फ्रांस में बुर्के पर रोक का एक साल
११ अप्रैल २०१२मबरुका अपनी दो साल की बेटी के साथ पैरिस के उत्तरी हिस्से में अपने घर में खेल रही है. उनकी जिंदगी घर की चारदीवारियों में ही कटती है. वे घर से बहुत कम बाहर निकलती हैं. मबरुका फ्रांस की उन 2000 महिलाओं में हैं जो सर को ढकने के लिए बुर्का या नकाब पहनती हैं. एक साल से फ्रांस में खुलेआम बुर्का पहनने पर रोक है. तब से 30 वर्षीया मबरुका कभी कभार ही सामान खरीदने के लिए घर से बाहर निकलती है. वह अभी भी बुर्का पहनती है और इस बात का जोखिम उठाती है कि यदि पुलिस पकड़ ले तो उन्हें 150 यूरो जुर्माना देना होगा. उसका कहना है कि वह जब अपनी बेटी के साथ निकलती है तो पुलिस आंखे बंद कर लेती है. लेकिन उसके बैंक ने कह दिया है कि वह बुर्के में बैंक न आए. मबरुका ने अपने पति को पॉवर ऑफ एटॉर्नी दे दिया है.
राष्ट्रपति निकोला सारकोजी की कंजरवेटिव सरकार ने 11 अप्रैल 2011 को बुर्के पर प्रतिबंध लागू किया. इस उम्मीद में कि इससे सुरक्षा और समानता को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी और महिलाओं के सम्मान की रक्षा होगी. लेकिन जो लोग बुर्का छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं उनकी हालत नया कानून आने के बाद बिगड़ी है. मबरुका का कहना है कि बुर्के पर रोक के बाद से उसकी बहुत सी आजादी खत्म हो गई है और वह पहले से कहीं ज्यादा अपने पति पर निर्भर हो गई है. वह कहती है, "अपनी शादी से पहले मैं पांच साल तक काम करती थी. तब भी मैं बुर्का पहनती थी, सामान्य रूप से बस और ट्रेन में सफर करती थी, लंबी यात्राओं पर जाती थी या दोस्तों के साथ बाहर निकलती थी. अब मुझे अपने घर में रहना पड़ रहा है.
बड़ा बवाल, थोड़े लोग
हालांकि बुरके पर प्रतिबंध के लिए भारी बहस हुई थी, विवाद उठे थे, लेकिन बहुत कम महिलाएं इससे प्रभावित हैं. फ्रांस के कानून मंत्रालय के अनुसार पहले छह महीनों में 100 मामलों में पुलिस ने महिलाओं को बुर्के में पकड़ा. इनमें से 10 मामले अदालत तक पहुंचे. मसलन हिंद अहमास और नजत नइत अलित के मामले. वे पैरिस के निकट मौ शहर के मेयर जां फ्रांसोआ कोप को केक देने जा रहे थे जब उन्हें पुलिस ने पकड़ा और 120 और 80 यूरो फाइन किया. कोप को बुर्के पर प्रतिबंध का जनक समझा जाता है. अहमास और अली का कहना है कि बुर्के पर रोक उनकी व्यक्तिगत और धार्मिक आजादी का हनन करता है और जरूरत पड़ने पर वे इस मामले को यूरोपीय अदालत तक ले जाएंगी.
फ्रांस में मुसलमानों की बड़ी आबादी बुर्का नहीं पहनती. वे बुर्का कानून से नहीं बल्कि एक दूसरे कानून से परेशान हैं. 2004 से सरकारी स्कूलों में धार्मिक चिन्हों पर प्रतिबंध है. यह नियम छात्रों और टीचरों दोनों पर लागू है. उन पर भी जो सर पर बांधा जाने वाला छोटा स्कार्फ पहनते हैं.
