनका दायित्व है. देश के प्रधानमंत्री होने के नाते उनसे उम्मीद की जाती है कि वह इन अधिकारों कि रक्षा करेंगे." अपने ट्विटिंग अकाउंट पर सिदिन वादुकुट चुटकी लेते हैं, "क्या स्वतंत्रता दिवस पर मनमोहन सिंह का भाषण जरूरी है? क्या इसमें कुछ लेनदेन नहीं हो सकता?"

Anna Hazare und Kiran Bedi
तस्वीर: UNI

सिर्फ जज्बाती बातें नहीं

इन सभी बातों को चंद जज्बाती लोगों के बयान कहकर हल्का किया जा सकता था, अगर देश के जानेमाने पत्रकार राजदीप सरदेसाई अपने ब्लॉग न्यूजमैन में यही बात न उठाते. उनके ब्लॉग की शुरुआत ही सारी स्थिति साफ कर देती है. वह लिखते हैं, "पत्रकार तो अपनी ट्रेनिंग से ही निराशावादी हो जाते हैं. वे हमेशा गिलास को आधा खाली देखते हैं. लेकिन अब यह निराशावाद सिर्फ पत्रकारों तक सीमित नहीं है. ऐसा लगता है कि पूरे देश में निराशा की एक लहर बह रही है क्योंकि सबको यह अहसास खाए जा रहा है कि हम भ्रष्ट और कुप्रशासित देश हैं जिसमें नई पीढ़ी के लिए कोई उम्मीद नहीं है. इसलिए जब हम 65वां स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं तो ऐसा लगता है कि हमारे पुरखों के सपने तेजी से दुस्वप्न में तब्दील होते जा रहे हैं."

हालांकि इसके बाद राजदीप ब्लॉग में लोगों के भीतर थोड़ी सी उम्मीद जगाने की कोशिश करते हैं. लेकिन लोग क्या सोच रहे हैं, इसका जवाब राजदीप देसाई एक ही एक ट्वीट से मिलता है. इस ट्वीट में उन्होंने अपने फॉलोअर्स को लिखा है, "यह स्वतंत्रता दिवस वीकेंड है दोस्तो. कुछ पॉजीटिव सोचो, नहीं तो हम निराशावाद के कुएं में डुबकियां लगाते रहेंगे."

रिपोर्टः विवेक कुमार

संपादनः ए कुमार

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