नेपाल में हिंदी फिल्मों पर रोक
८ अक्टूबर २०१२नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने पिछले हफ्ते देश भर के सिनेमा घरों में 10 दिन के लिए बॉलीवुड फिल्में दिखाना बंद करने की मांग की. उनका कहना है कि इन फिल्मों की वजह से नेपाल में भारत का असर बढ़ रहा है. इसी साल जून में इस पार्टी का गठन हुआ और इसमें दशक भर चले नेपाली गृह युद्ध के दौरान विद्रोह में शामिल रहे कुछ लोग भी शामिल हैं. इस पार्टी ने कुछ ही दिन पहले भारतीय नंबर प्लेट वाली गाड़ियों के नेपाल सीमा में घुसने पर रोक लगाने के लिए भी अभियान चलाया था. इस गुट के सदस्यों ने विरोध जताने के लिए स्कूल बसों में आग लगाई और काठमांडू कॉलेज के कंप्युटर तोड़े.
काठमांडू यूनिवर्सिटी में आईटी की पढ़ाई कर रहे 20 साल के कौशल राज सपकोटा हिंदी फिल्मों के बड़े शौकीन हैं. सपकोटा कहते हैं, "यह मेरे अधिकारों का हनन है. सप्ताहांत में मैंने मेरी पसंदीदा हिंदी फिल्म देखी होती, लेकिन इस पाबंदी ने मेरी योजना ध्वस्त कर दी. ये लोग अपनी ऊर्जा बेकार के अभियान में खर्च कर रहे हैं. हम सब लोग हिंदी फिल्में देखते हैं. अब हमें पाइरेटेड सिनेमा देखने पर मजबूर होना होगा." सीपीएन(एम) की मांग के आगे झुकते हुए नेपाल के 100 सिनेमाघरों ने हिंदी फिल्म दिखाना बंद कर दिया है. हालांकि इन सिनेमाघरों में सबसे ज्यादा दर्शक इन्हीं फिल्मों के लिए आते हैं.
सीपीएन(एम) सत्ताधारी माओवादियों से ही टूट कर अलग हुआ गुट है. इस गुट का मानना है कि मुख्यधारा के माओवादियों ने सिद्धांतों को छोड़ दिया है और गृह युद्ध के दौरान विद्रोहियों के बलिदान को भुला दिया गया है. पार्टी प्रवक्ता पंफा भूसल का कहना है कि बॉलीवुड के विरोध के लिए चल रहा अभियान भारत के साथ बराबरी का रिश्ता हासिल करने के लिए है. भूसल ने कहा, "हम बराबरी के बर्ताव के लिए लड़ रहे हैं. चाहे बड़े हों या छोटे नेपाल और भारत दोनों स्वतंत्र देश हैं. बॉलीवुड फिल्में नेपाल के खिलाफ नफरत फैलाती हैं. नेपाली लोगों को सुरक्षाकर्मियों या नौकरों के रूप में दिखाया जाता है. इससे हमारा अपमान होता है. वे हमारी भावनाओं को ठेस पहुंचाते हैं."
गृह युद्ध थमने के बाद 2008 के चुनावों में माओवादियों को जीत मिली और पिछले साल बाबुराम भट्टराई पूर्व विद्रोहियों में दूसरे ऐसे नेता हैं जिन्होंने सरकार बनाई. उन्होंने शांति प्रक्रिया शुरू होने के बाद नेपाल के चौथे प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली. नेपाल के राजनीतिक हालत पर बारीक नजर रखने वाले विश्लेषक नारायण वागले कहते हैं कि अलग अलग पार्टियों के मतभेदों के कारण राष्ट्रीय राजनीति में ठहराव आ गया है. ऐसे में कट्टर माओवादी इसे एक मौके के रूप में देख रहे हैं.
नारायण वागले ने कहा, "जंग खत्म हो गई है लेकिन अभी शांति नहीं आई है. लोग अभी भी डरे हुए हैं और माओवादियों ने हमेशा लोगों के गुस्से को भड़काया है." वागले का यह भी कहना है, "नेपाल जैसे गरीब देश में डर का मनोविज्ञान काफी असरदार हो सकता है. माओवादियों ने जंग के दौरान यह साबित भी किया है और वो डर का माहौल बनाए रखना चाहते हैं ताकि उनकी चलती बनी रहे."
जानकार यह भी मान रहे हैं कट्टरपंथी धड़ा प्रचंड के खिलाफ पूर्व विद्रोहियों के मन में पल रहे गुस्से को भी भुनाने की फिराक में हैं. कई पूर्व विद्रोही प्रचंड पर जंग खत्म होने के बाद सत्ता के आकर्षण में फंस जाने का आरोप लगाते हैं. साप्ताहिक पत्रिका नेपाल वीकली में राजनीतिक विषयों पर लिखने वाले माधब बास्नेट का कहना है, "अलग होने के बाद उन्हें अपनी ताकत दिखानी है. दूसरे जंग के जो कारण थे, गरीबी और बेरोजगारी वो आज भी वैसे ही हैं. इसलिए वो ऐसे मुद्दों को लेकर आए हैं."
नेपाल के माओवादी पहले से भी भारत के खिलाफ रहे हैं और उस पर देश के आंतरिक मामले में दखल देने का आरोप लगाते हैं. नेपाल को ईंधन की सप्लाई केवल भारत के रास्ते से होती है. इसके अलावा हिंदुओं की बहुलता वाले दोनों देश सांस्कृतिक रूप से भी एक दूसरे के बेहद करीब हैं. नेपाल की कामचलाऊ सरकार ने इसी साल 22 नवंबर को देश में संसदीय चुनाव कराने का एलान किया है.
एनआर/एमजे (एएफपी)