जिद और चुनौतियों के बीच डरबन सम्मेलन
२८ नवम्बर २०११संयुक्त राष्ट्र के बैनर तले दक्षिण अफ्रीकी शहर डरबन में शुरू हुए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में पुराने मतभेद जस के तस हैं. अमीर और आर्थिक रूप से उभरते देश नहीं चाहते कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को लेकर इस बार भी कोई मुश्किल समझौता हो. ऐसे देश 2020 तक किसी बाध्यकारी समझौते के पक्ष में नहीं हैं. अमेरिका, चीन, भारत, ब्राजील, यूरोपीय संघ और दर्जन भर दूसरे देश 80 फीसदी कॉबर्न डाईऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं. कार्बन डाईऑक्साइड वातावरण को गर्म करने में मुख्य भूमिका निभाती है.
हाल में आई वैज्ञानिक रिपोर्टों से साफ है कि जलवायु परिवर्तन के भीषण परिणामों को कम करने के लिए तुरंत जरूरी कदम उठाए जाने जरूरी है. पांच साल के भीतर अगर कोशिशें नहीं की गईं तो बहुत देर हो जाएगी. वापसी का रास्ता बंद हो सकता है. लेकिन इसके बावजूद बीते जलवायु परिवर्तन सम्मेलनों में अब तक 194 देशों के बीच सहमति नहीं बन सकी है.
खुद मेजबान दक्षिण अफ्रीका आर्थिक विकास की राह में बाधा खड़ी नहीं करना चाहता. भारत, चीन, ब्राजील, अमेरिका और यूरोपीय देश भी 10 साल तक कोई बाध्यकारी समझौते को तैयार नहीं हैं. छोटे द्वीपीय देश इस रुख से भयभीत हैं. छोटे द्वीपीय देशों के समूह AOSIS की अध्यक्ष डेसिमा विलियम्स कहती हैं, "अपने लोगों को बचाना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है. डरबन में AOSIS ऐसे किसी भी नतीजे को स्वीकार नहीं करेगा जो हमारे देशों के घरों और जीवन को बचाने की गांरटी तय न कर सके."
यूरोप चाहता है कि डरबन में रोडमैप तैयार हो. इसके तहत 2015 तक एक नई जलवायु नीति बनाई जाएगी और 2020 तक लागू हो जाएगी. विश्लेषकों और मध्यस्थों का कहना है कि नई समयसीमा संयुक्त राष्ट्र की कोशिशों को पानी में मिला देगी. सम्मेलन में भाग ले रहे एक दिग्गज प्रतिभागी कहते हैं, "इस बात के विकल्प बहुत कम बचे हैं कि बड़े देशों के रुख में जबरदस्त बदलवाव के बिना कोई बैठक से कोई नतीजा निकलेगा." उनके मुताबिक यह हैरानी की बात है कि जापान, कनाडा, अमेरिका के साथ चीन और भारत जैसी अर्थव्यवस्थाएं इस मुद्दे पर एकमत हो रही हैं.
बीते साल मेक्सिको के कानकुन शहर में हुए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में 2020 तक एक ग्रीन फंड बनाने का वादा हुआ. जलवायु परिवर्तन के गंभीर परिणामों से जूझने वाले गरीब देशों को फंड से सालाना 100 अरब डॉलर दिए जाएंगे. आलोचक इसे मौत का मुआवजा कहते हैं. मेक्सिको में यह वादा भी हुआ कि जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के लिए तकनीकी दक्षता वाले देश अन्य देशों को नई तकनीक देंगे.
ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को लेकर फिलहाल दुनिया 1997 की क्योटो संधि को मान रही है. 2005 से सितंबर 2011 तक 191 देश इस पर संधि कर चुके हैं. अमेरिका ने इस पर दस्तखत नहीं किए हैं. क्योटो संधि की समयसीमा अगले साल पूरी हो रही है. ऐसे में डरबन सम्मेलन से कई देशों और पर्यावरणविदों को खासी उम्मीदें हैं. यह तय है कि 28 नवंबर से नौ दिसंबर तक होने वाले सम्मेलन में अगर कोई हल निकला तो अंतिम दिनों में ही निकलेगा.
रिपोर्ट: एएफपी/ ओ सिंह
संपादन: ए जमाल