ब्रिक्स देशों से क्या मदद लेगा यूरोप
१८ सितम्बर २०११दुखद यह है कि बस कुछ ही साल पहले तक यूरोपीय लोग इन देशों की ओर देखते हुए नाक नीची कर लेते थे और उन्हें दूसरी दुनिया कहते थे लेकिन अब वक्त बदल चुका है.
बहुत से यूरोपीय लोगों ने कुछ साल पहले जो आशंका जताई थी वह अब सच में तब्दील हो चुकी है. यूरोपीय संघ के भीतर राजनीतिक एकता कायम करने में ज्यादा प्रगति न होने के कारण यूरोजोन के देशों के लिए मौजूदा यूरो संकट का हल ढूंढ पाना लगभग असंभव हो गया है. हर दिन गुजरने के साथ ही यह आशंका मजबूत होती जा रही है कि यूरोप इस संकट का हल नहीं ढूंढ पाएगा और उसे अंतरराष्ट्रीय मदद पर निर्भर होना पड़ेगा. दुनिया के सबसे अमीर सात देशों के संगठन जी-7 की बैठक के बाद साफ है कि अब तक मदद के लिए कोई सामने नहीं आया है.
ब्रिक्स देशों को भी यूरोप की बिगड़ती हालत ने चिंता में डाल रखा है क्योंकि उन्हें भी नुकसान उठाना पड़ सकता है. यूरोप के साथ उनके कारोबारी रिश्ते खासतौर से जर्मनी के साथ काफी सक्रिय और महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं. यूरो की कीमत गिरती रही तो इन देशों का निर्यात और महंगा होता जाएगा फिर उनके लिए अपना सामान बेच पाना मुश्किल होगा. पर यूरोप के संकट से केवल यही समस्या नहीं है.
ब्रिक्स देशों ने अमेरिकी आर्थिक संकट के बाद अपने विदेशी मुद्रा के भंडार से डॉलर को निकाल दिया और यूरो को अपना लिया. ऐसे में अगर कीमत गिरती रही तो उन्हें अरबों को नुकसान उठाना पड़ सकता है. इसके साथ ही यूरोपीय संघ अपने घरेलू बाजार को बचाने के लिए मुमकिन है कि आयात पर और ज्यादा टैक्स लगा दे. यह शुरू भी हो चुका है. पिछले शुक्रवार को यूरोपीय संघ ने चीन से आने वाली टाइलों पर अतिरिक्त कर लगा दिया. इस कदम के पीछे सिर्फ ये डर है कि घरेलू उत्पादकों को नुकसान हो रहा है क्योंकि कीमतें चीनी टाइलों के आने के बाद से नीचे जा रही हैं.
सवाल है कि आखिर ब्रिक्स या खासतौर से चीन यूरोप की मदद करेगा तो कैसे. चीन और रूस यूरोजोन को स्थिर करने के लिए ज्यादा जोखिम वाले सरकारी बॉन्ड खरीद सकते हैं. दिक्कत ये है कि अगर यूरोप को इस मदद की कीमत चुकानी पड़ी तो फिर यह कोई अच्छा विकल्प नहीं होगा. चीन इस सच्चाई को नहीं छिपा रहा है कि वह प्रमुख यूरोपीय उद्योगों में निवेश और उच्च तकनीक वाले उत्पादों का आयात करना चाहता है. पर यूरोप इस विकल्प में बहुत दिलचस्पी नहीं दिखा रहा क्योंकि कई यूरोपीय देश खासतौर से जर्मनी को अपनी तकनीकी बढ़त से वंचित होना पड़ेगा. यह तकनीकी रूप से मजबूती ही वह वजह है जो दुनिया भर में जर्मन उत्पादों की मांग हमेशा बनाए रखती है. ऐसी उच्च तकनीक वाली कंपनियों को बेचने से न सिर्फ यहां की अर्थव्यवस्था पर बड़ा असर होगा बल्कि यूरोपीय सुरक्षा नीति पर भी इसका असर हो सकता है.
यूरो संकट के दौर में यूरोपीय संघ के लिए ना कहना हर गुजरते दिन के साथ ज्यादा मुश्किल होता जा रहा है. चीन ने पहले ही दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया है और वो अपनी मांगें रख रहा है. चीन के नेता चाहते हैं कि यूरोपीय संघ चीन को मार्केट इकोनॉमी का दर्जा दे. हालांकि यूरोप की निगाह में चीन इसके लिए जरूरी शर्तें नहीं पूरी करता. चीन को यह दर्जा देने का मतलब है कि चीन के लिए यूरोपीय बाजारों के दरवाजे खोल देना. ऐसा होते ही यूरोप के बाजारों में चीनी सामानों की बाढ़ आ जाएगी.
यूरोप का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है. घड़ी की आगे बढ़ती सुइयां सवाल उठा रही हैं कि क्या ये पुराना दिग्गज यूरो संकट से खुद अपने बलबूते बाहर निकल पाएगा? या फिर इसे बाहर से पैसा लेने पर मजबूर होना पड़ेगा? अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की नए प्रमुख क्रिस्टियान लागार्द ने ब्रिक्स देशों से मिलने वाली मदद को एक 'रोचक बदलाव' कह कर इसके महत्व को कम करने की ही कोशिश की है. अगर यूरोप का राजनीतिक नेतृत्व अपनी कोशिशों में नाकाम रहा तो न सिर्फ यूरोप के लोगों को इसकी कीमत चुकानी होगी बल्कि यह एक तरह से ऐतिहासिक अनुपात को भी बदल कर रख देगा.