फेंकने के लिए बना सामान
१३ नवम्बर २०१२याद कीजिए आखिरी बार कब आपने सुना था कि ये रेडियो या फलां सामान मेरे पिता के जमाने से चला आ रहा है. आपने ध्यान दिया है कि आपका प्रिंटर, कॉफी मशीन या इसी तरह की दूसरी चीज कई बार गारंटी की अवधि खत्म होने के साथ ही खराब हो जाती है. क्या आपने कभी बहुत जल्दी डिस्चार्ज हो जा रहे स्मार्टफोन की बैटरी बदलने की कोशिश की है या फिर इस बात पर गौर किया है कि नोटबुक रिपेयर कराने में जितने पैसे लगेंगे उससे कम पैसे देकर आप नया और ज्यादा सुविधा वाला नोटबुक ले सकते हैं. अगर इन सब का जवाब हां है तो आप कंपनियों की उस सोची समझी रणनीति से दो चार हो रहे हैं, जो इन दिनों का नया चलन है.
अब कंपनियां लंबे समय के लिए सामान नहीं बना रही हैं. उनके लिए कम दिन चलने वाले सामान बनाना फायदेमंद साबित हो रहा है. सामान बनाने वालों के लिए इसका मतलब है कि कम खर्च और साथ ही इस बात की गारंटी हो जाती है कि कुछ ही दिनों बाद खरीदार फिर उनके दरवाजे पर होगा या तो उसे मरम्मत कराने के लिए या फिर नया खरीदने के लिए. बाजार को कारोबार मिल रहा है और खरीदार को नया सामान भले ही इसके लिए उसे पैसे देने पड़ रहे हो, लेकिन असली खामियाजा उठा रही है यह धरती, जिसकी गोद में कचरे का ढेर बढ़ता जा रहा है.
इलेक्ट्रॉनिक कचरा धरती, हवा और पानी के लिए तो नुकसानदेह है ही, साथ में यह जमीन का हिस्सेदार भी बन रहा है. कचरे को दबाने के लिए नई नई जगहें तैयार की जा रही हैं.
बड़ी कंपनियां ज्यादा गुनहगार
श्टेफान श्रीडल जर्मनी मे एक वेबसाइट चलाते है नाइन-डांके.डीई (जर्मन में नाइन डांके का मतलब है नहीं, धन्यवाद). इस वेबसाइट पर परेशान ग्राहक किसी सामान के खराब होने के अपने अनुभवों को बांटते हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत में श्रीडल ने कहा कि इलेक्ट्रॉनिक सामानों की आयु जान बूझ कर कम रखना बहुत आम बात है. श्रीडल की वेबसाइट पर दर्ज होने वाली शिकायतों में ज्यादातर इलेक्ट्रॉनिक्स, कंप्यूटर और टेलिकम्युनिकेशन से जुड़ी हैं. इनमें एप्सन, ब्रदर, फिलिप्स और एपल जैसी दिग्गज कंपनियों के नाम सबसे ज्यादा है. इस साल सात नवंबर तक दर्ज हुई शिकायतों के आंकड़े देखें तो कोरियाई कंपनी सैमसंग इनमें बहुत ज्यादा ऊपर है.
श्रीडल बताते हैं कि कंपनियां खर्च घटाने के लिए सामानों में धातु की जगह प्लास्टिक का इस्तेमाल करने लगी हैं. कोलोन इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक रिसर्च से जुड़े अर्थशास्त्री डोमिनिक एंस्टे भी इस बात से सहमत हैं. उनका कहना है, "कंपनियां अकसर उन चीजों का इस्तेमाल नहीं करती जो टिकाऊ हो सकती हैं." उनका कहना है कि इससे यह भी पता चलता है कि कंपनियां अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को गंभीरता से नहीं लेतीं.
दुनिया की समस्या
तेजी से खत्म होते सामान न सिर्फ ग्राहकों की जेब काट रहे हैं बल्कि कच्चे सामान की खपत भी बढ़ा रहे हैं. इलेक्ट्रॉनिक सामानों के लिए सोना, चांदी, तांबा और ऐसे दुर्लभ धातुओं की जरूरत होती है जो बेहद महंगे होते हैं. उत्पादन में ऊर्जा खर्च होती है और कई बार यह जहरीले तत्वों के रूप में पर्यावरण के लिए खतरा भी पैदा करती है. इन कीमती धातुओं को इलेक्ट्रॉनिक कचरे से अलग करने के लिए उन्हें जलाया जाता है और इससे भी लोगों की सेहत के लिए खतरा पैदा हो रहा है.
सबका नुकसान
अर्थशास्त्री एंस्टे ने ध्यान दिलाया है कि इन सब के लिए सिर्फ कंपनियां ही जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि ग्राहक भी कम दोषी नहीं हैं. उनका कहना है कि बहुत से लोग हमेशा लेटेस्ट चीजें खरीदना चाहते हैं. इससे भी समस्या हो रही है. श्रीडल और एंस्टे का यह भी कहना है कि बहुत से ग्राहक मानते हैं, सस्ता है तो अच्छा है और इस कारण बाजार सस्ते सामानों से अटा पड़ा है. ज्यादा मांग होगी तो सप्लाई और उत्पादन बढ़ेगा, इसके साथ ही अर्थव्यवस्था सुधरेगी और समृद्धि आएगी. लेकिन इन सब के साथ संसाधन का बेहतर इस्तेमाल और ज्यादा रिसाइक्लिंग करने की भी जरूरत है.
ग्राहक की ताकत
एंस्टे का कहना है कि बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में अच्छी बात यह है कि ग्राहक के हाथ में बहुत ताकत होती है और वह चाहे तो बहुत कुछ सुधार सकता है. लोग अगर सिर्फ वही चीजें खरीदें जो उनके लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त हैं, तो ऐसा कर के भी बदलाव लाया जा सकता है. इसके साथ ही लोगों को किसी भी चीज को खरीदते वक्त यह ध्यान में रखना होगा कि यह कितना टिकाऊ है, न सिर्फ इस्तेमाल के दौरान बल्कि उसके बाद भी. इसके लिए उन्हें यह भी देखना चाहिए कि सामान किन परिस्थितियों में बनाया गया, कितनी ऊर्जा खर्च हुई और कितना रिसाइकिल किये सामान का इस्तेमाल हुआ. जानकारी से लैस ग्राहक निश्चित रूप से यह फैसला बेहतर तरीके से कर सकेगा कि उसे पांच सालों में पांच सामान खरीदना है या फिर एक.
रिपोर्टः डिर्क काउफमान/ एसपी/एनआर
संपादनः मानसी गोपालकृष्णन