जर्मनी में हिटलर की आत्मकथा पर बहस
२५ जनवरी २०१२वह कैदी तख्तापलट की कोशिश के विफल होने के बाद से 11 नवम्बर 1923 से जेल में था. म्यूनिख में तथाकथित "बीयर हॉल पुच" विफल हो गया था. अडॉल्फ हिटलर के लिए सब कुछ खत्म हो गया लग रहा था. उसके पास भविष्य के बारे में सोचने का समय था और उसने सचमुच इसका इस्तेमाल किया. जेल के बाहर राजनीतिक खींचतान थी. अर्थव्यवस्था की हालत पस्त थी, बेरोजगारी जोरों पर थी और सड़कों पर वामपंथियों व दक्षिणपंथियों के बीच झगड़े हो रहे थे. जर्मनी का वाइमार गणतंत्र उथल पुथल का शिकार था.
अंदर, हिटलर ने समय का इस्तेमाल अपने राजनीतिक सपने को पन्ने पर उतारने में किया. कुछ महीने के अंदर उसने माइन कम्प्फ लिख दी जो अंग्रेजी में माय स्ट्रगल के नाम से प्रकाशित हुई है. यह किताब वैचारिक घोषणापत्र, आत्मकथा और दूसरी किताबों तथा राजनीतिक पर्चों से जमा तत्वों का घटिया मिश्रण है. उसने नस्लवाद और यहूदी विरोधी विचारों पर लिखा है, युद्ध और क्रांति की बात की है और जर्मनी का नेतृत्व करने की अपनी आकांक्षा का आधार रखा है. गिरफ्तारी के दो साल के अंदर हिटलर फिर से आजाद व्यक्ति था और उसकी किताब का प्रकाशन हुआ. अत्यंत वफादार समर्थकों के साथ उसने फिर से नैशनल सोशलिस्ट जर्मन वर्कर्स पार्टी को संगठित करना शुरू किया.
बेस्टसेलर बनी भड़काऊ किताब
1933 तक हिटलर की किताब के सस्ते संस्करण की 3,00,000 प्रतियां बिक गईं. बाद में वह बेस्टसेलर बन गई जिसे लाखों लोगों ने खरीदा. हर देशभक्त परिवार के पास उसका होना जरूरी समझा जाता था. किताब को स्कूलों में उसे पढ़ाया जाता था और शादियों के मौकों पर सरकार द्वारा नव दम्पति को उपहार में दी जाती थी. इतिहासकारों को संदेह है कि उसे लाखों लोगों ने पढ़ा था, लेकिन वित्तीय रूप से माइन कम्प्फ पार्टी और प्रकाशकों के अलावा लेखक के लिए बहुत सफल रही. राष्ट्रवादी चरित्र का होने के बावजूद यह विदेशों में भी अंग्रेजी, फ्रेंच और स्पेनिश अनुवादों में उपलब्ध थी.
इतिहासकारों ने हिटलर के माइन कम्प्फ को चरमपंथी, अतार्किक, असंगत, नीरस, अवास्तविक, आत्मकेंद्रित, खराब शैली वाला और असली राजनीतिक विचारों के मामले में मापा न जा सकने वाला बताया है. बहुत से विशेषज्ञों ने हिटलर की किताब को विचारधारा को प्रतिपादित करने का विफल प्रयास बताया है. वियना की इतिहासकार ब्रिगिटे हामान कहती हैं, "हिटलर ने अपना कोई योगदान नहीं दिया. उसने सिर्फ हाशिए के राजनीतिक गुटों के विचारों की कॉपी कर ली."
जर्मनी में इस किताब के प्रकाशन पर रोक है. उसे संविधान विरोधी और भड़काने का औजार माना जाता है. रोक की वजह दुर्भावना फैलाने के लिए उसके इस्तेमाल और पाठकों पर राजनीतिक असर को रोकना है. बहुत से लोगों का कहना है कि अब लंबी लोकतांत्रिक परंपरा वाले आधुनिक जर्मनी में यह बेतुका लगता है. ब्रिटेन के इतिहासकार इएन केरशॉव का कहना है कि इंटरनेट युग में किताब पर रोक लगाने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि वह इंटरनेट पर उपलब्ध है. वह किताब की दुकानों और विदेशों में उपलब्ध है. भारत में भी इसे सड़कों के किनारे खरीदा जा सकता है.
कॉपीराइट का सवाल
जर्मनी में ब्रिटिश प्रकाशक पीटर मैकजी द्वारा चश्मदीद सीरीज के तहत इस किताब के प्रकाशन पर चल रही बहस कॉपीराइट कानून को भी छूती है. हिटलर की पांडुलिपियों के अधिकार विजेता राष्ट्रों ने युद्ध के बाद बवेरिया सरकार को सौंप दिए जो हिटलर का गृहप्रांत था. प्रांतीय सरकार अब तक किताब के अंशों के प्रकाशित करने के प्रयासों को रोकने में सफल रही है. हालांकि कॉपीराइट जल्द ही खत्म हो ने वाला है लेकिन बवेरिया की सरकार ने कहा है कि वह भविष्य में भी इसे रोकने की कोशिश करेगी. लेकिन हिटलर की आत्महत्या के सात दशक बाद माइन कम्प्फ के प्रकाशन की संभावना बढ़ गई है.
मैकजी ने जर्मन समाचार साप्ताहिक डेअ श्पीगेल से कहा है कि लोगों को इस किताब की मूल पांडुलिपि से परिचित होने की संभावना दी जानी चाहिए. बहुत से लोगों का मानना है कि प्रकाशक कारोबारी इरादे से किताब छाप रहा है. बाजार में हिटलर की आत्मकथा भले ही न हो, एकैडमिक रैक्स पर वह पहले ही आ गई है. म्यूनिख के समकालीन इतिहास संस्थान में टिप्पणियों के साथ एक उच्चस्तरीय संस्करण तैयार किया जा रहा है. इतिहासकार हामान का कहना है , "यह माइन कम्प्फ को हक से ज्यादा सम्मान देता है."
इस बीच इस बात पर मतभेद बने हुए हैं कि किताब के अंशों को जर्मन बुकशॉपों में बेचा जाए या नहीं. जर्मनी की परिवार कल्याण मंत्री क्रिस्टीना श्रोएडर पूरी तरह इसके खिलाफ हैं. श्रोएडर का कहना है कि नाजी कुकर्मों की अमानवीयता को समझने के लिए इस तरह के विकास की कोई जरूरत नहीं है. दूसरी ओर जर्मनी में यहूदियों की केंद्रीय परिषद के अध्यक्ष डीटर ग्राउमन को इस किताब के बाजार में आने का इंतजार है, इस उम्मीद में कि वह किताब के तिलस्म को तोड़ने में योगदान देगा.
रिपोर्ट: कोर्नेलिया राबित्स/मझा
संपादन: ओ सिंह