जंगल की बेटी पर फिल्म
१८ फ़रवरी २०११जर्मनी की सबीने कुएग्लर ने असल जिन्दगी में अपना पूरा बचपन जंगलों में ही बिताया. मोगली की तरह सिर्फ जानवरों के बीच ही नहीं, बल्कि जंगल में रहने वाले आदिवासी लोगों के साथ भी. आज सबीने कुएग्लर के जीवन पर बनी फिल्म जर्मनी के थिएटरों में लगी है. फिल्म का नाम है 'जुंगलकिंड' या 'जंगल-किड'.
नेपाल से इंडोनेशिया तक का सफर
1972 में एक जर्मन दंपत्ति नेपाल के दनुवार राय समुदाय के लोगों के बीच रह रहा था. यह दंपत्ति उनकी भाषा पर अध्ययन कर रहे था और इस पिछड़े समुदाय के विकास के लिए काम कर रहे था. इसी साल क्रिसमस के दिन उन्हें एक तोहफा मिला - नन्ही सबीने की शक्ल में. सबीने कुछ चार ही साल नेपाल में बिता पाईं थी कि उनके माता पिता को राजनैतिक कारणों से देश छोड़ जर्मनी वापस आना पड़ा. कुछ ही समय बाद यह परिवार इंडोनेशिया पहुंचा. सबीने के माता पिता यहां फायु समुदाय पर अध्ययन करना चाहते थे जो घने जंगलों में रहता है. यहीं से शुरू हुआ सबीने का जंगल का सफर.
बेहद कम उम्र में ही नेपाल से लौट जाने के कारण वहां की यादें तो सबीने के जहन में नहीं हैं लेकिन इंडोनेशिया के जंगलों का हर कोना वो पहचानती हैं. इंडोनेशिया के पश्चिम पापुआ के जंगलों में उन्होंने अपना पूरा बचपन बिताया. आठ साल की उम्र में वो अपने माता पिता और दोनो भाई बहन के साथ यहां आईं. पश्चिम पापुआ भारतीय महासागर में स्थित एक छोटा सा द्वीप है. पहली बार पश्चिमी लोग फायु समुदाय के साथ रहने यहां आए थे. जाहिर सी बात है, आदिवासियों को यह समझाना कि वे उन्हें नुकसान पहुंचाने के लिए बल्कि उनकी मदद करने के लिए यहां आए हैं, बहुत मुश्किल था. पर जल्द ही यह परिवार वहां रह रहे लोगों के साथ घुलने मिलने में कामयाब रहा.
जहरीले पौधों और जंगली जानवरों के बीच
आम तौर पर माता पिता की कोशिश रहती है कि उनके बच्चों को सब सुख सुविधाएं मिलें. लेकिन सबीने का घर तो बंगला गाड़ी से दूर एक अलग ही दुनिया में था. जंगल में रहना जितना रोमांचक होता है उतना ही खतरनाक भी. यहां रह कर सबीने ने जाना कि जंगल का कानून को किस तरह से निभाया जाता है. सबीने फायु समुदाय के रीती रिवाजों के साथ ही बड़ी हुईं. इन्हीं लोगों से उन्होंने धनुष बाण चलाना सीखा, जहरीले पौधों की पहचान सीखी और जंगली जानवरों और सांपों से खुद को बचाना भी. सबीने ने किस्से कहानियों में जिस जीवन के बारे में पढ़ा था वो अब हकीकत बन गया था.
फिल्म के निर्माता युएर्गन शुस्टर बताते हैं कि पापुआ के जंगलों में फिल्म शूट करना कितना कठिन था, "हम पहले पापुआ और ऑस्ट्रेलिया हो कर आए. हम जिस तरह की जगह ढून्ढ रहे थे वो हमें मिल नहीं रही थी, और पापुआ के जंगलों में शूट करने में मलेरिया होने का खतरा था. हमारे साथ बच्चे थे, इसलिए हम जंगलों के अन्दर नहीं जाना चाहते थे. मलेरिया के अलावा वहां जंगली जानवरों से भी खतरा था, खास तौर से मगरमच्छ से. हमें पानी के आस पास बहुत शूटिंग करनी थी और मगरमच्छ के रहते हम ऐसा नहीं कर सकते थे."
क्या है मेरी पहचान?
