दस साल सुबकने के बाद भी अफगानिस्तान अधर में
७ अक्टूबर २०११कंधार में एक उजड़ चुके सिनेमा के सामने आसिफ खान जिस चादर पर बैठे हैं, वह कभी सफेद रही होगी. उनकी जो आंखें दर्द से भारी हैं, उनमें कभी आंसू रहे होंगे. उनके जिन होठों पर अब सिर्फ बेबसी की दास्तान है, उसमें कभी उम्मीदों का बयान रहा होगा. आसिफ खान से बात करो तो जवाब में अफगानिस्तान की कहानी सुनने को मिलती है, वही अफगानिस्तान जहां जंग शुरू हुए 10 साल बीत चुके हैं.
युद्ध के 10 साल
अफगानिस्तान में पश्चिमी सेनाओं ने 7 अक्तूबर 2001 को पहला हमला किया था. अमेरिका और ब्रिटेन ने अफगान यूनाइटेड फ्रंट के साथ मिलकर ऑपरेशन एंड्योरिंग फ्रीडम शुरू किया. इसकी मुख्य वजह उसी साल 11 सितंबर को अमेरिका में हुआ सबसे बड़ा आतंकी हमला था. 9/11 के हमले से बौखलाया अमेरिका दुनियाभर से आतंकवाद के सफाये का बीड़ा उठाकर निकला था. अमेरिका के इस फैसले ने पूरी दुनिया को बंटने पर मजबूर कर दिया था क्योंकि तब के राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने कहा था, "या तो आप हमारे साथ हैं या उनके."
अफगानिस्तान में आतंकी संगठन अल कायदा का गढ़ होने के संदेह पर पश्चिमी देशों ने युद्ध छेड़ा. उन्होंने पहले देश के तालिबान शासन से सत्ता छीनी. उसके बाद वे पूरे मुल्क में अल कायदा सरगना ओसामा बिन लादेन को खोजने लगे. लेकिन लादेन 2011 में पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के पास रहता पाया गया. लेकिन उसकी खोज में जुटे पश्चिमी देशों के सैनिकों को तालिबान के खिलाफ जंग लड़नी पड़ी. जो अब तक जारी है.
कोई उम्मीद नहीं बची
आसिफ खान का बेटा पढ़ा लिखा है, कंप्यूटर जानता है. लेकिन उसके पास नौकरी नहीं है. नौकरी पाने के लिए रिश्वत देने के वास्ते पैसे भी नहीं हैं. उनकी नौ बेटियां हैं जो स्कूल जाना चाहती हैं. लेकिन स्कूल जाने के लिए सिर्फ चाह नहीं चाहिए, फीस चाहिए. वर्दी, किताबें और पेंसिल चाहिए. टोकराभर कर चाह पाल लेने के बावजूद आसिफ खान इन सब चीजों का बंदोबस्त नहीं कर सकते.
उजड़ चुके पुराने सिनेमा में रहने को मजबूर आसिफ खान और उनका परिवार 2001 में तालिबान की सत्ता खत्म होने के बाद पाकिस्तान से लौट आया था. उन्हें लगा था कि तालिबान चले गए, कुछ दिन में अमेरिकी चले जाएंगे और वह अपने परिवार को अपनी जमीन पर खुशहाल जिंदगी दे पाएंगे. न अमेरिकी गए, न जंग खत्म हुई, न खुशहाल जिंदगी की कोई सूरत बनी. उनके तीन शब्द नई अफगान जिंदगी का एक पहलू बयान कर देते हैं, "कोई उम्मीद नहीं."
कुछ अच्छा भी हुआ
ऐसा नहीं कि बीते दशक में अफगानिस्तान में अच्छी बातें नहीं हुईं. सबसे अहम बात तो यह है कि स्कूल खुले हैं. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक देश के 60 लाख बच्चे रोज स्कूल जा रहे हैं. तालिबान के शासन के दौरान तो लड़कियों का स्कूल जाना कोई ख्वाब में भी नहीं सोच पाता था. और जंग की वजह से ज्यादातर स्कूल बंद हो गए थे.
देश का मीडिया भी फल फूल रहा है. कई अखबार हैं, साप्ताहिक पत्रिकाएं हैं. 10 टेलीविजन चैनल हैं. इसके बावजूद ऐसा लगता है कि देश एक कदम आगे बढ़ा और दो कदम पीछे हटा. सबसे बड़ी विफलता उसे सुरक्षा और अच्छे प्रशासन के मोर्चे पर मिली है. जंग शुरू हुए 10 साल हो चुके हैं लेकिन हिंसा घटने के बजाय बढ़ी ही है. पिछले एक साल में तो आतंकी हमलों में काफी इजाफा हुआ है. कभी शांत रहा देश का उत्तरी हिस्सा भी इसकी चपेट में आ गया है.
