मधुमक्खी नहीं, तो फसल भी गई
२० अप्रैल २००९मधुमक्खियां, तितलियां, भंवरे व अन्य कीटपतंगों की संख्या घटने का मतलब है, फूलों का ठीक से पराग-निषेचन नहीं होगा. निषेचन नहीं होगा, तो फसल भी अच्छी नहीं होगी.
जर्मनी जैसे उन्नत देशों में यही हो रहा है. जर्मनी और फ़्रांस के वैज्ञानिकों ने मिलकर हिसाब लगाया है कि यदि पराग निषेचन करने वाले सभी कीटपतंगे नहीं रहे, तो विश्व अर्थव्यवस्था को हर साल कोई साढ़े तीन सौ अरब डॉलर की चपत लगने लगेगी.
अकेले जर्मनी में ही 50 साल पहले प्रतिवर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल पर सात से आठ मधुमक्खी छत्ते हुआ करते थे. अब औसतन केवल तीन छत्ते होते हैं. पहले मधुमक्खी पालन एक आकर्षक व्यवसाय हुआ करता था. बहुत से किसान मधुमक्खी पालन भी करते थे. आज 95 प्रतिशत मधुमक्खी पालक शौकिया लोग हैं.
जर्मन मधुमक्खियां अफ़्रीकी मधुमक्खियों की तरह आक्रामक नहीं होतीं. इसलिए शौकिया मधुमक्खी पालक उन्हें बिल्डिंगों की बाल्कनियों में भी पालने लगे हैं. देहातों मे मधुमक्खी पालने वाले बहुत कम हो गये हैं. बैर्न्ट लेमान इसी तरह का एक अपवाद हैं. पूर्वी जर्मनी के लाइपज़िग शहर से कोई 50 किलोमीटर दक्षिण में उनके खेत और फलों के बगान हैं. बगानों में हर साल 37 हज़ार टन तो केवल सेव पैदा होते हैं:
वह कहते हैं, "हमने थोड़ा पेशेवर तरीक़े से काम करना चाहा, जंगली मधुमक्खियों को बसाने की कोशिश की, लेकिन काफ़ी मुश्किल हुई. इसलिए हमने पालतू मधुमक्खियों को अपनाया. वे भंवरों या जंगली मधुमक्खियों की अपेक्षा बेहतर फसल देती हैं."
मधुमक्खी पालने और शहद बेचने में अब वह आमदनी नहीं रही कि लोग इसके प्रति आकर्षित हों. दुकानें और सुपर बाज़ार दक्षिण अमेरिका, एशिया और दक्षिणी यूरोप से आई सस्ती शहद से भरे हैं.
आधुनिक खेती में काम आने वाले कीटनाशकों ने मधुमक्खियों का जीना और भी दूभर कर दिया है. इस बीच पिस्सू जैसे वार्रोआ नाम के एक परजीवी से भी उन्हें लड़ना पड़ रहा है, जिसे 1977 में शोधकार्य के लिए एशिया से जर्मनी लाया गया था. इस परजीवी और खेतों पर छिड़के जाने वाले कीटनाशकों के कारण मधुमक्खियों की संख्या कुछ ही वर्षों में 30 प्रतिशत तक घट गई है.
कीटनाशकों के छिड़काव से जर्मनी के राइन घाटी इलाक़े में कुछ ही वर्षों मे मधुमक्खियों के हज़ारों छत्ते ख़ाली हो गए. जर्मनी की हेल्महोल सेंटर नामक संस्था के डॉ. योज़ेफ़ ज़ेटले ने फ़्रांसीसी वैज्ञानिकों के साथ मिल कर हिसाब लगाया है कि मधुमक्खियों के मरने से विश्व अर्थव्यवस्था को क्या नुक़सान हो सकता हैः
"हमने 2005 को संदर्भ वर्ष बनाया और विश्व खाद्य संगठन (एफ़एओ) के उन आंकड़ों को लिया, जिनमें विश्व की सभी खेती योग्य पौध-प्रजातियों की पैदावार, क़ीमतें इत्यादि बताई गई हैं. उनमें से हमने 100 सबसे महत्वपूर्ण फसली पौधे चुने, जैसे चावल, मकई, तरबूज इत्यादि. फिर यह देखा कि बाज़ार मूल्य पर विश्व में उनकी क्या महत्ता है और वे पराग निषेचन की क्रिया के लिए मधुमक्खियों पर कितने निर्भर हैं."
यह क़ीमत साढ़े तीन सौ अरब डॉलर वार्षिक निकली. स्पष्ट है कि प्रकृति में हर चीज़ एक-दूसरे पर इतनी निर्भर है कि इस बहुमुखी निर्भरता के बीच संतुलन ज़रा-सा भी गड़बड़ने पर सब कुछ डगमगाने लगता है.
रिपोर्ट- अनेग्रेट फ़ाबर / राम यादव
संपादन- ए कुमार