तिब्बती तिराहे पर उलझा भारत
९ सितम्बर २०११तिब्बत पर चीन का आक्रमण अपने दावे को सही साबित करने का एक आक्रामक जरिया भर नहीं था. यह एशिया और बाद में पूरी दुनिया की राजनीति को प्रभावित करने वाली घटना थी जिसका नतीजा 1962 की भारत चीन जंग के रूप में दुनिया ने देखा, भुगता.
आधी सदी बीत चुकी है. जंग के शोले ठंडे पड़ चुके हैं. तिब्बत की आजादी की मांग ‘यथार्थवादी स्वायत्तता'यानी अपने ऊपर शासन करने की ईमानदार आजादी मात्र में बदल चुकी है. भारत में बहने वाली तिब्बत समर्थक लहर दिल्ली की कुछ बहसों में कभी कभार नजर जरूर आती है, लेकिन ज्यादातर वह विदेश मंत्रालय की सरकारी फाइलों पर धूल जैसी जमी पड़ी रहती है. और जब कभी कोई घटना हवा का झोंका बनकर आती है तो उन फाइलों से उड़ती धूल यही पूछती है कि क्या तिब्बत अब भी भारत के लिए कोई मुद्दा है?
भारत में तिब्बत के दोस्त के रूप में जाने जाने वाले तिब्बत मामलों के जानकार वरिष्ठ पत्रकार विजय क्रांति कहते हैं, “तिब्बत भारत के रूप में अब भी एक मुद्दा तो है, सवाल ये है कि भारत के नेता उसके लिए कुछ करना चाहते हैं या नहीं.”
भारत के लिए क्यों जरूरी है तिब्बत
अपने प्राण दांव पर लगाकर शरणार्थी की रक्षा करने की बात भारत की पांच हजार साल पुरानी तहजीब का हिस्सा है. इसलिए तिब्बत भारत के लिए एक जज्बाती मुद्दा हो सकता है. लेकिन इस भावुकता के मुलम्मे में रणनीति, राजनीति और कूटनीति लिपटी हुई है. क्रांति कहते हैं कि भारत किसी भी हाल में तिब्बत को नजरअंदाज करने का जोखिम नहीं उठा सकता. उनके शब्दों में, “जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा नहीं किया था, तब भारत के उत्तर में तिब्बत सीमा थी. उसे संभालने के लिए चंद सैनिक टुकड़ियां तैनात करना ही काफी था. लेकिन चीन के कब्जे के साथ ही हजारों किलोमीटर लंबी सीमा भारत चीन बॉर्डर में बदल गई. अब यह सीमा इतनी संवेदनशील है कि भारत को अपना अरबों रुपया उसकी सुरक्षा पर ही खर्च करना पड़ता है. या यूं कहें कि चीन सीधा भारत के दरवाजे पर आ खड़ा हुआ है. भारत इस बात को हल्के में नहीं ले सकता.”
अब भारत का रुख
2006 में अमेरिका ने दलाई लामा को कॉन्ग्रेशनल अवॉर्ड देकर सम्मानित किया. जब दलाई लामा भारत लौटे तो दिल्ली के हैबिटेट सेंटर में उनके सम्मान में समारोह आयोजित हुआ. विजय क्रांति बताते हैं कि भारत सरकार ने अपने अफसरों और मंत्रियों को उस समारोह में हिस्सा लेने से मना कर दिया क्योंकि वह किसी भी मंच पर दलाई लामा के साथ नहीं दिखना चाहती थी. क्रांति कहते हैं, “ऐसा लगता है कि भारत के नेता अपने दूरगामी हितों को देख ही नहीं पा रहे हैं. चीन भारत को जब चाहे धमकाकर चला जाता है और भारतीय नेता कुछ नहीं बोल पाते. अब वे अपने हितों से ही समझौता करने लगे हैं. वे चीन को नाराज करने से डरने लगे हैं.”
असल में भारत की समस्या यह है कि चीन कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान का साथ देता है. और अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्से को को वह अपना बताता है. इसलिए भारत अगर तिब्बत की बात करेगा तो उसे कश्मीर के रूप में जवाब भी झेलना होगा. बहुत से लोग तर्क देते हैं कि तिब्बत की आजादी और कश्मीर की आजादी की मांग में फर्क है क्योंकि दोनों के ऐतिहासिक कारण अलग अलग हैं. लेकिन कश्मीर भारत की दुखती रग है और चीन इस बात को अच्छी तरह समझता है. इसलिए ऐसा लगता है कि भारत तिब्बत पर चुप रहना ही बेहतर समझता है.
