क्लिंसमन बने अमेरिका के कोच
२ अगस्त २०११अपने जमाने में आक्रामक खेल दिखाने वाले क्लिंसमन बेहद सख्त और जिद्दी कोच के तौर पर जाने जाते हैं, जिसे बदसलूकी और अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं है. वह जर्मन राष्ट्रीय टीम और जर्मनी की सबसे सफल फुटबॉल क्लब बायर्न म्यूनिख के कोच रह चुके हैं और दोनों ही जगह अपनी ट्रेनिंग और अपनी जिद का जलवा दिखा चुके हैं. हालांकि उनकी देख रेख में टीम हमेशा अच्छा प्रदर्शन करती है.
चीनी मूल की अमेरिकी पत्नी डेबी चिन की वजह से क्लिंसमन का अमेरिका से गहरा नाता है. वह पिछले 13 साल से कमोबेश वहीं रह रहे हैं. वह खुद भी कहते हैं, "मैंने 13 साल तक अमेरिका का अध्ययन किया है और समझता हूं कि यह एक बड़ी चुनौती है. कई तरह की अवधारणाएं हैं और युवा फुटबॉल से लेकर कॉलेज फुटबॉल तक का मॉडल दुनिया के दूसरे देशों से अलग है."
भारतीय की पसंद
क्लिंसमन को अमेरिकी कोच बनाने का फैसला एक भारतीय सुनील गुलाटी ने लिया. इलाहाबाद में जन्मे गुलाटी अमेरिकी सॉकर फेडरेशन के अध्यक्ष हैं और अमेरिकी फुटबॉल के सबसे ताकतवर इंसान समझे जाते हैं. उन्होंने दो साल पहले ही एलान किया है कि वह अमेरिका में फुटबॉल की काया कल्प करना चाहते हैं और 2018 या 2022 का विश्वकप भी अपने यहां कराना चाहते हैं.
पेशे से इकोनॉमिक्स के लेक्चरर गुलाटी ने वर्ल्ड बैंक में भी काम किया है और उन्हें एक बेहद कुशल प्रशासक माना जाता है. वह हमेशा से एक बड़े अंतरराष्ट्रीय नाम को अमेरिकी कोच बनाना चाहते थे, जिसका मौका उन्हें अब जाकर मिला. बीच में चर्चा नीदरलैंड्स के फ्रांक रिकयार्ड की भी चली थी. गुलाटी का कहना है, "वक्त आ गया है कि हम बड़ा बदलाव करें."
बेकरी से फुटबॉल
क्लिंसमन परिवार जर्मन शहर श्टुटगार्ट में फुटबॉल के लिए नहीं, केक के लिए जाना जाता था. युर्गेन क्लिंसमन के पिता की बेकरी आज भी श्टुटगार्ट में खूब चलती है. लेकिन युर्गेन ने छह साल की उम्र में ओवन की जगह फुटबॉल पर हाथ रखने का फैसला किया और 1981 से लेकर 1998 तक जर्मनी में हर स्तर पर फुटबॉल खेली. जर्मन राष्ट्रीय टीम के लिए वर्ल्ड कप जीता, कप्तान बने और श्टुटगार्ट, इंग्लैंड के टॉटेनहम के अलावा इंटर मिलान और बायर्न म्यूनिख के लिए भी खेले.
क्लिंसमन की कोचिंग का तरीका बिलकुल अलग है. वह किसी की दखल नहीं चाहते. 2004 में जर्मनी के राष्ट्रीय कोच बने और अचानक जूनियर खिलाड़ियों को ज्यादा महत्व दे बैठे. यहां तक कि 2006 वर्ल्ड कप में भी उन्होंने महान गोलकीपर ओलिवर कान को बेंच पर बिठा दिया और उनकी जगह येन्स लेमन से गोलकीपिंग कराने लगे. इस फैसले पर जर्मन मीडिया और दूसरे वरिष्ठ फुटबॉलर भड़क गए लेकिन क्लिंसमन ने कामयाबी दिलाई. टीम को तीसरे नंबर तक पहुंचा दिया. बाद में कोचिंग पद छोड़ दिया.
जिद्दी क्लिंसमन
वह भले ही एक जिद्दी कोच हों लेकिन खुद उन्होंने भी कभी कोच की परवाह नहीं की. 1997 में बुंडेसलीगा के एक मैच के दौरान जब बायर्न म्यूनिख के कोच जियोवानी त्रापातोनी ने उन्हें ग्राउंड से बाहर बुलाया, तो क्लिंसमन ने उन्हें भला बुरा कहना शुरू कर दिया और वहां रखे एक डिब्बे पर इतनी जोरदार ठोकर मारी कि उसमें छेद हो गया. क्लिंसमन उस वक्त जर्मन राष्ट्रीय टीम के कप्तान भी थे.
क्लिंसमन का नाम 2006 के वर्ल्ड कप के बाद भी अमेरिकी टीम से जुड़ा लेकिन तब बात नहीं बनी. उन्होंने इंग्लैंड की मशहूर टीम चेल्सी का कोच बनने से इनकार कर दिया और अमेरिका के कम मशहूर लॉस एंजिल्स गैलेक्सी के साथ जुड़ गए. उधर, अमेरिकी फुटबॉल ने क्लिंसमन की जगह अपने ही देश के बॉब ब्रॉडली को कोच बनाने का फैसला कर लिया. लेकिन क्लिंसमन और अमेरिकी फुटबॉल की एक साथ चर्चा चलती रही.
अमेरिकी फुटबॉल
यह शब्द रग्बी से मिलते जुलते खतरनाक और मशहूर अमेरिकी खेल के लिए है और फुटबॉल को सॉकर कहा जाता है. अमेरिका फुटबॉल की दुनिया का बहुत बड़ा नाम नहीं है और उसकी टीम औसत ही रही है. हालांकि 1994 में वर्ल्ड कप आयोजित करने के बाद उसकी पूछ बढ़ी है. पांच साल पहले तो वह विश्व वरीयता में चौथे नंबर पर पहुंच गया था लेकिन उपलब्धि के नाम पर विशालकाय और तकनीक संपन्न स्टेडियमों के अलावा चार बार का कोनकाकैफ कप ही है.
1950 से 1990 तक अमेरिकी फुटबॉल नेपथ्य में चला गया और वर्ल्ड कप तो दूर की बात, टीम ने बहुत कम अंतरराष्ट्रीय मैच भी खेले. लेकिन इटली में आयोजित 1990 वर्ल्ड कप के लिए क्वालीफाई करने के बाद इसका पुनर्जन्म हुआ. हालांकि टीम ने अपने तीनों मैच गंवा दिए लेकिन अगले साल से उसने इलाके में प्रमुख चैंपियनशिप जीतना शुरू कर दिया और चार साल बाद वर्ल्ड कप की मेजबानी के बाद तस्वीर बदल गई.
लगातार पांच बार के वर्ल्ड कप में शामिल होने के बाद अमेरिका की सबसे बड़ी चुनौती 2014 में ब्राजील में होने वाले वर्ल्ड कप तक पहुंच पाना है. कोच युर्गेन क्लिंसमन को किसी वर्ल्ड कप के बारे में सोचने से पहले औसत टीम को दुनिया की 32 बेहतरीन टीमों में शामिल करना है.
रिपोर्टः अनवर जे अशरफ
संपादनः महेश झा