1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

बर्लिनाले में भारत की पेशकश 'पंचभूत'

५ फ़रवरी २०१२

अपनी फिल्म पंचभूत के जरिए आध्यात्मिक समझ तलाश कर रहे मोहन कुमार को उनका सफर बर्लिनाले तक ले आया है. कुमार की फिल्म बर्लिनाले प्रतियोगिता में भारत से अकेली एंट्री है.

https://p.dw.com/p/13xCp
तस्वीर: dapd

पंचभूत, यानी पांच तत्वः पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश, हमारी जिंदगी के हर पहलू से जुड़े हैं. कुमार जीवन के मतलब की तलाश में तो नहीं थे, लेकिन कोलकाता की साइंस सिटी के पास एक कचरे के ढेर ने उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान की खोज की राह पर रवाना कर दिया. कोलकाता के सत्यजीत रे फिल्म इंस्टिट्यूट के कुमार की डॉक्यूमेंटरी 2012 की बर्लिनाले प्रतियोगिता के लिए चुनी गई है. डॉयचे वेले के साथ खास बातचीत में कुमार कहते हैं कि वह इस मौके का पूरा फायदा उठाना चाहते हैं, अपनी फिल्म और अपने संस्थान को बढ़ावा देने के लिए.

कोलकाता के धापा डंपिंग ग्राउंड में पूरे शहर का कूड़ा जमा होता है. 1981 से लेकर अब तक इस लैंडफिल में हर तरह का कचरा लाया जाता है. प्लास्टिक से लेकर घरेलू चीजें, आलू टमाटर के छिलके, अस्पताल की बोतलें, मशीनें और यहां तक कि जानवरों के शव भी कूड़े करकट में मिलकर एक हो जाते हैं. आसपास जल रहे कूड़े का काला धुआं आसमान से मिलता है. हवा के हलके झोंके राख को फैलाते हैं, सर्द मौसम में कचरे की पहाड़ी पर रह रहे गरीब जलते कूड़े की गर्मी लेते हैं. सरकारी और निजी कंपनियों के ट्रक दिन भर सैंकड़ों टन कूड़ा गिराते हैं, ड्राइवरों के मददगार कूड़े के ढेर बनाते हैं और आवारा कुत्ते कुछ खाने की तलाश में इन ढेरों को दोबारा फैलाते हैं.

Internationale Filmfestspiele Berlin Berlinale 2012 Aujourd'hui
तस्वीर: Mabeye Deme

कुमार का कहना है कि हर जगह में कुछ ऐसी स्थायी चीजें होती हैं जो उस जगह की पहचान बनाती हैं. धापा लैंडफिल में फेंकी हुई चीजें आम व्यक्ति के जीवन का हिस्सा नहीं हैं. कुमार के मुताबिक यह एक कब्रिस्तान जैसा है जहां चीजें, शव, गंदे कुत्ते और गायें अपनी जगह बनाए हुए हैं. इस जगह में रहना नामुमकिन है, क्योंकि यह इतना गंदा है. कूड़ों की ढेर से निकलती बदबू जहां सांस लेना मुश्किल कर देती है, वहीं राख और धूल में लिपटी हवा में आंखें खोलना, बस के बाहर है. कुमार कहते हैं कि यह हमारे शहरों का एक ऐसा पहलू है जिसे हम अनदेखा कर देते हैं क्योंकि यह इतना घिनौना है.

लेकिन यहां कूड़ा छान रहे लोगों के लिए यह जगह उनकी जिंदगी का हिस्सा है. इसलिए कुमार ने अपनी फिल्म में बस इसी पहलू की जांच की है. कुमार का कैमरा इस जगह, उसमें रह रहे लोगों और कुमार के अपने देखने के तरीके को साथ लाते है. इस फिल्म में न कोई बोलता है, न इसमें कोई कहानी या इंटरव्यू है. इसमें केवल कैमरे में समाई कचरे की तस्वीरें और सुबह से लेकर शाम तक धापा में ढलती धूप के साथ बदलती रोशनी बोलती हैं. कैमरा कभी आग की लपटों, कभी हवा के झोंकों, कभी जमीन पर फैली प्लास्टिक, कभी आसमान और कभी पहा़ड़ी के खालीपन पर फोकस करता है. उसके साथ कई जिदंगियां आगे बढ़ती है, जिनके लिए कचरा अछूत नहीं बल्कि खुराक है.

रिपोर्टः मानसी गोपालकृष्णन

संपादनः ओ सिंह

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी

और रिपोर्टें देखें