पश्चिम बंगाल में फिर सिर उठा रहा है माओवाद
८ सितम्बर २०२०इससे पहले बीते महीने भी माओवादियों ने लोगों से स्वाधीनता दिवस समारोहों के बहिष्कार की अपील की थी. अब पुलिस महानिदेशक वीरेंद्र समेत कई वरिष्ठ अधिकारियों ने इलाके का दौरा कर स्थिति की समीक्षा की है. कोई नौ साल से इलाके में माओवाद का कोई नामोनिशान नहीं था. उससे पहले माओवादी सक्रियता की वजह से इलाके के तीन जिलों, पश्चिम मेदिनीपुर, बांकुड़ा और पुरुलिया को जंगल महल कहा जाता रहा है. बाद में ममता बनर्जी सरकार ने पश्चिम मेदिनीपुर का हिस्सा रहे झाड़ग्राम को भी जिले का दर्जा दे दिया. दूसरी ओर, इस मुद्दे पर राजनीतिक टकराव भी तेज हो गया है. सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने बीजेपी का नाम लिए बिना इन पोस्टरों को जहां एक साजिश बताया है वहीं बीजेपी का आरोप है अगले साल होने वाले चुनावों से पहले सियासी फायदे के लिए टीएमसी माओवाद को बढ़ावा दे रही है.
ताजा मामला
पश्चिम बंगाल के झारखंड से लगे इलाकों में बीते नौ वर्षों से माओवाद का कोई नामलेवा नहीं रहा है. वर्ष 2011 में उनके नेता किशनजी के पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने के बाद इलाके में शांति बहाल हो गई थी. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सत्ता में आने के बाद इलाके के आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए थोक के भाव विकास योजनाएं शुरू की थीं और उनका असर भी नजर आने लगा था. दो साल पहले भी एक बार इलाके में माओवादियों के सक्रिय होने की खबरें आई थीं. लेकिन पुलिस और इलाके में तैनात केंद्रीय बलों की चुस्ती की वजह से माओवादियों को दोबारा संगठित होने का मौका नहीं मिला.
लेकिन अब बीते सप्ताह के आखिर में इलाके में माओवादियों की ओर से लिखे धमकी भरे पोस्टरों के सामने आने से इलाके में आतंक फैल गया है. पहले इलाके में तैनात केंद्रीय बलों की कई टुकड़ियां अब हटा ली गई हैं. लेकिन राज्य सरकार ने इस मामले को गंभीरता से लेते हुए अगले ही दिन पुलिस महानिदेशक वीरेंद्र समेत कई वरिष्ठ अधिकारियों को मौके पर भेज दिया. वहां उन्होंने स्थानीय पुलिस औऱ प्रशासन के साथ बैठक में जमीनी परिस्थिति की समीक्षा की और जरूरी निर्देश दिए. इलाके में गश्त भी बढ़ा दी गई है. पुलिस को संदेह है कि अगले साल होने वाले अहम चुनावों से पहले माओवादी एक बार फिर संगठित होने का प्रयास कर सकते हैं. इसके अलावा कोरोना के दौर में लॉकडाउन के दौरान सरकार का पूरा ध्यान इस महामारी से निपटने में रहा है. इस वजह से शायद उन्होंने इलाके में पांव जमाने का प्रयास शुरू किया हो.
वैसे, इलाके में माओवादी पोस्टर मिलने की यह पहली घटना नहीं है. इससे पहले 15 अगस्त को मिले पोस्टरों में लोगों से स्वाधीनता दिवस समारोहों के बायकाट की अपील की गई थी. उसके बाद कुछ लोगों ने जंगल में माओवादियों को देखने का भी दावा किया. ताजा पोस्टरों में इलाके में सड़क बनाने वाले ठेकेदारों को धमकियां देते हुए काम बंद करने को कहा गया है. राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने भी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बहारी वाजपेयी की पुण्य़तिथि के मौके पर राजभवन में आयोजित एक समारोह में राज्य में माओवादियों के दोबारा संगठित होने का अंदेशा जताया था. उनका कहना था, "कुछ नेताओं की मदद से राज्य में माओवाद एक बार फिर सिर उठाने का प्रयास कर रहा है.”
झाड़ग्राम के पुलिस अधीक्षक अमित कुमार सिंह राठौड़ बताते हैं, "इलाके के भालूभेदा और आस-पास के दो-तीन गांवों में 10-12 पोस्टर बरामद किए गए हैं. हम इस मामले की जांच कर रहे हैं. अब तक किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया है.” इलाके के दौरे के दौरान वरिष्ठ अधिकारियों के साथ बैठक के बाद पुलिस महानिदेशक वीरेंद्र ने बताया था, "हमने हालात की समीक्षा की है. पुलिस को इलाके के गांवों में गश्त बढ़ाने को कहा गया है.”