1989 में 16 साल की उम्र में जंगल से लौट कर सबीने ने स्विट्जरलैंड में पढ़ाई की. शहरी जिन्दगी में खुद को ढालना उनके लिए मुश्किल था. जंगल से दूर उन्हें अपने लिए एक नया घर बनाना था, अपनी एक नई पहचान ढूंढनी थी. सबीने जिस कशमकश से गुजरी फिल्म में उसे भी दिखाने की कोशिश की गई है. फिल्म निर्देशक रोलान्डो सुसो रिश्टर बताते हैं, "सबीने वहां हर चीज अपना रही थी, उसने फायु बोलना भी सीख लिया था. और अंत में उसके साथ यह दिक्कत आती है कि वो खुद से पूछने लगती है कि मैं कौन हूं - क्या मैं फायु हूं, या जर्मन? फिर उसे समझ आता है कि वो कभी फायु समुदाय का हिस्सा नहीं बन सकती, लेकिन साथ ही वो खुद को जर्मन भी नहीं कह सकती."
जंगल से दूर हो कर भी सबीने खुद को उस से अलग नहीं कर पाईं. इसीलिए पढाई पूरी कर के उन्होंने फिर जंगल का रास्ता देखा. लेकिन इस बार वहां जा कर बसने के लिए नहीं. जिस तरह से उनके माता पिता ने अपना जीवन आदिवासियों को समर्पित किया था उसी तरह वो भी कुछ करना चाहती थीं. उन्होंने तय किया कि वो जंगल में रहने वाले बच्चों की मदद करेंगी. इसीलिए वो जर्मनी में आदिवासी बच्चों के लिए कई तरह के कार्यक्रम चलाने वाली संस्था 'वर्ल्ड विजन' से जुड़ गईं.
सबीने का मानना है कि जंगल और शहर दोनों जिंदगियां देख कर उन्हें अपना नजरिया विकसित करने का मौका मिला, "मुझे लगता है कि जंगल में रहने से मैंने जीवन को एक अलग नजरिए से देखना सीखा है. अगर मैं जंगल में ही रहती तो मेरी सोच का दायरा उतना बड़ा नहीं होता, वैसे ही, अगर मैं केवल शहर में रही होती तो भी मेरी सोच का दायरा छोटा ही रहता, लेकिन क्योंकि मैंने दोनों ही दुनिया देखीं हैं इसलिए बहुत कुछ एक अलग दृष्टिकोण से देख सकती हूं. मैंने इस से यह भी सीखा है कि आप लोगों के बारे में कोई धारणा नहीं बना सकते, खास तौर से किसी दूसरी संस्कृति के लोगों के बारे में. किसी के भी बारे में कुछ कहने या सोचने से पहले आपको बहुत सी चीजों को ध्यान में रखना पड़ता है. मेरे अनुभव ने मेरी आंखें खोल दी हैं."
बच्चों के भविष्य के लिए
जंगल में बिताई जिंदगी को उन्होंने कागज़ पर उतारने की कोशिश की और 2005 में 'जुंगलकिंड' के नाम से एक किताब लिखी जिसमें उन्होंने उन सब मुश्किलों का ब्यौरा दिया जो उन्हें वहां रहते हुए हुई. उन्होंने दिखाया कि आदिवासियों का जीवन कितना अलग होता है - तकनीक, सभ्यता, सभी बातों से दूर. कुछ समय बाद उन्होंने एक और किताब लिखी. इस बार उन्होंने फायु समुदाय के रहन सहन ही नहीं बल्कि वहां के राजनैतिक हालात भी समझाए. इसके बाद से उन पर इंडोनेशिया में आने की रोक लग गई.
सबीने के चार बच्चे हैं और वो यह बात अच्छी तरह से जानती हैं कि जंगलों में औरतों को बच्चे पालने में किन किन मुश्किलों का सामना करना पड़ता हैं. वो कहती हैं कि उन्हें यह देख कर बहुत दुख होता है कि किस तरह दुनिया में लाखों माएं बगैर किसी डॉक्टरी सहायता के बच्चों को जन्म देती हैं, और बाद में उन्हें किस यातना से गुजरना पड़ता है जब उनके बच्चों की गन्दगी, कम पोषण वाले खाने या फिर सर्दी लगने से जान चली जाती है. इन इलाकों में बच्चे छोटी छोटी बीमारियों से ही अपनी जान गंवा बैठते हैं. सबीने लोगों में इन बातों को ले कर जागरूकता फैलाना चाहती हैं ताकि ये बच्चे भी आम बच्चों की ही तरह पल बढ़ सकें.
रिपोर्ट: ईशा भाटिया
संपादन: एस गौड़