बचा लेंगे जरदारी और शरीफ अपनी जमीन
९ मई २०१३फरवरी 2008 में हुए संसदीय चुनावों में विपक्षी पीपुल्स पार्टी ने सबसे ज्यादा सीटें जीतीं और सरकार बनाई. पांच साल बाद उसकी सरकार नियमित कार्यकाल पूरा करने वाली देश की पहली सरकार बनी. अब हो रहे चुनावों से मतदाताओं की क्या अपेक्षाएं हैं, यह जानने के लिए पाकिस्तान के टिकाऊ विकास नीति संस्थान एसडीपीआई ने जर्मनी के हाइरिष बोएल फाउंडेशन के साथ मिलकर एक सर्वे कराया. अक्टूबर से दिसंबर 2012 तक लोगों से देश की राजनीति के बारे में उनका रवैया पूछा गया. एसडीपीआई के डाइरेक्टर आबिद सुलेरी के अनुसार नतीजे दिखाते हैं कि राजनीतिक नेतृत्व के प्रति लोग कितने संशय से भरे हैं.
इमरान की कमियां
लोग राजनीतिक दलों और पुलिस को लोग अत्यंत भ्रष्ट मानते हैं. सबसे ज्यादा भ्रष्ट पीपीपी मानी जाती है. सेना, न्यायपालिका और मीडिया को जनता कम भ्रष्ट मानती है. चुनाव से पहले बड़ी पार्टियों पर आरोप है कि वे पार्टी प्रोग्राम से ज्यादा अपने नेताओं की लोकप्रियता पर भरोसा कर रही हैं. खासकर पूर्व क्रिकेटर इमरान खान अपनी लोकप्रियता का फायदा उठाना चाहते हैं. जर्मनी की विज्ञान और राजनीति फाउंडेशन के एशिया एक्सपर्ट क्रिस्टियान वाग्नर कहते हैं, "वे अपने को दोनों बड़ी पार्टियों से अलग दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनके पास न तो राजनीतिक अनुभव है और न ही कोई ठोस योजना."
वाग्नर कहते हैं, "इमरान खान ने अपने एजेंडे में कृषि क्षेत्र पर बहुत जोर दिया है. लेकिन उनके बारे में शिकायत यह है कि उनकी पार्टी में बहुत से नेता दो बड़ी पार्टियों के पूर्व समर्थक हैं, जो निराश होकर इमरान के साथ आ मिले हैं." लेकिन करिश्माई इमरान खान को अपने साथ युवा मतदाताओं को जोड़ने में कामयाबी मिली है.
सेना की भूमिका
राजनीतिक शक्ति के आकलन में देश में असली शक्ति संतुलन पर भी नजर डालनी होगी. पाकिस्तान में सत्ता का सबसे महत्वपूर्ण पहलू सेना है, जिसका अर्थव्यवस्था के बड़े हिस्से पर भी कब्जा है. एसडीपीआई के आबिद सुलेरी कहते हैं कि पिछले पांच सालों में सरकार विदेशनीति में अपना दखल बढ़ाने में सफल रही है. सेना के लिए सरकार की इच्छा को नजरअंदाज करना इतना आसान नहीं रह गया है. इसके बावजूद विशेषज्ञों को शक है कि पाकिस्तानी सेना ने राजनीतिक क्षेत्र को विदा कह दिया है.
सेना और खुफिया एजेंसियां पहले की ही तरह राज्य में एक अलग राज्य की तरह पेश आ रही है. एशिया विशेषज्ञ वाग्नर कहते हैं, "हमने देखा है कि पिछले सालों में राजनीतिक एजेंडा तय करती रही पाकिस्तानी सेना औपचारिक रूप से पीछे हट गई है. इसका मतलब यह नहीं है कि उसकी ताकत कम हुई है." सेना ने साफ किया है कि वह लोकतांत्रिक निर्वाचन प्रक्रिया का समर्थन करेगी. उसकी भी इस बात में दिलचस्पी है कि देश में लोकतांत्रिक स्थिरता आए.
सत्ता के दावेदार
हालांकि एसडीपीआई का सर्वे चुनाव से पांच महीने पहले दिसंबर 2012 में पूरा हो गया था, फिर भी इसकी मदद से चुनाव में लोगों के बर्ताव के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है. देश की तीन सबसे अहम पार्टियां पीपुल्स पार्टी, मुस्लिम लीग नवाज और इमरान खान की तहरीक ए इंसाफ पार्टी को 20 से 30 प्रतिशत तक वोट मिलने की उम्मीद है. वाग्नर कहते हैं कि इस तरह सरकार बनाने के कई विकल्प हैं. "यदि हम यह सोचें कि दोनों बड़ी पार्टियां अगली सरकार के केंद्र में होंगी, तो अतीत में दोनों ने दिखाया है कि वे क्षेत्रीय पार्टियों के साथ मिलकर जरूरी बहुमत इकट्ठा कर सकती हैं."
चुनाव के नतीजे जो भी निकलें, पाकिस्तान में जर्मनी की हाइरिष बोएल फाउंडेशन की प्रमुख ब्रिटा पेटरसन कहती हैं, "पाकिस्तान की अगली सरकार हर हाल में कमजोर सरकार होगी." विजेता पर सरकार बनाने के लिए सहयोगी ढूंढने का दबाव होगा और वे अपने हितों के बारे में सोचेंगे.
पीपुल्स पार्टी की ढीला प्रदर्शन
ब्रिटा पेटरसन पीपुल्स पार्टी की पांच साल की सरकार का मिश्रित मूल्यांकन करती हैं. उनका कहना है कि सरकार ने महिला अधिकारों, पर्यावरण संरक्षण और खाद्य सुरक्षा के क्षेत्रों में बहुत सी पहलकदमियां की हैं, "लेकिन समस्या यह है कि सारे कानून अमल में आने का इंतजार कर रहे हैं." पीपुल्स पार्टी लोगों की मौलिक जरूरतों को पूरा करने के प्रयास में विफल रही है. देश में खाद्य पदार्थों और बिजली की आपूर्ति का बुरा हाल है. पाकिस्तान को राजनीतिक बदलाव का इंतजार है, लेकिन बहुत संभावना है कि बदलाव नहीं आएगा.
पेटरसन और सुलेरी इस बात पर एकमत हैं कि इस चुनाव में इमरान खान ज्यादा से ज्यादा गंभीर दावेदार होने की अपनी स्थिति को मजबूत करेंगे. सुलेरी कहते हैं, "शायद 2018 के चुनावों में इमरान खान को ऊंचा पद पाने का मौका मिल सकता है, इस चुनाव में नहीं." चुनाव से कुछ दिन पहले प्रचार के दौरान मंच से गिरने के कारण वे गंभीर रूप से घायल हो गए. यह घटना उन्हें कुछ सहानुभूति वोट दिला सकती है.
रिपोर्ट: राखेल बेग/एमजे
संपादन: ओंकार सिंह जनौटी