कभी गढ़ था जंगल महल
झारखंड से सटे पश्चिम बंगाल का जंगल महल इलाका किसी दौर में माओवादियों का गढ़ रहा है. खासकर लेफ्टफ्रंट सरकार के दौर में तो इलाके में किशनजी के नेतृत्व में इन माओवादियों की तूती बोलती थी और हत्या और अपहरण रोजमर्रा की घटना हो गई थी. इलाके के लालगढ़ में 2 नवंबर, 2008 को तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के काफिले पर बारूदी सुरंग के जरिए जानलेवा हमला भी हुआ था. तब केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान भी इलाके में एक फैक्टरी के शिलान्यास के सिलसिले में वहां थे. वर्ष 2009 से 2011 के दौरान तो इलाके में माओवाद चरम पर पहुंच गया था. इस दौरान छह सौ से ज्यादा आम लोग और 50 से ज्यादा सुरक्षाकर्मी माओवादियों के हाथों मारे गए थे. इसके अलावा सुरक्षा बलों ने 80 माओवादी नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी मार गिराया था.
वर्ष 2011 में तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में आने के कुछ दिनों बाद ही 24 नवंबर को इलाके के सबसे बड़े माओवादी नेता कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी की एक पुलिस मुठभेड़ में मौत के बाद माओवादियों की कमर टूट गई थी. उसके बाद कई नेताओं ने हथियार डाल दिया था या फिर इलाका छोड़ कर चले गए थे. इलाके में पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं कि 1990 के दशक के आखिरी दौर में भी इलाके में इसी तरह के राजनीतिक फेरबदल की वजह से माओवादियों को अपने पांव जमाने में सहायता मिली थी. वर्ष 2010--11 के दौरान तो किशनजी के नेतृत्व में माओवादियों ने झाड़ग्राम के अलावा पुरुलिया, बांकुड़ा व पश्चिमी मेदिनीपुर के ज्यादातर हिस्सों पर अपनी पकड़ बना ली थी. लेकिन किशनजी की मौत के बाद रातों-रात संगठन बिखर गया था. उस दौर में इलाके में पांच सौ से ज्यादा माओवादी सक्रिय थे.
राजनीतिक विवाद
अब ताजा मामले के बाद सत्तारुढ़ टीएमसी और विपक्षी बीजेपी के बीच राजनीतिक विवाद भी शुरू हो गया है. दरअसल इसके पीछे टीएमसी का वह फैसला है जिसके तहत उसने पूर्व माओवादी छत्रधर महतो को पार्टी की एक समिति में शामिल किया है. छत्रधर महतो 10 साल बाद हाल में ही जेल से छूटे हैं. उनके खिलाफ वर्ष 2008 में बुद्धदेव के काफिले पर हमले का भी आरोप था. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष का आरोप है, "तृणमूल कांग्रेस जंगल महल में अपने पैरों तले खिसकी जमीन दोबारा पाने के लिए माओवदियों के नाम पर आतंक फैला रही है. मुख्यमंत्री ममता के अलावा परिवहन मंत्री शुभेंदु ने भी माओवादियों के साथ बैठक की है.”
लेकिन तृणमूल ने इस आरोप को निराधार बताते हुए इसे एक साजिश करार दिया है. उसका कहना है कि अगले साल होने वाले चुनावों को ध्यान में रखते हुए बीजेपी जैसे कुछ राजनीतिक दल अपने सियासी फायदे के लिए इलाके में आतंक फैलाने में जुटे हैं. पार्टी के महासचिव पार्थ चटर्जी कहते हैं, "इलाके में विकास की गंगा बह रही है. सरकार ने अब तक जंगल महल इलाके में दो हजार करोड़ से ज्यादा की विकास योजनाएं लागू की हैं. लेकिन कुछ लोग इलाके में आतंक फैलाने की साजिश रच रहे हैं.” राजनीतिक पर्यवेक्षक विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं, "बीते नौ वर्षों के दौरान इलाके में माओवादियों की सक्रियता की खबरें सामने नहीं आई थीं. लेकिन हो सकता है अब केंद्रीय बलों के हटने और अगले साल के चुनावों को ध्यान में रखते हुए संगठन के लोग दोबारा संगठित होने का प्रयास कर रहे हों. इस समस्या को गंभीरता से लेकर समय रहते एहतियाती कदम उठाना जरूरी है.”
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