नीतीश की ईमानदारी से बच गए येदियुरप्पा
२४ नवम्बर २०१०घोटाले होते हैं. उनकी जांच होती है. कुछ दिनों के बाद मामले ठंडे भी पड़ जाते हैं. लेकिन पिछले सालों में यह भी देखा गया है कि कम से कम राजनीतिक जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए नेताओं को जाना पड़ा है. लेकिन वे आसानी से नहीं जाते हैं. काफी खींचातानी होती है, जिनके चलते विरोधी पार्टियों को मौका मिलता है. पार्टियों के केंद्रीय नेतृत्वों की कोशिश रहती है कि जल्द से जल्द ऐसे मामलों को सुर्खियों से हटाया जाए, भले ही इसकी खातिर असरदार नेताओं की बलि चढ़ानी पड़े.
यही वजह है कि कॉमनवेल्थ गेम्स के बाद आयोजन समिति के मुखिया सुरेश कलमाडी को जाना पड़ा, आदर्श मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण भी गए, यूपीए के साथी डीएमके को ए राजा को हटाने के लिए मजबूर होना पड़ा. लेकिन 2जी स्पैक्ट्रम स्कैम का मामला थोड़ा लंबा ही खिंच रहा है, प्रधानमंत्री के एफिडेविट पर भी खबरें छप रही हैं, संयुक्त संसदीय समिति, यानी जेपीसी द्वारा जांच की मांग हो रही है. विपक्ष, खास कर बीजेपी इस मांग को छोड़ने को तैयार नहीं है.
ऐसी हालत में कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा अपने घोटाले के साथ खबरों की सुर्खियों के बीच टपक पड़े थे. प्रादेशिक बीजेपी में भी दो धड़े दिख रहे थे, पंचायत चुनाव में तय जीत पर सवालिया निशान लगने लगा था, लिंगायत-वोक्कालिगा-ब्राह्मण वाली सोशल इंजीनयरिंग अचानक खतरे में थी. और येदियुरप्पा कह रहे थे कि केंद्रीय नेतृत्व का जो भी फैसला होगा, उसे वे मानेंगे. लोग कुछ और समझते रहे, लेकिन इसका मतलब था कि वे इस्तीफा नहीं देंगे.
और इस लिहाज से बिहार के चुनाव परिणाम अखबारों की सुर्खियों पर झाड़ू लगाने का काम करेगा. अशोक रोड के बीजेपी मुख्यालय में अब मालाओं और लड्डुओं का मौसम होगा. तुरंत तय किया गया कि येदियुरप्पा डंके की चोट पर बने रहेंगे. अगले डंके तक?
लेकिन बिहार चुनाव परिणाम के कुछ दूरगामी असर भी होंगे. नीतीश कुमार की राजनीतिक काया अब काफी बड़ी दिख रही है. लालू यादव की काया जितनी छोटी हुई है, उससे भी बड़ी. क्या यह बीजेपी के फायदे में होगा?
लेख: उज्ज्वल भट्टाचार्य
संपादन: ए कुमार