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भारत में कछुओं को बचाने की कोशिश

२३ मई २०१६

भारत में कछुए को विष्णु का अवतार माना जाता है. लेकिन दूसरे देशों की तरह वहां भी उसका भविष्य खतरे में है, क्योंकि उसके मांस, अंडे और चमड़े की बड़ी मांग है.

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तस्वीर: Reuters

कछुए का इस्तेमाल कोई खाने में करता है तो कोई एफ्रोडिजियाक के रूप में. बढ़ती मांग के कारण ट्रॉपिकल देशों में समुद्र तटों पर कछुओं की तादाद तेजी से गिर रही है. लेकिन एक भारतीय एनजीओ इसे रोकने की कोशिश कर रहा है. पर्यावरण संरक्षक वीरेंद्र पाटिल समुद्र तट पर कछुओं के निशान ढूंढकर उसे बचाने के प्रयास में लगे हैं. इसके लिए वे कई दिनों तक सुराग ढूंढते हैं. एक समुद्री कछुआ अपने भारी पांवों से धीमे धीमे चलता हुआ रात में समुद्र तट पर आया था. वे बताते हैं, "हमारा ध्यान इस ट्रैक पर सुबह में गया. निशान के पीछे पीछे हम वहां तक ये देखने गए कि कछुए ने अंडा दिया है या नहीं. निशान के पीछे चलकर हमने एक पिट पाया. लेकिन उसके अंग जड़ों में उलझ गए लगते हैं. वह अंडा दिए बिना समुद्र में लौट गया."

हर सुबह पांच बजे वीरेंद्र पाटिल और उनके सहयोगी समीर महादिक समुद्र तट पर कछुओं के निशान और अंडे खोजते हैं. वे कछुओं के संरक्षण के एक प्रोग्राम में काम कर रहे हैं जिसका संचालन मोहन उपाध्याय करते हैं. जब उन्हें कहीं कोई अंडा मिलता है तो वे उन्हें लेकर यहां ब्रीडिंग सेंटर पर आते हैं, ताकि उन्हें शिकारी जानवरों और इंसानों से बचाया जा सके. वे उन्हें फिर से रेत के अंदर दबा देते हैं. टोकरी अंडों को ठंड से बचाती है. ब्रीडिंग में 50 दिन लगता है. समीर महादिक कहते हैं, "जब अंडे नहीं मिलते तो हम रेत में गड्डों को देखते हैं. अगर अंदर कोई हलचल होती है, तो रेत नीचे चली जाती है. ऐसे में हम सावधान हो जाते हैं क्योंकि संभव है कि अंडे में से कछुए निकल गए हों और वे रेत में ही रेंग रहे हों. यदि ऐसा होता है तो हम कछुए के बच्चों को समुद्र में छोड़ आते हैं."

लेकिन उनमें से बहुत कम ही जीवित बचते हैं. एक कारण है पानी का गंदा होते जाना. 1000 कछुओं के बच्चों में सिर्फ औसत एक ही प्रजनन की 20 साल की उम्र तक पहुंच पाता है. यहां तट पर आने वाला कछुआ ओलिव रिडली प्रजाति का है और उसका कुछ इतना बड़ा आकार होता है. वह करीब 50 किलो का होता है. समुद्री कछुओं में ओलिव रिडली सबसे छोटा होता है. जब वह यहां आता है तो अंडे देने को तैयार होता है. तीनों पर्यावरण संरक्षक वेलास गांव में रहते हैं. 500 निवासियों वाला यह गांव भारत के पश्चिमी तट पर स्थित है. यहां के लोग पीढ़ियों से खेती बाड़ी में लगे हैं. वे गोल मिर्च, काजू और आम उपजाते हैं. पर्यावरण संरक्षण का विषय अब स्कूलों में भी पहुंच गया है. मोहन उपाध्याय नियमित रूप से इसके बारे में शिक्षकों से बात करते हैं. इसमें कछुओं की भी अहम भूमिका होती है. इलाके के बच्चों को जानना चाहिए कि समुद्री तट की रक्षा क्यों जरूरी है. इस पर्यावरण संरक्षण प्रोग्राम का यही मकसद है कि लोगों को इसके महत्व का पता चले.

मोहन उपाध्याय को हमेशा से ही पशु और पक्षियों से प्यार रहा है. जब उन्होंने सुना कि कछुए विलुप्त होने के कगार पर हैं तो उन्होंने भारतीय एनजीओ एसएनएम में काम करना शुरू किया. इस संगठन ने 13 साल पहले यह प्रोजेक्ट शुरू किया था और इस बीच वे वन विभाग के साथ भी सहयोग कर रहे हैं. कभी कभी यहां अंडे से अभी अभी बाहर निकले बेबी कछुए अपने आप समुद्र की ओर जाते दिखते हैं. लेकिन इनमें से कौन जिंदा बच पाएगा, पता नही. मोहन उपाध्याय बताते हैं, "कछुआ हमेशा से वेलास और कोंकण के इलाके में आते रहे हैं और समुद्र तट पर अंडे देते रहे हैं. लेकिन लोग उन्हें चुरा कर खा लेते थे या फिर शिकारी जानवर उन्हें खा जाते थे. एक बार संरक्षणकर्ताओं ने यहां अंडे के खोल देखे और अंडों और कछुओं को बचाने का फैसला किया. हम उनकी तादाद में कमी को रोकना चाहते थे और लोगों को बताना चाहते थे कि वे कितने मूल्यवान हैं. इसीलिए यह प्रोजेक्ट शुरू हुआ."

उनकी आस्था उनके काम में भी बड़ी भूमिका निभाती है. कछुओं को भारत में भगवान का दर्जा मिला हुआ है. मोहन उपाध्याय कहते हैं, "हम कछुए को भगवान विष्णु का अवतार मानते हैं. इसलिए आप इसे अधिकांश घरों में पाएंगे. इसके साथ बहुत सारी भावनाएं जुड़ी हैं. यह सौभाग्य और विकास का प्रतीक है, इसलिए इसे भगवान का अवतार माना जाता है. इसे हमेशा भगवान की जगह दी जाती है और पूजा जाता है." वेलास में कछुए आर्थिक प्रगति का कारक भी बन गए हैं. उन्हें देखने के लिए लोग मुंबई तक से यहां आते हैं.

वेलास में अभी तक होटल नहीं हैं. इसलिए यहां आने वाले लोग यहां के परिवारों के यहां टिकते हैं. पांच साल पहले 10 घर थे जहां होम स्टे संभव था, अब उनकी संख्या 40 हो गई है. इलाके में होम स्टे बिजनेस चलाने वाली सुनीता सकपाल को चिंता है कि अगर कछुओं ने अंडे न दिये तो इलाके की अर्थव्यवस्था का क्या होगा. "कछुओं की वजह से बेरोजगार लोगों को रोजगार मिला है. लेकिन इस साल सिर्फ 8 कछुओं ने अंडे दिये हैं. उनकी संख्या हर साल गिरती जा रही है. इसलिए हम बहुत तनाव में हैं. कछुओं के बिना हमें नहीं पता कि यहां क्या होगा. " और क्या होगा यदि समुद्र कचरे को तट पर पहुंचाता रहे. ठीक वहां जहां कछुए अंडे देते हैं. मोहन उपाध्याय और उनके साथियों के लिए यह लड़ाई जीतनी आसान नहीं. हालांकि वे कछुओं को बचाने के लिए लगातार प्लास्टिक का कचरा जमा करने में लगे रहते हैं.

बेटीना थोमा/एमजे