क्रांतिकारी रोजा के सौ साल
४ फ़रवरी २०१३बस में किसी गोरे व्यक्ति के लिए अपनी सीट न छोड़ने वाली रोजा ने अमेरिका में बरारबरी की लड़ाई का बिगुल बजाया. रोजा का जन्म 4 फरवरी 1913 को दक्षिण अमेरिकी प्रांत अलाबामा में हुआ था, जहां अश्वेत लोगों को बंदी बनाकर रखा जाता था और उनका लगातार शोषण किया जाता था.
क्रांति का बिगुल
रोजा अलाबामा में दर्जी का काम करती थीं. 1955 में एक दिन जब वह काम से घर जाने के लिए बस में सवार हुईं तो गोरों के लिए आरक्षित शुरुआती 10 सीटें छोड़कर पीछे एक सीट पर जाकर बैठ गईं. इस बीच बाकी सीटें भी भर गईं थीं और एक श्वेत आदमी के बस में चढने पर ड्राइवर ने रोजा से सीट छोड़ने को कहा. रोजा ने साफ इंकार कर दिया. यहीं से नागरिक अधिकारों की लड़ाई में रोजा ने कदम रख दिया. हालांकि रोजा पार्क्स को बस में हुई इस घटना के लिए दोषी करार दिया गया और उनसे 10 डॉलर का जुर्माना भी वसूला गया. ऊपर से उन्हें 4 डॉलर की कोर्ट की फीस अलग से देनी पड़ी.
लेकिन रोजा ने हिम्मत नहीं हारी और नस्ली भेदभाव से जुड़े इस कानून को चुनौती दी. लगभग एक साल तक उनके साथ दूसरे अश्वेत लोगों ने भी नगर निगम की बसों का वहिष्कार कर दिया. संघर्ष रंग लाई और 1956 में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि एफ्रो-अमेरिकी अश्वेत नागरिक नगर निगम के किसी भी बस में कहीं भी बैठ सकते हैं.
याद और सम्मान
रोजा पार्क्स की 92 वर्ष की आयु में सन 2005 में मृत्यु हो गई, लेकिन आज भी पूरे अमेरिका में उनके सम्मान में लोग उनकी जन्मतिथि मनाते हैं. रोजा की 100वीं जन्मतिथि पर अमेरिकी डाक सेवा ने उनकी याद में एक डाक टिकट जारी किया, जिस पर उनकी तस्वीर छपी है.
इस महीने राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल की शुरुआत के मौके पर उन्होंने घोषणा की थी कि रोजा की याद में राष्ट्रीय संग्रहालय में उनकी मूर्ति लगाई जाएगी. इस संग्रहालय में रोजा की मूर्ति किसी अश्वेत अफ्रीकी अमेरिकी महिला की पहली मूर्ति होगी.
ओबामा पिछले साल डेट्रॉयट के हेनरी फोर्ड म्यूजियम भी गए थे जहां वह बस भी है जिसकी सीट पर बैठ कर रोजा ने पहली बार नस्लभेद का विरोध किया था. वह उस सीट पर भी बैठे जिसपर लगभग 60 साल पहले रोजा बैठी थीं. तब राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा, "मैंने उस सीट पर बैठ कर उस साहस और शक्ति के बारे में सोचा जो हमने कुछ साल पहले देखी और जो हम बदलते समाज के साथ किसी न किसी रूप में देखते आए हैं. कई बार ऐसे लोगों का जिक्र इतिहास की किताबों में नहीं होता, लेकिन वे हममें से ही एक हैं और मौका पड़ने पर अपने मान सम्मान के लिए लड़े हैं."
रोजा पार्क्स ने नागरिक अधिकारों का जो आंदोलन छेड़ा था, उसका असर 1964 में सामने आया जब कांग्रेस ने सिविल राइट ऐक्ट पास किया. पार्क्स को 1996 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के कार्यकाल में प्रेसिडेंशियल मेडल आफ फ्रीडम से सम्मानित किया गया. 1997 में उन्हें अमेरिकी संसद का सबसे बड़ा सम्मान कांग्रेश्नल गोल्ड मेडल दिया गया.
बस वाली घटना के बाद कहा जाता है कि पार्क्स की नौकरी चली गई और उन्हें अपने पति के साथ शहर छोड़ कर डेट्रॉयट जाना पड़ा. उसके बाद नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले जॉन कॉन्यर ने उन्हें 1965 में अपने दफ्तर में नौकरी दे दी. रिटायरमेंट तक पार्क्स वहीं काम करती रहीं. आखिरी दिनों में पार्क्स को पैसों की तंगी भी झेलनी पड़ी, साथ ही उनकी याद्दाश्त भी काफी बिगड़ गई थी. 24 अक्तूबर 2005 को उनका देहांत हो गया. उनकी अंतिम विदाई में शामिल 50,000 लोगों में राष्ट्रपति जॉर्ज डब्लू बुश भी थे.
एसएफ/एमजे (डीपीए)