क्या कहते हैं तिब्बती
हिमाचल प्रदेश के मैकलोडगंज में बसा तिब्बत का निर्वासित प्रशासन भारत के अहसानों तले दबा हुआ है. प्रशासन के प्रवक्ता लोबसांग छोएडेक कहते हैं, “भारत ने हमारी संस्कृति, सभ्यता और परंपराओं की रक्षा में जो योगदान दिया है, उसके लिए हम हमेशा उसके आभारी रहेंगे. हम भारत की भूमिका को कम करके नहीं देख सकते. उसने जो किया है, वह हमारे लिए बेहद जरूरी था.”
भारत ने जब से चीन के साथ दोस्ती बढ़ाने का काम शुरू किया है, तब से तिब्बतियों के साथ उसके रिश्ते खुरदरे होते गए हैं. पहले जब भी कोई चीनी नेता भारत दौरे पर आता था, तिब्बती युवा दिल्ली में बड़े प्रदर्शन करते थे. लेकिन 2008 में जब 100 तिब्बती युवा ल्हासा की ओर मार्च पर निकले तो उन्हें पुलिस की लाठियां खानी पड़ीं. और अब तो ऐसे प्रदर्शन होने ही बंद हो गए हैं. तिब्बतियों ने भारत चीन रिश्ते को भी स्वीकारना शुरू कर दिया है. उत्तर पूर्वी यूरोप में दलाई लामा के विशेष दूत त्सेतेन छोपद्याक कहते हैं, ”हम भी चाहते हैं कि दो बड़ी ताकतों भारत और चीन के बीच अच्छे रिश्ते हों. इससे हमें कोई ऐतराज नहीं है. हम तो बस इतना चाहते हैं कि हमारे अधिकारों का भी ध्यान रखा जाए.”
लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है. क्रांति कहते हैं कि भारत सरकार का मुख्य मकसद चीन को खुश करना ही नजर आता है और इसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार रहती है.
क्या कर सकता है भारत
भारत और चीन के बीच व्यापार 60 अरब डॉलर को पार कर चुका है. दोनों पक्ष 2015 तक इसे 100 अरब डॉलर तक ले जाना चाहते हैं. और जब कारोबार सबसे ऊपर आ जाए, तो बाकी चीजों पर समझौता करना ही पड़ता है. इन हालात में तिब्बती भारत से ज्यादा कुछ चाहते भी नहीं हैं. छोपद्याक कहते हैं, “हम तो बस यही चाहते हैं कि हमारी स्वायत्तता की मांग को भारत चीन के सामने रखे और उस पर बात करने में हमारी मदद करे.”
भारत को ऐसा करने की कोई जरूरत नजर नहीं आती. और भारत ऐसा कर भी नहीं रहा है. तिब्बत पर उसकी नीति शुरू से ही उलझी हुई रही है. एक तरफ तो उसने एक लाख से ज्यादा तिब्बतियों को इस शर्त पर शरण दी कि वे कोई राजनीतिक गतिविधि नहीं चलाएंगे. और फिर धर्मशाला में इतने साल से उनकी सरकार भी चल रही है.
भारत की राजधानी दिल्ली में अंतरराज्यीय बस अड्डे के नजदीक एक तिब्बती मार्केट है. यहां काफी सस्ता सामान मिल जाता है. इस बाजार में नौजवानों की भीड़ लगी रहती है. यह बाजार भारत-तिब्बत-चीन राजनीति की बदलती कहानी कहता है. भारतीय नौजवानों को अब तिब्बतियों की मांग से कोई मतलब राजनीति से कोई मतलब नहीं. वे तो बस सस्ते सामान की ख्वाहिश में यहां आते हैं. सामान बेचती तिब्बती महिलाओं की आंखों में अपने घर से दूर होने का दर्द बड़ी मुश्किल से पढ़ा जाता है. और हां, बाजार के बाहर दो चार पुलिसवाले हमेशा तैनात रहते हैं.
रिपोर्टः विवेक कुमार
संपादनः ओ सिंह