धान के खेत में सूखी क्रांति
२ अगस्त २०११एशिया में धान की खेती करने वालों के सामने बड़ी चुनौती है. मौसम के खराब मिजाज के कारण फसल नष्ट हो रही है और उपज कम हो रही है. किसान गेसलर बैनिनान बताते हैं, "हमारे खेत की उपज परिवार का पेट ही नहीं भर पाती, लाभ की बात तो दूर ही है. इसलिए मुझे अतिरिक्त धन कमाने के लिए शहर जाना पड़ता है. लकड़ी तराश कर मैं थोड़ा कमा लेता हूं. सिर्फ धान की खेती करके आजीविका कमाना अब संभव नहीं."
एशिया में कहा जाता है कि बिना चावल के भोजन कोई भोजन नहीं होता. दुनिया के आधे से ज्यादा लोग चावल खाते हैं और हर साल इनमें लाखों की बढ़ोतरी होती है.
ईरी में शोध
मनीला के दक्षिण में स्थित धान शोध संस्थान आईआरआरआई (ईरी) का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण अरबों लोगों को अनाज नहीं पहुंच पा रहा. लेकिन नई प्रजाति न केवल उपज बढ़ाएगी बल्कि मौसम के मिजाज का भी उस पर असर नहीं होगा.
विरोधाभासी बात तो यह है कि धान की खेती खुद ही जलवायु परिवर्तन के कारणों में एक है. जर्मनी के जीव वैज्ञानिक राइनर वासरमान ईरी में इस तथ्य पर शोध कर रहे हैं. धान के खेतों में पानी भरा रहता है. पानी में ऐसी प्रक्रियाएं होती हैं जो मीथेन पैदा करती हैं. इस पर जर्मनी के जीव विज्ञानी राइनर वासमान ईरी में शोध कर रहे हैं. "ये जीवाणुओं का काम है. वैसे तो ये बैक्टीरिया धान के खेत में जमा हुए ऑर्गेनिक मटेरियल को विघटित करते हैं. कई बार जैविक खाद का इस्तेमाल होता है. लेकिन अगर पानी से भरे रहने पर मिट्टी को ऑक्सीजन नहीं मिलता तो वहां जैविक खाद में एनेरोबिक डिग्रेडेशन शुरू हो जाता है और इसका आखिरी उत्पाद मीथेन होता है."
क्रांतिकारी तरीका
मीथेन गैस के उत्सर्जन को रोकने का सबसे अच्छा और क्रांतिकारी तरीका यही है कि धान के खेतों को थोड़े समय के लिए बार बार सूखने दिया जाए. "बहुत ही आसान है, ये जीवाणु ऑक्सीजन नहीं झेल पाते. जैसे ही ताजी हवा जमीन में जाती है मीथेन का निकलना अपने आप रुक जाता है. इसमें एक और अच्छी बात हो सकती है. सूखने पर ऐसे जीवाणु काम करने लगते हैं जो मीथेन गैस पचा लेते हैं."
गेंहू से अलग धान को बढ़ने के लिए बहुत ज्यादा पानी की जरूरत होती है. खेतों में पानी भरने के और भी फायदे हैं. इससे खरपतवार नहीं उगती. लेकिन पानी लगातार कम हो रहा है. सिर्फ बरसात पर अब भरोसा नहीं किया जा सकता. इसलिए पानी पंप करके खेतों में डालना पड़ता है. एक किलो धान के लिए करीब पांच हजार लीटर पानी.
पानी की कमी
किसान मानुएल अपोलोनियो खेत में पानी पर नजर रखते हैं, वह भी पानी बचाना चाहते हैं क्योंकि पंप के लिए ईंधन महंगा है. वह बताते हैं, "इसमें कोई दो राय ही नहीं है कि धान की खेती में खर्च का बड़ा कारण पंप है. आसान हिसाब है, जब पंप एक घंटा चलता है तो आठ लीटर डीजल खर्च होता है. एक हेक्टेयर खेत में पानी भरने के लिए पंप कम से कम तीन चार घंटे चलाना ही पड़ता है."
इसी खर्च के कारण राइनर वासमान को उम्मीद है कि किसान उनकी खेती का इस्तेमाल कर लेंगे. इससे उनका डीजल का खर्च बचेगा और मीथेन बनाने वाले जीवाणु भी खत्म हो सकेंगे. लेकिन बहुत कम पानी से पूरी फसल बर्बाद हो सकती है. किसान को खेत पर नजर रखनी जरूरी है. वासमान के मुताबिक "जमीन में अभी नमी है. जबकि किसान ने मुझे बताया कि आठ दिन से यहां पानी नहीं भरा है. अब यहां पानी भर देना चाहिए. सूखे से पौधे को बचाने के लिए इसमें अगले दिन पानी भर दिया जाएगा. कुल मिला कर पानी भरने का समय ऐसे तय करना है कि पौधे को पानी की कमी न हो और उपज भी पहले जितनी ही हो."
सूखी क्रांति
धान की सूखी खेती एक क्रांति है और मीथेन गैस का उत्सर्जन रोकने के लिए आसान तरीका. ईरी में लगातार कोशिश की जा रही है कि धान की खेती इको फ्रेंडली बनाई जा सके. क्योंकि वैज्ञानिक कोशिश कर रहे हैं कि धान भी मौसम की मार सह सके. हर दिन धान की नई प्रजाति आ रही है और ईरी के सीड बैंक में पहले से ही धान की सवा लाख प्रजातियों के बीज इकट्ठा किए जा चुके हैं. कई खारे सूखे या बाढ़ के बावजूद उगते हैं तो कुछ बीज खारे पानी में भी. प्रयोगशाला में जीव विज्ञानी इन खासियतों के लिए जिम्मेदार जीन की तलाश में लगे हैं ताकि पहले से सफल प्रजाति के साथ क्रॉस किया जा सके. प्रयोग के लिए बनाए गए ईरी के खेतों में फिलहाल वह धान उगाया गया है जो जलवायु परिवर्तन और संसाधनों की कमी के बावजूद अच्छी उपज देगा और चार अरब लोगों का पेट भरेगा.
क्रांति से क्रांति तक
2,000 साल पहले बनाउए की पहाड़ियों में धान के खेतों का बनाया जाना एक क्रांति ही थी. आज भी इससे कई सौ परिवारों का पेट भरता है. कई पीढ़ियों ने मुश्किलों से सीख ली और नई प्रजातियां बनाई और उपज बढ़ाई. किसान बैनिनान कहते हैं, "हम धान की खेती जारी रखेंगे. जब तक मैं युवा हूं अपने माता पिता की मदद करूंगा ताकि वे लंबे समय जिए. धान की खेती के बारे में जानकारी हमें हमारे पुरखों से मिली है. वे भी इन पहाड़ों में खेती करते थे. यह हमें अपने बच्चों को भी सिखाना है." कई सौ साल पुराने इसी ज्ञान के आधार पर जीव विज्ञानी धान की खेती की चुनौतियों का सामना कर सकते हैं.
रिपोर्टः कार्ल गियरश्टॉर्फर/आभा एम
संपादनः ईशा भाटिया