पश्चिम में पढ़ाई, फिर भी तानाशाही
१७ अप्रैल २०१३उत्तर कोरियाई नौजवान शांत और चुपचाप रहता था, उस पर किसी का ध्यान नहीं जाता. जर्मन भाषा से उसे प्यार नहीं था. अक्सर वह जॉगिंग सूट पहनता. दूसरे विद्यार्थी उसे अजीबोगरीब समझते. उसका नाम था उन पाक. उत्तर कोरिया के किसी दूतावास कर्मी का बेटा. 1997 में छठी क्लास में उसने स्विट्जरलैंड की राजधानी बर्न के निकट लीबेफेल्ड श्टाइनहोएल्सली स्कूल में दाखिला लिया.
नाम बदल कर पढ़ाई
जोआओ मिकाइलो उन के साथ पढ़ता था और उसके गिनेचुने दोस्तों में था. मिकाइलो ने स्विस अखबार टागेसअनसाइगर को बताया कि एक दिन उन पाक ने अपना राज खोला, "मैं दरअसल राजदूत का बेटा नहीं हूं, मैं राष्ट्रपति का बेटा हूं." उन पाक ने मिकाइलो को उत्तर कोरिया के तत्कालीन राष्ट्रपति किम जोंग इल के साथ अपनी एक तस्वीर भी दिखाई. मिकाइलो ने सोचा, डींग हांक रहा है. लेकिन अब उन्हें भरोसा हो गया है कि उनका दोस्त ही उत्तर कोरिया का नया तानाशाह किम जोंग उन है. हालांकि उत्तर कोरिया ने इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं की है.
एक स्विस अखबार ने 2012 में एक नृशास्त्री को चेहरा मिलाने की जिम्मेदारी सौंपी थी. राउल पेरो ने उन पाक की तस्वीर उत्तर कोरियाई शासक की वर्तमान तस्वीर के साथ मिलाई. नतीजा था 95 प्रतिशत समानता. राउल पेरो कहते हैं, "मेरे लिए यह एक तथ्य है कि उन पाक और किम जोंग इल एक ही इंसान हैं." उत्तर कोरियाई युवक 2001 तक स्विट्जरलैंड के स्कूल में रहा. उसके बाद उसका कोई अता पता नहीं चला. उन के सत्ता संभालने के बाद जब पहली बार उनके स्विस स्कूल में पढ़ने की अफवाहें आईं तो बहुत से लोगों ने सोचा कि पश्चिम प्रवास ने उन की सोच पर सकारात्मक असर डाला होगा. लेकिन अब तक ऐसा नहीं लगता. उन्हें भले ही डिज्नीलैंड पसंद हो लेकिन सबसे जरूरी सत्ता में बने रहना लगता है.
लोकतंत्र से नाता नहीं
जर्मन राजनीतिशास्त्री गुंटर मायर कहते हैं, "तानाशाहों के बच्चे पश्चिमी देशों में लोकतंत्र की शिक्षा लेने नहीं आते." वे पश्चिमी देशों की जिंदगी को जानने और अच्छी शिक्षा पाने के लिए आते हैं. शिक्षा पूरी करने के बाद वे अपनी पुरानी संरचना में लौट जाते हैं, "वे एक सत्ता संरचना का हिस्सा हैं, जिसे वे छोड़ नहीं सकते." जो लोकतांत्रिक रुझानों में दिलचस्पी दिखाते हैं वे अपनी और अपने कुनबे की सत्ता को खतरे में डालते हैं.
मनोचिकित्सक प्रोफेसर योहान बेनोस ने अपनी किताब यूरोप के 20 तानाशाह में तानाशाहों के करियर की तुलना की है. उनका कहना है कि असल छाप परिवार में पड़ती है, "सबसे महत्वपूर्ण भूमिका पिता के बर्ताव की होती है." आम तौर पर तानाशाह बचपन में मार-पिटाई, धमकी और दुर्व्यवहार के शिकार होते हैं. "उन्होंने अपने पिता की बर्बरता झेली है, उनसे घृणा की है तो दूसरी ओर उनकी नकल भी की है." मानवीय शिक्षा संस्थान भी इसमें बहुत ज्यादा फेरबदल नहीं कर सकते.
एक और मिसाल सीरिया के बशर अल असद हैं. उन्होंने अपने जीवन का एक हिस्सा विदेशों में गुजारा है. असद ने डेढ़ साल लंदन में मेडिकल की पढ़ाई की. जब पिता की मौत के बाद उन्होंने गद्दी संभाली तो बहुत से प्रेक्षकों को पश्चिम में शिक्षित डॉक्टर से सुधारों की उम्मीद थी. मध्य पूर्व विशेषज्ञ गुंटर मायर कहते हैं, "उन्हें लोकतंत्र लाने वाला उदार शासक समझा गया, लेकिन उन्हें बहुत जल्द पता चल गया कि खुद अपनी और कुनबे की सत्ता को खतरे में डाले बिना सत्ता संरचना को बदलना संभव नहीं था." इसलिए असद ने अपने पिता की तानाशाही राजनीति को जारी रखा.
तानाशाहों के बच्चों की शिक्षा के जरिए लोकतंत्र के निर्यात की उम्मीद बेमानी है. लीबिया के अपदस्थ तानाशाह गद्दाफी के बेटे सैफ अल इस्लाम ने तो विख्यात लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में एक अहम थिसिस लिखी थी. उसका शीर्षक था, सरकारी संस्थानों के लोकतंत्रीकरण में नागरिक समाज की भूमिका. हालांकि जब लीबिया में अपने पिता और कुनबे की सत्ता बचाए रखने की बात आई तो सैफ लोकतंत्र के सारे सिद्धांत भूल गया और हथियारों का सहारा लिया. 2011 से वह लीबिया की जेल में है. अंतरराष्ट्रीय अदालत उस पर युद्ध अपराध का मुकदमा चलाने के लिए उसके प्रत्यर्पण की मांग कर रही है.
अर्थव्यवस्था को फायदा
राजनीतिक तौर पर तानाशाहों के बच्चों को पश्चिमी देशों में पढ़ाने का कोई फायदा भले ही न हो, गुंटर मायर का कहना है कि आर्थिक तौर पर यह फायदेमंद है. "वहां रिश्ते बनते हैं जिनसे, जहां तक ऑर्डर मिलने का सवाल है जर्मन अर्थव्यवस्था को भी बहुत ज्यादा फायदा पहुंचता है." यूरोप में शिक्षा पाने का मततब मानवीय तरीके से शासन करना सीखना है, यह दशकों पहले कंबोडिया के तानाशाह पोल पॉट के उदाहरण ने दिखाया है. अपने देश में विचारधारा के नाम पर लाखों लोगों की नृशंस हत्या करवाने वाले पोल पॉट ने पेरिस की एलीट यूनिवर्सिटी सॉरबॉन में पढ़ाई की थी.
यूरोप में पढ़ाई करने वाले सभी विदेशी छात्रों के मामले में लोकतंत्र का मुद्दा बेनतीजा नहीं रहता. गुंटर मायर कहते हैं, "यूरोप में पढ़ने वाले अरब देशों के बहुत से छात्रों ने अपने अपने देशों में उदारीकरण और धर्मनिरपेक्षता की संरचना तैयार करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है."
रिपोर्टः निल्स नाउमन/एमजे
संपादनः निखिल रंजन