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खदानों में दफन होते मानवाधिकार

१५ जून २०१२

भारत में प्राकृतिक संसाधनों की अंधाधुंध खुदाई सबसे फायदेमंद धंधा है.लौह अयस्क और कोयला के उत्पादन के मामले में भारत दुनिया में तीसरे नंबर पर है.

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तस्वीर: dapd

संसाधनों की प्रचुरता स्थानीय लोगों के लिए संपन्नता का कारण नहीं बन रही बल्कि उनमें और असंतोष पैदा कर रही है. जहां-जहां जमीन के नीचे खनिज पदार्थों की बहुतायत है जमीन के ऊपर वहां लोगों के दिलों में भारी गुस्सा है.

भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे समाजसेवी अन्ना हजारे ने हाल ही में कहा, ''मैंने कागजात देखे हैं. पहले मेरा मानना था कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ईमानदार हैं लेकिन अब मुझे शक हो रहा है...कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है. '' बयान में कितनी सचाई है ये जांच का विषय हो सकता है लेकिन जब देश के प्रधानमंत्री पद पर बैठे शख्स का नाम कोयला घोटाले में आने लगे तो समझा जा सकता है कि इनकी जड़ें कहां तक फैली हुई हैं. कहा जा रहा है कि हाल में उजागर हुआ कोयला घोटाला 1 लाख 76 हजार करोड़ के 2-जी घोटाले से दस गुना बड़ा है.

Abbau von Eisenerz in Goa Indien
गोवा में भी खदानों से विवादतस्वीर: Goa-Foundation/Claude Alvares

मानवाधिकार हनन

यूं तो कोयला और लौह अयस्क जैसे खनिजों की खुदाई और मानवाधिकार में सीधे तौर पर कोई संबंध नहीं दिखता. लेकिन आंकड़े और इतिहास इसके उलट गवाही देते हैं. कई ऐसे राज्य हैं जहां खनिजों की खुदाई के लिए सरकार ने कंपनियों के साथ करार (मेमोरंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग) कर लिया है लेकिन उस इलाके की जनता को भरोसे में नहीं लिया. नतीजा ये हुआ है कि विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं जिसे दबाने के लिए बल प्रयोग करना पड़ रहा है. ये हर दिन की बात है.

ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक, मीनाक्षी गांगुली कहती हैं, '' ये देखा गया है कि खनिज संसाधनों की खुदाई का मामला सीधे तौर पर मानवाधिकार के हनन से जुड़ा है. जो लोग अवैध खनन मे जुटे हैं सरकार को चाहिए कि वो उनके खिलाफ कानून लागू करे. कार्रवाई करे.''

इस समय भारत में, खासकर मध्य भारत में कई ऐसी खनिज परियोजनाएं हैं, जो विवादित है. मानवाधिकार हनन और पुलिस उत्पीड़न इन इलाकों में बेहद आम है. उडी़सा के जगतसिंहपुर जिले में लगने वाली पोस्को परियोजना सबसे बड़ी 54 हजार करोड़ की है. और पिछले 6 सालों से ज्यादा वक्त से पूरा होने के इंतजार में हैं. वजह है स्थानीय लोगों का प्रतिरोध.

पोस्को प्रतिरोध संघर्ष समिति के प्रवक्ता राजेश पाईकरे कहते हैं, ''इस परियोजना के लिए सरकार ने 4000 एकड़ से ज्यादा जमीन देने का करार किया था. इसके लिए 1 लाख पेड़ काटे गए और कंपनी को 1 करोड़ 20 लाख टन लौह अयस्क निकालने का अधिकार दिया गया था. हालांकि लोगों के विरोध के कारण ये लागू नहीं हो सका. 2010 में तो एमओयू भी समाप्त हो गया.''

Ureinwohner Adivasi Minderheit in Indien
आदिवासी सबसे ज्यादा परेशानतस्वीर: AP

बेहिसाब कमाई

साल 2010-11 में भारत के खनिज उद्योग को 29 अरब यूरो का आंका गया. ये पिछले साल के मुकाबले 2 प्रतिशत ज्यादा था. पूरे उद्योग में 1 करोड़ 10 लाख लोग काम में लगे हुए हैं. आंकडे बेहद सकारात्मक हैं लेकिन इनसे प्रभावित हुए आम लोगों की हालत उतनी ही खराब है. झारखंड जहां कि जमीन के नीचे खनिजों का अथाह भंडार है, भारत के सबसे गरीब राज्यों में से है. 2011 नवंबर में ये राज्य एक नन की हत्या की वजह से सुर्खियों में रहा. सिस्टर वालसा आदिवासियों को इकट्ठा कर उचित मुआवजे की मांग और मुआवजे के उचित बंटवारे की लड़ाई लड़ रही थीं. लेकिन खनिज माफियाओं को ये पसंद नहीं आया. और उनकी हत्या कर दी गई. ये एक बानगी भर है. इस हत्याकांड को मीडिया में जगह मिली. लेकिन मानवाधिकार हनन और उत्पीड़न के जाने कितने मामले हैं जो किसी लोकल अखबार की सिंगल कॉलम खबर में ही सिमट कर रह जाते हैं.

