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गुटेनबैर्ग मामलाः राजनीतिक परंपरा के लिए शर्मनाक

२५ फ़रवरी २०११

जर्मनी के रक्षा मंत्री कार्ल थियोडोर त्सु गुटेनबैर्ग पीएचडी थीसीस में गड़बड़ी के बावजूद अपने पद से हटने को तैयार नहीं हैं. डॉयचे वेले की बेटिना मार्क्स समीक्षा में कहती हैं कि उनका यह बर्ताव उचित नहीं है.

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तस्वीर: dapd

जर्मनी की राजनीतिक परंपरा के लिए यह शर्मनाक बात है कि कार्ल थियोडोर त्सु गुटेनबैर्ग अब भी रक्षा मंत्री के पद पर बने हुए हैं. एक मंत्री जिसका झूठ साबित हो चुका है, जिन्होंने धोखा दिया है, जिसने नकल कर के पीएचडी हासिल की है. यह लोकतांत्रिक देश के लिए बहुत ही शर्मनाक बात है कि संसद में पूरे दिन इस मुद्दे पर बहस होती है. यह भी बुरी बात यह है कि इन मंत्री को जर्मन चांसलर और सरकारी धड़ों से समर्थन है.

Deutschland Bundestag zu Plagiats-Affäre Karl-Theodor zu Guttenberg
तस्वीर: dapd

यह तो तय है कि कार्ल थियोडोर त्सु गुटेनबैर्ग ने झूठ बोला. उन्होंने दावा किया था कि उनकी पीएचडी थीसीस उन्होंने सात साल की मेहनत लगा कर खुद लिखी है. सभी आरोपों का उन्होंने खंडन किया. जब इस नकल को गलत साबित करना असंभव हो गया, जब इस मुद्दे पर एक एक बात सामने आई तब उन्होंने पीछे हटने के बारे में सोचा. अब वह डॉक्टर टाइटल का इस्तेमाल नहीं करेंगे. लेकिन विधि पढ़े हुए एक व्यक्ति के लिए यह किस तरह की बात है. आप इस तरह की पदवी को ऐसी ही वापस नहीं कर सकते हैं. और इस तरह से आरोपों की जांच भी नहीं रोकी जा सकती है. क्योंकि संभव है कि गुटेनबैर्ग यही चाहते थे. इस सफाई के साथ, जैसा कि गुटेनबैर्ग ने खुद कहा, डॉक्टर की पदवी छोड़ने के ‚दर्दभरे त्याग' से वह आक्रमणों को खत्म करना चाहते थे और खुद को सुशील दोषी के रूप में पेश करना चाहते थे.

लेकिन वह ऐसा करने में सफल नहीं हुए. विश्वविद्यालय ने नकल की शिकायतों वाली जगहों की जांच की और उनसे डॉक्टर की उपाधि वापस ले ली. जानबूझकर नकल करने के आरोपों पर प्रोफेसरों ने कोई सफाई नहीं दी है. लेकिन उनकी जांच का नतीजा ही काफी है. मंत्री अब नकल, झूठ, और तो और ढोंग के चोगे में पकड़े गए हैं. वह अब और लंबे समय पद पर नहीं बने रह सकते भले ही वह कितने भी मोहक हों और राजनीतिक जीवन में कितने भी प्रतिभाशाली हों. यहां लापरवाही या भूले हुए कोटेशन या फुटनोट की बात नहीं है बल्कि बात है जानबूझकर बोले हुए झूठ और धोखे की है, बात नियमों में ईमानदारी और विश्वास नहीं होने की है.

साथ ही मुद्दा जर्मन शिक्षा का भी, उन लोगों का भी जो पूरी मेहनत और ईमानदारी से समय देकर थीसीस लिखते हैं, जिनसे पीछे कोई अमीर परिवार भी नहीं होता. इन लोगों को शायद स्कॉलरशिप लेकर पढ़ाई करनी पड़ती है और कई बार पढ़ाई के कारण परिवार बसाने के इरादे को भी आगे ढकेलना पड़ता है. उन युवा शोधकर्ताओं की बात है जो सामान्य परिस्थितियों में पढ़ते हैं, जिन्हें नव उदारवादी सुधारों के कारण तय सीमा में काम परा करना होता है. इन्हें कई परिस्थितियों से दो चार होना पड़ता है क्योंकि जरूरत और आर्थिक अनिश्चितता के दौर में खुद को आगे लाना पड़ता है.

यह दुख की बात है कि एक अच्छे युवा नेता की प्रतिष्ठा इस मकाम पर पहुंची है. लेकिन अब अगर कार्ल थियोडोर त्सु गुटेनबैर्ग पद पर बने रहते हैं तो जर्मनी की राजनीतिक परंपरा पर हमेशा के लिए दाग लग जाएगा.

समीक्षाः बेटिना मार्क्स/आभा एम

संपादनः मानसी गोपालकृष्णन

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