भारत की कहानी भारत के फिल्मकारों से
२३ अक्टूबर २०११वो कहानियां जो बॉलीवुड नहीं सुनाता, जिनमें सिर्फ अन्याय, आध्यात्म, ऊंच नीच और नाच गाना ही न हो बल्कि दूसरी सच्चाइयां भी हों. कदम कदम पर बिखरी सैकडों कहानियां जिन्हें महीने दो महीने या छह महीने के लिए बाहर से आकर फिल्म बनाने वाले नहीं समझ पाएंगे. इसके लिए तो शायद एक पूरा जीवन भी कम है.
लाइपजिग में भारत की कई फिल्में देखने के दौरान ये पता चला कि इन फिल्मों के लिए यूरोपीय लोगों में कितनी दिलचस्पी है. मुकेश कौशिक की बनाई लव इन इंडिया के लिए तो ऐसी हालत हो गई कि सारी टिकटें खत्म हो गईं और कई लोगों को हॉल में जगह नहीं मिल सकी. कामसूत्र और खजुराहो की रचना करने वाले देश में प्यार जताना कितना मुश्किल है, फिल्म में यही दिखाया गया.
फिल्म देखने आए दर्शकों में बड़ी संख्या यूनिवर्सिटी के छात्रों की थी जिन्होंने पैसे देकर टिकट खरीदे थे और जो भारत को करीब से जानना चाहते हैं. राजेश एस जाला की एट द स्टेयर्स और अनिर्बन दत्ता की डॉट इन फॉर मोशन के लिए भी करीब करीब यही हालत थी. बड़ी संख्या में फिल्म देखने आए लोगों की संख्या से उत्साहित डॉक लाइपजिग में भारतीय फिल्मों के कार्यक्रम की क्यूरेटर राधा सेसिच कहती हैं, "एक ही वक्त पर जब दर्जनों फिल्में दिखाई जा रही हैं और तब भी किसी फिल्म के टिकट न मिल पाएं तो यह समझा जा सकता है कि लोगों की दिलचस्पी इन फिल्मों में कितनी ज्यादा है. सैकड़ों फिल्मों की फेहरिस्त में से लोग भारत की फिल्मों को चुन रहे हैं."
दुनिया भर के डॉक्यूमेंट्री फिल्म के मेलों में भारत की फिल्में पहुंच रही हैं, कामयाबी हासिल कर रही हैं. लाइपजिग में भारत की 14 फिल्में दिखाई गईं और इनमें से एक फिल्म को युवा फिल्मकारों की बनाई डॉक्यूमेंट्री की प्रतियोगिता में भी शामिल किया गया. सिर्फ इसी बार की बात नहीं है. इससे पहले भी यहां भारत की फिल्में आई हैं. पिछले महीने दक्षिण कोरिया के बुसान में भी भारत की डॉक्यूमेंट्री फिल्मों को शामिल किया गया. अगले महीने एम्सटर्डम में डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का सबसे बड़ा मेला आयोजित होगा. इंटरनेशनल डॉक्यूमेंट्री फेस्टिवल ऑफ एम्सटर्डम यानी आईडीएफए के बैनर तले आयोजित इस मेले में भारत की कई फिल्मों को जगह मिली है. आईडीएफए ने पिछले 15 साल में भारत की कम से कम 25 डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के लिए फंड भी दिया है.
लाइपजिग डॉक के आयोजकों को जब राधा सेसिच ने भारत की फिल्मों पर अलग सत्र आयोजित करने का सुझाव दिया तो जोरदार बहस हुई. मध्यपूर्व को इसके लिए ज्यादा उपयुक्त माना गया. लेकिन बाद में कामयाबी राधा को ही मिली. डॉक लाइपजिग में डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के प्रोग्राम की प्रमुख डॉ ग्रिट लेम्के बताती हैं," करीब 15-16 साल पहले भारत की पहली डॉक्यूमेंट्री देखी थी, अजीत. तब से ही भारतीय फिल्मकारों के सिनेमाई कौशल की कायल हूं. अब तक तो बहुत सी फिल्में मैंने देख ली हैं. हम सब जानते हैं कि भारतीय फिल्मकारों में काबिलियत है और उन्हें पर्याप्त मौका नहीं मिल पा रहा. डॉक लाइपजिग इसी दिशा में प्रयास कर रहा है. इसके अलावा भारत के आर्थिक विकास ने भी पश्चिमी देशों के लोगों को भारत के बारे में ज्यादा जानने, समझने के लिए आकर्षित किया है."
राधा सेसिच कहती हैं, "भारत के बारे में खबरें तो लोगें को अखबारों और टीवी चैनलों से भी मिल जाती हैं. उपन्यासों के अलावा भारत पर दूसरी किताबें भी खूब लिखी जा रही हैं. लेकिन अच्छा सिनेमा भी भारत के बारे में लोगों को बता रहा है. युवा फिल्मकारों की बनाई इन फिल्मों के जरिए दुनिया को उनके नजरिये के बारे में पता चल रहा है."
गुजरे जमाने को याद करते हुए राधा बताती हैं कि 20 साल पहले जब भारत के बारे में फिल्में बनती थीं तो उन्हें बाहर से आए फिल्मकार बनाते थे या फिर कुछ गिने चुने भारतीय फिल्मकार. मुख्य रूप से इन फिल्मों में सामाजिक अन्याय, गरीबी, भूखमरी, महिलाओं पर जुल्म और गांवों पर आधारित इसी तरह की कहानियां होती थीं. पर अब बहुत कुछ बदल गया है. अब भारत के फिल्मकार दूसरी तरह की कहानियों पर काम कर रहे हैं और इनके जरिए सिनेमाई कौशल के कुछ नए आयाम उभर कर सामने आ रहे हैं. शहरी जीवन के अलग अलग आयामों की बात हो रही है." इन फिल्मों से अभिव्यक्ति के नए रास्ते खुल रहे हैं. इसके अलावा युवा फिल्मकारों के पास अपने ही समाज को देखने का अलग नजरिया भी है. ये युवा महज फिल्में नहीं बना रहे बल्कि नई बहस छेड़ रहे हैं, सामाजिक मुद्दों को उठा रहे हैं और अपने ही समाज के प्रति आलोचक दृष्टि रखने से इन्हें जरा भी परहेज नहीं."
भारत, भारत की कहानियां लोगों को तब से लुभाती आ रही हैं जब फिल्म या डॉक्यूमेंट्री तो दूर की बात संचार का कोई साधन ही नहीं था. भारत ढूंढने की कोशिश में कोलंबस ने अमेरिका ढूंढ लिया और न जाने कितने लोग क्या क्या कर आए. लोगों की महानता भारत से जुड़ कर अर्थ पाती रही है. भारत के दामन में उम्मीदों, सपनों, आकांक्षाओं और विविधताओं के रंग हैं. दुनिया की दिलचस्पी इसमें शायद तब से है जब इंसान ने दिलचस्पी का मतलब जाना था. वजहें बदलती रहती हैं. डॉक्यूमेंट्री फिल्में लोगों तक वे हकीकत पहुंचा रही हैं जिन तक भारत में आए बगैर पहुंच पाना अकसर मुमकिन नहीं हो पाता.
रिपोर्टः निखिल रंजन, लाइपजिग(जर्मनी)
संपादनः वी कुमार