फिल्मों में कितने जिंदा हैं गांधी?
२८ सितम्बर २०११फिल्म गांधी देखी है आपने? उसमें महात्मा गांधी की अंतिम यात्रा के सीन में तीन लाख लोग शामिल हुए हैं. फिल्म बनाने वालों ने 40,000 एक्स्ट्रा कलाकारों के लिए अखबारों में विज्ञापन दिया. जगह जगह पर्चे बांटे गए. और 31 जनवरी 1982 के दिन शूटिंग के लिए पहुंचे तीन लाख से ज्यादा लोग.
उनमें से सिर्फ 94,560 कलाकारों को ही पैसा दिया गया. बाकी अपनी खुशी से शामिल हुए. और यह तब था जबकि उन्हीं लोगों को शूटिंग में शामिल किया गया जो सफेद कपड़ों में आए.
यह सिनेमा का आकर्षण था या बापू के लिए भारत की दीवानगी... कौन कह सकता है. लेकिन इसीलिए शायद लोग कहते हैं कि गांधी पर अगर कोई फिल्म बनी है तो वह गांधी है. गांधीजी जनमानस के नेता थे. जनसंचार की पढ़ाई में पढ़ाया जाता है कि महात्मा गांधी से बड़ा कोई 'मास कम्युनिकेटर' यानी आम जन की भाषा समझने वाला और उन तक अपनी बात पहुंचाने वाला नहीं हुआ. लेकिन सबसे बड़े मास मीडिया यानी सिनेमा ने गांधी को ऐसा नजरअंदाज किया है कि हैरत होती है.
गांधी जी के प्रति बॉलीवुड की उदासी से फिल्म निर्देशक महेश भट्ट भी दुखी हैं. भट्ट कहते हैं, "बहुत कम लोग हैं जो गांधी जी की तरफ अहसास महसूस करते हैं." भट्ट कहते हैं कि अगर किसी की सोच बाजार से चलने वाली हो जाएगी तो उसमें गांधी जी कहां उतरेंगे.
बॉलीवुड कहां चूका
भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर अब तक गिनी चुनी फिल्में बनी हैं. उनमें भी ऐसी तो अंगुलियों पर गिनने लायक हैं जिनका जिक्र हो सके. और फिर जितनी लोकप्रिय रिचर्ड एटनबरो की गांधी हुई शायद ही उन पर बनी कोई ही दूसरी फिल्म हुई होगी. इस फिल्म में बेन किंग्सले ने गांधी का किरदार निभाया. फिल्म ने 8 ऑस्कर जीते. सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म के लिए इसे गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड भी मिला.
ऐसा क्यों हुआ कि विदेशी निर्देशक ने विदेशी कलाकार को मुख्य भूमिका में लेकर ऐसी शानदार फिल्म बना दी, और गांधी के अपने देश के लोग, जो गांधी को राष्ट्रपिता कहते हैं, उसकी टक्कर की फिल्म नहीं बना पाए?
फिल्म निर्देशक महेश भट्ट के पास बुनियादी वजह बताते हैं, "इस विषय पर शोध की कमी है. गांधी की तरफ एक विदेशी (रिचर्ड एटनबरो) वह जज्बा महसूस कर सकता था क्योंकि वह वस्तुपरक नजरिया था. शायद हम वैसा महसूस नहीं कर पाए. आज हमने गांधी जी को सिक्कों पर उतार दिया है.
हमारी सड़कें उनके नाम पर हैं. हमने उनकी मूर्ति हर जगह लगा रखी है. मगर हमने उनकी सोच को जिया नहीं. रिचर्ड एटनबरो ने सारी उम्र लगा दी एक अच्छी फिल्म बनाने में." महेश भट्ट मानते हैं कि हिंदुस्तानी सिनेमा ने गांधी जी के साथ इंसाफ नहीं किया.
गांधीवाद से गांधीगीरी तक
बॉलीवुड जब गांधी का जिक्र करता है तो
लगे रहो मुन्नाभाईपर सबसे ज्यादा इतराता है. और उसे खारिज भी नहीं किया जा सकता. संजय दत्त और अरशद वारसी की इस फिल्म ने गांधीवाद को नया शब्द दिया, गांधीगीरी. और गांधीगीरी से गांधीवाद को जैसे नया जन्म मिल गया. फिल्म के बाद गांधीगीरी की सूरत में गली गली में विरोध करते लोग इस बात के गवाह रहे कि गांधी कभी नहीं मर सकते.
फिर हे राम और गांधी माई फादर का जिक्र भी होना चाहिए जो बापू के व्यक्तित्व को बिना महानता का चोला ओढ़ाए दिखाती हैं. हालांकि इस बीच दूसरे ऐतिहासिक किरदारों पर बनी फिल्मों में गांधी दिखते रहे. लेकिन उन पर कोई बड़ी फिल्म नहीं बनी.
महेश भट्ट का कहना है, "यह सच मान लेना चाहिए कि बॉलीवुड में जो लोग हैं वे बिजनेसमैन हैं. वे पैसा बनाने के लिए पैसा लगाते हैं. वे किसी विचार को दुनिया के कोने कोने में पहुंचाने के लिए काम नहीं करते. बहुत कम लोग होते हैं जो कभी किसी विषय से इतने प्रभावित होते जिसे वह फिल्म में बदलते हैं."
क्या सच मनोरंजक नहीं?
फिल्मों के अलावा गांधी जी पर कई डॉक्युमेंट्री भी बनी हैं. इनमें 1963 में गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की मानसिकता को लेकर जेएस कश्यप ने नाइन आवर्स टू रामा बनाई. 1968 में एक डॉक्युमेंट्री महात्मा: लाइफ आफ गांधी बनी और फिर आई महात्मा गांधीः ट्वेंटिएथ सेंचुरी प्रोफेट. लेकिन इनके नाम बहुत कम लोगों को पता हैं. ऐसा क्यों हुआ कि उनके विचारों को सीधे सीधे पेश करना उतना सफल नहीं हो पाया?
हिंदी सिनेमा के जाने माने समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज कहते हैं, "गांधी को अगर बहुत ही सैद्धांतिक तरीके से पेश किया जाए तो हो सकता है कि आज का दर्शक पसंद न करे. गांधी को आप कैसे दर्शकों के सामने ले जा रहे हैं, वह ज्यादा जरूरी है. सीधे कहें तो ऐसा आपको मनोरंजक तरीके से ही करना होगा. डॉक्यूमेंट्री आप बनाना चाहेंगे तो हो सकता है कि लोग उसे पंसद न करें."
अपनी जिंदगी में महात्मा गांधी ने सिर्फ दो फिल्में देखीं. पहली फिल्म उन्होंने 74 साल की उम्र में 1943 में मिशन टू मॉस्को देखी. उसके बाद भारत में बनी एक फिल्म राम राज्य देखी. अपनी पसंदीदा किताब वाल्मीकि रामायण पर मराठी निर्देशक विजय भट्ट की बनाई यह फिल्म गांधी को काफी पसंद आई. लेकिन बस, इसके बाद उन्होंने फिल्म नहीं देखी. यानी कह सकते हैं कि फिल्मों से गांधी का नाता कम ही रहा. उनके आंदोलन के वक्त भी और उसके बाद भी.
रिपोर्ट: आमिर अंसारी
संपादन: वी कुमार