डार्विन के विकासवाद की प्रासंगिकता
१४ फ़रवरी २००९डार्विन के माता-पिता संपन्न लोग थे. चाहते थे कि बेटा डॉक्टर बने. लेकिन बेटे को तो शौक था शिकार का, घुड़सवारी का, प्रकृति को देखने-समझने का. महात्वाकांक्षा से अधिक वह उत्साह से ओतप्रोत था. मात्र 22 साल का था, जब दिसंबर 1831 में उसे बीगल नाम के जहाज़ से दूर दुनिया में जाने और उसे जानने-समझने का मौक़ा मिला.
युवा चार्ल्स ने मौक़ा हाथ से जाने नहीं दिया, हालाँकि शुरू-शुरू में समुद्ररोग से, यानी सिरदर्द और मितली से, उसका जीना दूभर हो गया था. जहाज़ के कप्तान को शक होने लगा था कि लड़का अंत तक टिक भी पायेगा या नहीं. लड़का टिका रहा, पाँच साल तक टिका रहा.
रास्ते में जहाँ-जहाँ जहाज़ से उतरा, वहाँ के जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों, पत्थरों-चट्टानों, कीट-पतंगों को जाँचता-परखता और उनके नमूने जमा करता रहा. अपने अवलोकनों और विश्लेषणों से इस निष्पत्ति पर पहुँचा कि सभी प्रजातियाँ मूलरूप से एकही जाति की उत्पत्ति हैं. परिस्थितियों के अनुरूप अपने आप को ढालने की विवशता प्रजाति-विविधता को जन्म देती है.
1859 में प्रकाशित अपनी पुस्तक में डार्विन ने यही उद्घोष किया है. सिद्धांत था तो बहुत नया और क्रांतिकारी, लेकिन सारी कसौटियों पर सही उतरता रहा और आज विज्ञान का एक सर्वमान्य सिद्धांत बन गया है. जेम्स वॉटसन आनुवंशिक कोडधारी डीएनए की ऐंठनदार सीढ़ी जैसी संरचना के, जिसे डबलहेलिक्स स्ट्रक्चर कहते हैं, सहखोजी हैं और मानते हैं कि आनुवंशिकी भी पग-पग पर डार्विन की ही पुष्टि करती लगती हैः
"मेरे लिए तो चार्ल्स डार्विन इस धरती पर जी चुका सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति है."
जेम्स वॉटसन और फ्रांसिस क्रिक ने 1953 मे एक ऐसी खोज की, जिससे चार्ल्स डार्विन द्वारा प्रतिपादित अधिकतर सिद्धांतों की पुष्टि होती है. उन्होंने जीवधारियों के भावी विकास के उस नक्शे को पढ़ने का रासायनिक कोड जान लिया था, जो हर जीवधारी अपनी हर कोषिका में लिये घूमता है. यह नक्शा केवल चार अक्षरों वाले डीएनए-कोड के रूप में होता है. अपनी खोज के लिए 1962 में दोनो को चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार मिला था. एडवर्ड ऑसबर्न विल्सन आजकल के सबसे जानेमाने विकासवादी वैज्ञानिकों में गिने जाते हैं और वे भी डार्विन के आगे सिर झुकाते हैं:
"हर युग का अपना एक मील का पत्थर होता है. पिछले 200 वर्षों के आधुनिक जीवविज्ञान का मेरी दृष्टि में मील का पत्थर है 1859, जब जैविक प्रजातियों की उत्पत्ति के बारे में डार्विन की पुस्तक प्रकाशित हुई थी. दूसरा मील का पत्थर है 1953, जब डीएनए की बनावट के बारे में वॉटसन और क्रिक की खोज प्रकाशित हुई."
डार्विन तथा वॉटसन और क्रिक के बीच एक और ऐसा वैज्ञानिक रहा है, जिसने आधुनिक जीवविज्ञान पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है. वह था ऑस्ट्रिया का एक ईसाई भिक्षु ग्रेगोर मेंडल. वह डार्विन का समकालीन था. विज्ञान-इतिहासकार एरन्स्ट पेटर फ़िशर बताते हैं कि मेंडल मटर की नस्लों के बीच वर्णसंकर के प्रयोग कर रहा था और जो कुछ नया देखता- पाता था, उससे डार्विन को भी अवगत कराता थाः
"डार्विन आनुवंशिकी के नियम नहीं जानता था. यह तो मालूम है कि डार्विन को इस समाचारपत्र की एक प्रति मिली थी, लेकिन यह भी मालूम है कि उसने उसे खोला ही नहीं था. यानी, उसे नहीं पता था कि किन नियमों के अनुसार आनुवंशिक गुण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलते हैं और न ही इस बारे में कोई कल्पना कर सकता था."
