नदियों को जल्द जोड़ने का फरमान
२७ फ़रवरी २०१२सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा है कि वो नदियों की जोड़ने की योजना को समयबद्ध तरीके से पूरा करे. चीफ जस्टिस एसएच कपाड़िया की अध्यक्षता वाले तीन जजों की बेंच ने इसके लिए बकायदा कमेटी बनाने का भी निर्देश दिया है जो योजना बनाने और उस पर अमल की निगरानी करेगी. कमेटी में केंद्रीय जल संसाधन मंत्री, पर्यावरण और वन, जल संसाधन, योजना आयोग और वित्त मंत्रालयों से नियुक्त चार विशेषज्ञ, पर्यावरण और वन मंत्रालय के सचिव के साथ ही सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी शामिल किया गया है. इसके अलावा कोर्ट केस में मदद कर रहे वरिष्ठ वकील रंजीत कुमार को भी इसका सदस्य बनाने के लिए कहा गया है.
बीजेपी नेता अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने यह योजना तैयार की थी. तब प्रमुख रूप से दो हिस्सों में बंटी भारत की नदियों को बड़ी बड़ी नहरों के जरिए जोड़ कर अतिरिक्त पानी को सूखा वाले इलाकों तक पहुंचाने की योजना बनी. 2002 में बीजेपी की बनाई कमेटी ने रिपोर्ट दी और तब की सरकार ने इसमें खासी दिलचस्पी भी दिखाई, लेकिन 2004 में सरकार बदलने के बाद से इस पर कुछ नहीं हुआ.
कितना कारगर है नदियों को जोड़ना
भारत के वरिष्ठ पत्रकार मुकेश सिंह ने इस परियोजना और उसके परिणामों की गहरी छानबीन की है उन्होंने प्रभावित इलाकों का विस्तार से दौरा भी किया है. डॉयचे वेले से बातचीत में उन्होंने बताया कि यह एक शानदार परियोजना है जिसके बेहतरीन नतीजे हो सकते हैं, "भारत में हर साल कुछ हिस्से सूखा झेलते हैं तो कुछ बाढ़. बीते सालों में इस समस्या के स्थायी समाधान के लिए कुछ नहीं हुआ. अगर नदियों को जोड़ने का काम हो सके इससे समस्या खत्म होगी और उन इलाकों तक भी पानी पहुंचाया जा सकता है जिनके बारे में फिलहाल सोचना भी मुश्किल है." जिन नदियों में अतिरिक्त पानी मौजूद है, उनसे उन हिस्सों को पानी दिया जा सकेगा जहां इसकी कमी है. इसके अलावा पूरा जल संसाधन एक व्यवस्थित रूप में इस्तेमाल हो सकेगा.
कठिन है डगर
समस्या यह है कि इस परियोजना को पूरा करने की राह में कई मुश्किलें हैं. मुकेश सिंह के मुताबिक, "पहली दिक्कत तो यह है कि भारत जैसे विशाल देश में नदियों को जोड़ने के लिए अलग अलग राज्यों को एक साथ आना होगा, उसके बाद उससे प्रभावित और विस्थापित लोगों की बारी आएगी जो जाहिर है कि इसका विरोध करेंगे. एक बड़ी भूमिका पड़ोसी देश नेपाल की भी है जिससे होकर भारत के कई हिस्सों में नदियों का पानी पहुंचता है. इन सब को राजी करना और हर किसी के हित का ख्याल रखना मुश्किल काम है." एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि केंद्र की इस योजना का अमल पूरी तरह से राज्य सरकारों की मर्जी पर निर्भर है.
सिंह मानते हैं कि भारत के राजनेताओं में इस तरह की इच्छाशक्ति नजर नहीं आती जो इस तरह की बड़ी परियोजना के लिए जरूरी है. उनके मुताबिक, "बीजेपी ने इसकी योजना जरूर बनाई लेकिन राजनीतिक लाभ लेने के अलावा उनके शासनकाल में भी इस पर कुछ खास काम नहीं हुआ. कांग्रेस की तो बात ही छोड़िए उसकी दिलचस्पी तो कभी इस तरह की किसी योजना में दिखी ही नहीं. यह राष्ट्रीय राजमार्गों की स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना की तुलना में 100 गुनी ज्यादा मुश्किल, बड़ी, खर्चीली और चुनौतियों से भरी है और उसके लिए जरूरी इच्छाशक्ति किसी पार्टी या नेता में नजर नहीं आती."
नुकसान और फायदा
आंकड़े बताते हैं कि 1982 से 2010 के बीच हर साल 4,614 लोगों की मौत प्राकृतिक आपदाओं में हुई. हर साल औसतन 50 लाख लोगों का जीवन इनसे प्रभावित हुआ और हर साल करीब 75 अरब रुपये का नुकसान हुआ. अगस्त 2006 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उड़ीसा के सूखा प्रभावित इलाकों का दौरा इसलिए नहीं कर पाए क्योंकि भारी बारिश से उनका हेलीकॉप्टर भुवनेश्वर से उड़ान नहीं भर पाया. भारी मन से प्रधानमंत्री ने वहीं से राहत पैकेज का एलान किया और लौट गए.
राज्य का एक हिस्सा भारी सूखे की चपेट में था तो दूसरा भारी बारिश और बाढ़ की और यह कहानी सिर्फ उड़ीसा की नहीं पूरे देश की है. हर साल देश के कुछ हिस्से सूखे का दंश झेलते हैं तो कुछ इलाके साल के कुछ महीनों में देश के बाकी हिस्से से बाढ़ की वजह से कटे रहते हैं. यह स्थिति बदल सकती है अगर नदियों को जोड़ने की योजना अमल में लाई जाए. इस पूरी योजना पर करीब 5000 अरब रुपये का खर्च आएगा.
भारत में फिलहाल पैसे से ज्यादा बड़ा मसला लोगों को रजामंद करने और राजनीतिक इच्छाशक्ति की है. मुकेश सिंह मानते हैं कि अगर सरकार चाहे तो इसे छोटे छोटे चरणों में लागू कर लोगों को इसके फायदे का अहसास करा सकती है और तब शायद खुद ही लोगों को इसके विरोध का औचित्य नजर न आए. विकास चाहिए तो कीमत तो चुकानी पड़ेगी ही फैसला आपके हाथ में है.
रिपोर्टः पीटीआई/एन रंजन
संपादनः ए जमाल