2014 में अमेरिकी और नाटो फौजें देश से चली जाएंगी. लेकिन अफगानिस्तान अब भी अपने पांव पर खड़ा होने के काबिल महसूस नहीं कर रहा है. कंधार के पूर्व मेयर गुलाम हैदर हामिदी की बेटी रंगीना हामिदी कहती हैं, "इस वक्त तो हमें ये भी नहीं पता कि हम किससे डरें. हम हर किसी से खौफजदा हैं. हर गली का अपना शासक है, अपने ठग हैं. मुझे घर से बाहर निकलते डर लगता है. सच कहूं, मुझे तो समझ में नहीं आ रहा कि क्या होगा." रंगीना के पिता कत्ल किए जा चुके हैं.
अमेरिकी आंखों से
अमेरिकी जनरल जब इन 10 सालों का लेखाजोखा पेश करते हैं तो तस्वीर काफी उजली नजर आती है. पिछले महीने जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक हिंसा में कमी आई है. अमेरिकी जनरल कहते हैं कि उन्होंने दक्षिण में बड़ी बढ़त हासिल की है और तालिबान का हौसला टूट रहा है.
जुलाई में अंतरराष्ट्रीय फौजियों को दिए एक भाषण में सीआईए निदेशक डेविड पेट्रेस ने कहा, "हमने दुश्मन का हौसला तोड़ दिया है. आप और हमारे अफगान साथी आजाद और शांतिपूर्ण अफगानिस्तान के दुश्मनों पर जबर्दस्त दबाव डाल रहे हैं."
लेकिन कई आंकड़े पेट्रेस की बातों को चुनौती देते हैं. ब्रसेल्स स्थित इंटरनैशनल क्राइसिस ग्रुप ने अगस्त में अपनी रिपोर्ट में कहा कि तालिबान के कब्जे वाले जिलों की तादाद बढ़ती जा रही है. हिंसा उन इलाकों में भी फैल रही है, जो अब तक शांत थे.
कई सर्वेक्षणों में बार बार यह बात सामने आ रही है कि अफगानों के लिए सबसे बड़ा मुद्दा सुरक्षा है. पिछले छह साल से कंधार में बच्चों के लिए शिक्षा केंद्र चलाने वाले एहसानुल्ला खान कहते हैं कि उनकी जिंदगी लगातार खतरे में हैं. वह बताते हैं, "तालिबान ही नहीं, कट्टरपंथी सरकारी अफसर, कबायली नेता और मेरे अपने पड़ोसी भी लड़कियों के स्कूल जाने पर एतराज करते हैं. मैंने कंधार छोड़ा तो मेरा कत्ल हो जाएगा. वैसे यहां भी कुछ भरोसा नहीं. मुझे लुक छिपकर रहना होता है. कहां है सुरक्षा? कहां है आजादी?"
आंकड़े बोलते हैं
संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक पिछले तीन महीनों में हर महीने 2108 हिंसक वारदात हुई हैं, जो पिछले साल में इसी अवधि के मुकाबले 39 फीसदी ज्यादा है. अंतरराष्ट्रीय फौजों के लिए पिछला साल सबसे ज्यादा घातक साबित हुआ. इसमें 700 से ज्यादा जवानों की जान गई. दिनदहाड़े होने वाले हमलों की तादाद बढ़ी है. जून में आतंकियों ने काबुल के होटल इंटरकॉन्टिनेंटल पर हमला किया. सितंबर में अमेरिकी दूतावास और नाटो मुख्यालय को 20 घंटे तक बंधक बनाकर रखा गया. काबुल में सीआईए के एक अफसर की उसके दफ्तर में ही हत्या कर दी गई. देश के उत्तरी हिस्से में बड़े पुलिस अफसरों और सरकारी नुमाइंदों के कत्ल में भी इजाफा हुआ है. पिछले महीने ही पूर्व राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी को उनके घर में कत्ल कर दिया गया.
अमेरिकी जनरल कहते हैं कि इन हमलों से दुश्मन की हताशा जाहिर होती है. लेकिन लोग कहते हैं कि यह कैसी हताशा जिसमें तालिबान लगातार ताकतवर होते जा रहे हैं और उनकी पहुंच राजधानी काबुल तक हो गई है.
आम अफगान को अब एक नया ही डर सता रहा है कि 2014 में विदेशी फौजियों के चले जाने के बाद मुल्क में फिर से गृह युद्ध की आग न धधक पड़े. उत्तरी पंजशीर घाटी में रहने वाले बुजुर्ग हामिदुल्लाह कहते हैं, "अमेरिका पाकिस्तान की मदद कर रहा है. पाकिस्तान तालिबान की मदद कर रहा है. मेरी जमीन बर्बाद हो रही है."
रिपोर्टः एपी/वी कुमार
संपादनः ए कुमार