आदिवासियों का सवाल

भारत की आबादी का 8.6 प्रतिशत हिस्सा आदिवासियों से बना है. दुनिया के सबसे पिछड़े समुदाय में से एक भारत के आदिवासी ज्यादातर जंगलों में रहते हैं, उन इलाकों में जहां जमीन के नीचे खनिज भी बहुतायत पाए जाते हैं. अंधाधुंध खुदाई और प्राकृतिक संसाधनों से लाभ कमाने की कीमत सबसे ज्यादा इसी समुदाय को चुकानी पड़ी है. एक अनुमान के मुताबिक 40 फीसदी आदिवासियों को विस्थापित होना पड़ा है. अब तो उनकी पहचान और संस्क़ति भी संकट में है. मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा कहते हैं, ''मानवाधिकार हनन को संजीदगी से लेना होगा. समझना होगा कि ये लडा़ई किसलिए चल रही है. और निशाने पर कौन है. जल जंगल जमीन से जुड़े सवाल अहम हैं. सरकार इन इलाकों में रहने वाले आदिवासियों पर जबरन एक किस्म का विकास थोप रही है.'' ये महज संयोग नहीं हो सकता कि जिन इलाकों में माओवादी समस्या है वो सबसे पिछड़े इलाके हैं. खनिज के मामले में बेहद संपन्न लेकिन जहां के मूल निवासी बेहद गरीब हैं.

Abbau von Eisenerz in Goa Indien
प्राकृतिक संसाधनों से फायदा उठाती बड़ी कंपनियांतस्वीर: Goa-Foundation/Claude Alvares

कहां है भारत सरकार

भारत में पाई जाने वाली बेशकीमती खदानें कानून की हत्या के लिए सबसे मुफीद जगह है. सरकार को इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा दखल देने की जरूरत है लेकिन देखने में आया है कि कानून लागू करने वाली एजेंसियों का हस्तक्षेप यहीं सबसे कम है. मीनाक्षी गांगुली कहती हैं, '' जिन लोगों पर कानून लागू करने की जिम्मेदारी है वही इसमें लिप्त हैं. सरकार को इस बारे में दखल देना चाहिए और लोगों को कानून के दायरे में लाना चाहिए.'' कर्नाटक के रेड्डी बंधुओं का किस्सा भारत भर में जाना माना है. विपक्षी पार्टी, बीजेपी के ये दो विधायक बेल्लारी में खदानों के ठेकेदार हैं. पड़ोसी राज्य, आंध्रप्रदेश में भी इनका अच्छा खासा दखल है. रेड्डी बंधुओं की ओबुल्लापुरम नाम की कंपनी ने आंध्रप्रदेश की 40 एकड़ जमीन पर अवैध कब्जा कर लिया था. मकसद यहां भी खनन ही था. एक रिपोर्ट के मुताबिक रेड्डी बंधुओं के अवैध खनन की वजह से सरकारी खजाने को 480 करोड़ का चूना लगा था. रेड्डी बंधुओं के खिलाफ सिविल सोसायटी और न्यायिक सक्रियता की वजह से मुकदमा कायम हुआ वर्ना कानून एजेंसियां काफी लंबे वक्त तक टाल मटोल कर रही थीं. वजह राजनीतिक पहुंच थी. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में कानून राज की कमी को न्यायपालिका की सक्रियता ने काफी हद तक कम करने का प्रयास किया है.

पर्यावरण का सवाल

अगर भारत का खनिज उद्योग इतना बेलगाम है तो इसके पीछे एक वजह पर्यावरण संरक्षण के प्रति सरकार की लापरवाही और लोगों की जागरुकती की कमी है. भारत में कानून है लेकिन इन्हे लागू नहीं किया जाता. उदाहरण के लिए अनुसूचित जनजाति और जंगल अधिवासी एक्ट जैसे नियम हैं लेकिन लाल फीता शाही के दबाव में ये लागू नहीं हो पाते. आधिकारिक तौर पर पर्यावरण संरक्षण के बारे में बढ़ चढ़कर बातें की जाती हैं पर जमीनी स्तर पर काम न के बराबर होता है. योजना आयोग ने पिछले साल पर्यावरण की चुनौतियों से निपटने के लिए '12 रणनीतिक चुनौतियां' नाम से एक प्रस्ताव तैयार किया. इसमें ''विकास और दूसरे प्रयोग के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों की समझ, पुनर्वास और आजीविका पर एक राष्ट्रीय नीति'' की जरूरत पर बल दिया गया लेकिन परिणाम शून्य ही रहा.

Indien Frauen in Kohlenbergbau in Jharkhand
तस्वीर: AP

विकास को लेकर अभी सरकार अपनी रणनीति तय नहीं कर पाई है. 2007 का जमीन अधिग्रहण बिल अभी भी संसद में पेश होने का इंतजार कर रहा है. खनिज संसाधनों के विकास और नियंत्रण को लेकर तैयार किया गया एक बिल संसद की स्टैंडिंग कमेटी के पास ही पड़ा हुआ है. कहने को तो भारत में 1988 का जंगल संरक्षण कानून है, 1986 की राष्ट्रीय पर्यावरण संरक्षण नीति और 2006 का जंगल अधिकार कानून है. लेकिन लोगों के अधिकारों का हनन बदस्तूर जारी है.

गौतम कहते हैं, ''खोट सरकार की नीति में है. असमानता में है. भारत की 1 अरब 10 करोड़ की आबादी में से 100 परिवार ऐसे हैं जो देश की जीडीपी तय करते हैं. देश की 77 प्रतिशत के आसपास लोग हर दिन 20 रुपये से कम में अपना गुजारा करते हैं. ये बुनियादी न्याय का हनन नहीं तो और क्या है.'' ये गजब विरोधाभास है. इस तथ्य पर अफसोस भी प्रकट किया जा सकता है. लेकिन है सच. भारत की सबसे समृद्ध जमीन पर रहने वाले लोग आजादी के 64 साल बाद भी सबसे गरीब बने हुए हैं.

रिपोर्टः विश्वदीपक

संपादनः आभा मोंढे