ग्रेगोर मेंडल तथा वॉटसन और क्रिक की जोड़ी के कार्यों की बलिहारी से कुलिंग पक्षिय़ों वाली वह पहेली भी हल की जा सकी, जिसने डार्विन को बड़ी उलझन में डाल रखा था. उसने गालापोगोस द्वीपों पर देखा कि वहाँ तरह-तरह के पक्षी रहते हैं. किसी की चोंच छोटी और मोटी है, वह मेवों और बीजों पर जीता है, तो किसी की पतली और लंबी और वह फूलों के भीतर दूर तक अपनी चोंच उतार कर रसपान करता है. उसे लगा कि इन सभी पक्षियों की पूर्वज कोई एक ही प्रजाति रही होनी चाहिये. उन के बीच सारे अंतर समय की देन हैं. डार्वन के समय डीएनए, जीन या क्रोमोसोम जैसे शब्द प्रचलन में नहीं थे.
इस बीच वैज्ञानिक जानते हैं कि डीएनए को न केवल पढ़ा जा सकता है, बल्कि देखा भी जा सकता है कि जीवधारियों का रूप-रंग, आकार-प्रकार किस तरह बदलता है. जब भी कोई जीन सक्रिय होता है, वह कोषिका के भीतर अपने ढंग का कोई विशेष प्रोटीन पैदा करता है. उदाहरण के लिए यदि BMP4 नामके प्रोटीन को पैदा करने वाला जीन सक्रिय होता है, तो कुलिंग पक्षी की चोंच छोटी और चौड़ी बनेगी. लेकिन, यदि वह जीन सक्रिय होता है, जो काल्मोड्यूलीन नाम का प्रोटीन पैदा करता है, तो चोंच लंबी और पतली होगी.
वैज्ञानिक अब यह भी जानते हैं कि विकासवाद जीनों में परिवर्तन से नहीं, बल्कि उनके सक्रिय या निष्क्रिय होने के बल पर चलता है. इसीलिए कोई ऐसा जीन भी नहीं होता, जो ठेठ मानवीय जीन कहा जा सके. हमारी हर कोषिका में क़रीब 21 हज़ार जीन होते हैं. क़रीब इतने ही चूहे में भी होते हैं. यानी नयी प्रजाति की उत्पत्ति के लिए प्रकृति को नए जीन नहीं पैदा करने पड़ते. नयी प्रजाति के लिए केवल सक्रिय और निष्क्रिय जीनों के बीच नया जोड़तोड़ काफ़ी होता है. 1995 में चिकित्सा विज्ञान की नोबेल पुरस्कार विजेता रही जर्मनी की क्रिस्टियाने न्युइसलाइन-फ़ोलहार्ड इसी क्षेत्र में शोधकार्य कर रही हैं:
"सबसे मूल ग़लती यह होती है कि लोग सोचते हैं कि यदि हम कुछ समझ गये हैं, तो उसे बदल भी सकते हैं. सच्चाई यह है कि यदि मुझे किसी आदमी की किसी विशेषता वाले किसी जीन का पता है, तो मैं उसे इतने भर से बदल नहीं सकती और मैं जीन-अंतरित कोई नया आदमी भी नहीं बना सकती. कोई प्राणी बहुत ही जटिल संरचना होता है. बिना किसी अवांछित अनुषंगी प्रभाव के उसके जीनों में जानबूझ कर हेराफेरी करना संभव नहीं है."
पहली क्लोन भेंड़ डॉली के जनक कहलाने वाले इयान विल्मट इसे नहीं मानेंगे, हालाँकि इस बीच उन्होंने यह ज़रूर मान लिया है कि, उन्होंने नहीं, उनके साथी कीथ कैंपबेल ने 1996 में डॉली की क्लोनिंग की थी. अमेरिका के जीवरसायनज्ञ क्रैग वेंटर भी इसे नहीं मानेंगे. उनकी कंपनी सेलेरा जीनॉमिक्स ने मानवीय जीनोम को क्रमबद्ध किया था. भावी विकास के बारे में उनके विचार बहुत ही अफ़लातूनी हैं:
"मेरी बात साइंस फ़िक्शन जैसी लग सकती है, लेकिन डिज़ाइन और जेनेटिकल सेलेक्शन अर्थात आनुवंशिक चयन भविष्य में डार्विन के विकासवाद की जगह लेंगे. "
यदि ऐसा होता भी है, तब भी इससे चार्ल्स डार्विन की 200 वर्षों से चल रही ख्याति की महानता कम नहीं होती.