बेटे की चाहत की बलि चढ़ी एक और बेटी
११ अप्रैल २०१२बेंगलोर के सरकारी अस्पताल में तीन दिनों की लड़ाई के बाद नेहा आफरीन ने दिल का दौरा पड़ने से दम तोड़ दिया. वह चार दिनों से कोमा में थी. हॉस्पीटल के अधिकारी गंगाधर वेलावदी ने बताया, "हमने आफरीन को बचाने की बहुत कोशिश की लेकिन सफल नहीं हुए, चोट के कारण उसकी मौत हो गई."
आफरीन को जब अस्पताल लाया गया तो उसके सर में चोट थी, सारे शरीर पर खरोंच और चोट के निशान थे. इस मामले पर हंगामे के बाद पिता को सोमवार को गिरफ्तार कर लिया गया था. पुलिस के अनुसार 25 साल का उमर फारूख बेंगलोर के शिवाजीनगर इलाके में एक दुकान पर काम करता है. वह बेटा चाहता था पर बेटी होने के बाद से गुस्से में था. उसने पिछले महीनों में बेटी आफरीन को मारने की कई कोशिश की थी. आफरीन की मां रेशमा बानो ने बताया, "वह उससे नफरत करता था. वह चाहता था कि मैं बच्ची से छुटकारा पा लूं या उसे किसी को दे दूं."
भारत से अक्सर नवजात बेटियों को छोड़ देने, अत्याचार करने या मार देने की खबरें आती हैं क्योंकि वे अनचाही होती हैं. प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता रंजना कुमारी कहती हैं, "लड़कियों के प्रति क्रूरता सभी सीमाओं को पार कर रही है." उनका कहना है कि समाज को लड़कियों के महत्व के बारे में और ज्यादा बताने की जरूरत है. इसके साथ ही वो क्रूरता दिखाने वालों को कड़ी सजा देने की भी मांग करती हैं.
मार्च में मां बाप की छोड़ी दो साल की एक लड़की फलक की नई दिल्ली के अस्पताल में मौत हो गई थी. उसके हाथ और शरीर की हड्डियां टूटी हुई थीं. पिछले हफ्ते जोधपुर में एक नवजात लड़की को माता पिता ने छोड़ दिया लेकिन गलती से सौंपे गए बच्चे के लिए लड़ते रहे. वे इस पर जोर देते रहे कि बेटी उनकी नहीं है. उन्होंने 11 दिनों के डीएनए रिपोर्ट दिखाए जाने के बाद ही बेटी को स्वीकार किया.
पुरुष प्रधान भारत में महिलाओं पर बेटा पैदा करने के लिए बहुत दबाव रहता है. बेटों को परिवार चलाने वाला और माता पिता की बुढ़ापे में देखभाल करने वाला समझा जाता है. लड़कियों को अक्सर परिवार का बोझ समझा जाता है क्योंकि उनकी शादी के लिए भारी दहेज देना पड़ता है. अक्सर बेटी होने का पता चलने पर गर्भपात करा लिया जाता है, हालांकि पिछले 15 साल से गर्भ में शिशु के लिंग का पता करने पर रोक है. मर्द बच्चों के लिए प्राथमिकता इतनी बढ़ गई है कि भारत में लैंगिक असमानता पैदा हो गई है. 2011 में हुई जनगणना के अनुसार भारत में हर 1000 लड़कों पर सिर्फ 914 लड़कियां हैं. अंतरराष्ट्रीय औसत 952 लड़कियों का है.
रिपोर्टः महेश झा (एएफपी, डीपीए)
संपादनः एन रंजन