रोक उठाने के लिए समर्थन नहीं
फ्रांस में मुस्लिम आबादी का हिस्सा 9 फीसदी है जो यूरोप में सबसे ज्यादा है. अधिकांश मुसलमान उत्तरी अफ्रीकी मूल के हैं जहां अल्जीरिया, मोरक्को या ट्यूनीशिया में फ्रांसीसी उपनिवेश हुआ करते थे. आप्रवासियों को अक्सर फ्रांसीसी धर्मनिरपेक्षता से मुश्किल होती है, जिसमें धर्म और सार्वजनिक जीवन के बीच सख्त विभाजन है. एक सिद्धांत जिसे राजनीतिक हल्के में व्यापक समर्थन है.
पूर्व शहरी विकास मंत्री फदेला अमारा खुद अल्जीरियाई मूल की है और बुरका को "एक तरह का कब्र बताती है, उसमें कैद लोगों के लिए आतंक." लेकिन सारकोजी के विरोधी खेमे में भी बुरके पर रोक हटाने के लिए कोई समर्थन नहीं है. धर्मनिरपेक्षता उन थोड़े सिद्धांतों में है जिसने विभाजित वामपंथियों को एक कर रखा है. मुस्लिम महिलाओं के संगठन की नूरा जबल्लाह नहीं मानती कि समाजवादी उम्मीदवारा फ्रांसोआ ओलांद राष्ट्रपति चुनाव जीत भी जांए तो हालात नहीं बदलेंगे.
लोगों में कट्टरपंथी इस्लाम से डर है. पिछले महीने यह डर और बढ़ गया जब टुलूश में एक संदिग्ध अल कायदा समर्थक ने अलग अलग हमलों में सात लोगों को मार डाला जिनमें तीन बच्चे थे. हमले के बाद इस्लामी कट्टरपंथियों के ठिकानों पर पुलिस ने देश भर में छापे मारे हैं. जबल्लाह हमले की निंदा करती हुई कहती हैं, "वह कभी भी सचमुच इस्लाम या मुस्लिम आस्था से नहीं जुड़ा था." वे समाज में मुस्लिम महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रहों को दूर करने के प्रयास कर रही हैं. वे बुर्के पर प्रतिबंध के खिलाफ हैं, लेकिन उनका मानना है कि मुस्लिम महिलाओं को अपना चेहरा बुर्के के पीछे नहीं छुपाना चाहिए.
मेलजोल की राह में बाधा
पैरिस के बाहर मबरुका अपने को हाशिया पर धकेला हुआ और सार्वजनिक जीवन से काटा हुआ पाती हैं. वे दमित महिला की श्रेणी में भी नहीं आती. ट्यूनीशिया के आप्रवासियों के घर में पैदा हुई मबरुका यूनीवर्सिटी से मास्टर हैं. वे ट्यूशन देती हैं और अपने स्टूडेंस के घर पर भी जाती हैं.सात साल पहले उन्होंने बुर्का पहनना शुरू किया. उनका कहना है कि इस फैसले से उनके पति का कोई लेना देना नहीं है. वह उससे जब मिली तो पहले से ही बुर्का पहनती थीं. अभी तक किसी को सजा नहीं हुई है लेकिन पत्नी को बुर्का पहनने के लिए मजबूर करने वाले को 30,000 यूरो का जुर्माना हो सकता है.
मबरुका का कहना है कि चाहे जितना ही अजीब लगे लेकिन धर्म ने नहीं बल्कि फ्रांसीसी समाज ने उनकी आजादी छीनी है. एक साल के प्रतिबंध के बाद वे वह देश छोड़ना चाहती हैं जहां वे जन्मी हैं. कहती हैं, "मैं बाकी की जिंदगी यहां नहीं गुजारना चाहती. मैं भाग जाना चाहती हूं क्योंकि मैं इस तरह से नहीं जीना चाहती." लेकिन यह इतना आसान नहीं. अरब देशों में तनाव है, यूरोप के दूसरे देश में नई भाषा सीखनी होगी. बेल्जियम में फ्रांसीसी तो बोली जाती है, लेकिन वहां भी बुर्के पर रोक है.
रिपोर्ट: जोआना इंपी, पैरिस/एमजे
संपादक: एन रंजन