दोराहे पर खड़ा है मध्य पूर्व
१६ फ़रवरी २०११तीन दशकों तक हुस्नी मुबारक मध्यपूर्व में अमेरिका के प्यारे नेता रहे. अब उनके पतन को लोकतंत्र की जीत के जश्न के तौर पर देखा जा रहा है, और जाहिर है कि लोकतंत्र की जीत का मतलब है पश्चिम के विचारों की जीत. दूसरी ओर, ईरान इसे 1979 की इस्लामी क्रांति से प्रेरित जनता की लहर के तौर पर पेश कर रहा है.
अमेरिका की ओर से यह आरोप भी लगाया जा रहा है कि ईरान मध्य पूर्व में जनता के विद्रोह की रोशनी में अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर रहा है.
नेशनल ईरानियन अमेरिकन काउंसिल के अध्यक्ष ट्रिटा पारसी का कहना है कि अमेरिका के स्वर में आने वाले दिनों में और तेजी आ सकती है. उनकी राय में दोनों देश मध्य पूर्व में अपनी दांव लगा रहे हैं और ईरान आश्चर्यजनक रूप से अब मध्य पूर्व में अमेरिका के प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभर रहा है. पारसी की राय में मुबारक के पतन से अमेरिकी प्रशासन में बेशक कुछ घबराहट दिखाई दे रही है.
इसी तरह, अमेरिका की एक प्रमुख विदेश नैतिक सलाहकार सुजान मैलोनी का कहना है कि पिछले सालों के दौरान इराक और लेबनान जैसे गैर-शिया देशों और फिलिस्तीनी क्षेत्र में ईरान का असर बढ़ा है.
उल्लेखनीय शिया आबादी वाले यमन और बहरीन में जनता का विरोध बढ़ने से यह असर और बढ़ सकता है. जहां तक अमेरिका का सवाल है, तो मैलोनी का कहना है कि यह अब पक्का नहीं है कि मिस्र की भावी सरकार अमेरिकी शांति योजनाओं का समर्थन करेगी.
लेकिन दीर्घकालीन रूप से स्थिति अमेरिका के लिए बेहतर हो सकती है. मैलोनी ध्यान दिलाती हैं कि मिस्र और ट्यूनिशिया के विद्रोह से पहले मध्य पूर्व में वीरता का मतलब अमेरिका का विरोध करना था. अब उसका मतलब दमन का विरोध करना है, और इस कसौटी पर ईरान भी दमन करने वाली ताकतों की पांत में खड़ा दिखाई दे सकता है.
लेकिन जितनी आसानी से मिस्र और ट्यूनिशिया की सरकारें गिरी, ईरान में वैसा संभव नहीं है. और इस नए ज्वार की विचारधारा को निश्चित रूप से समझना एक समस्या बनी हुई है. और ऐसी हालत में अमेरिका व दूसरे पश्चिमी देश इसे एक लोकतांत्रिक विकल्प के रूप में पेश करेंगे, जबकि ईरान को इस्लामपंथ की गाड़ी आगे बढ़ती हुई दिखेगी. सच्चाई शायद दोनों के बीच में है.
रिपोर्ट: एजेंसियां/उ भट्टाचार्य
संपादन: अशोक कुमार